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रविवार, 19 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-16 : छौरा मालिक बूढा दीवान

कहानी ऐसे बनी-16

छौरा मालिक बूढा दीवान

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी

रूपांतर :: मनोज कुमार

राम राम हजूर ! हमें भूले तो नहीं... ? हमें भूले तो भूले.... आज रविवार है, यह याद है न...... !! रवि याद है तो कहानी ऐसे बनी भी याद ही होगा ... हमें भूल भी गए तो कोई बात नहीं। वो क्या है कि हम पिछले पखवाड़े में अपने गाँव गए थे। रेवा-खंड। अब गाँव की बात तो समझते ही हैं... माटी में भी अपनापन झलकता है। गाछ-वृक्ष, खर-पतवार सब में एक अलग ही स्नेह दिखता है। जब भी बसंती बयार बहती है.... तो समझिये कि प्रेम एकदम से कसमसा कर रह जाता है।

दो दिनों तक अलमस्त पुरानी टोली के संग गाँव का चप्पा-चप्पा छान मारे। सब-कुछ तो वैसा ही था। वही गौरी पोखर, खिलहा चौर, काली-थान, खादी भण्डार, पागल महतो की चाय की दूकान, मिश्र जी का भीरा.... अरे हाँ.... एक चीज नहीं है... वो आंवला का बड़ा सा पेड़! ओह... क्या बड़ा-बड़ा आंवला होता था... छोटे आलू के आकार का। सुबह-सुबह हमलोग पहुँचते थे चुनने। गिरा हुआ मिला तो ठीक, नहीं तो एक-आध ढेला भी मार देते थे। उधर से धोती संभालते हुए मिश्र जी जब तक निकले .... तब तक तो ये गया वो गया ... सारे लड़के फरार। मिश्र जी कह रहे थे कि गए हथिया में जड़ से ही उलट गया था आंवला का पेड़।

भीरा के पास ही बमपाठ सिंह की हवेली है। पूरे जवार में नामी जमींदार है, बमपाठ बाबू। गंडक के इस पार देख रहे हैं ..... जहां तक आप की नजर जायेगी सब बमपाठ सिंह की ही जमीन है और उस पार भी बावन बीघा है। क्या कड़क पंच-फुटिया जवान थे..! बाबा कहते थे कि जवानी में तो एक खस्सी अकेले निपटा देते थे। हमने अपनी आँख से भी देखा हैं, दो-दो कबूतर तो नाश्ते में उड़ा दिए थे। बमपाठ सिंह हर साल काली पूजा में देसुआ अखाड़ा पर कुश्ती भी लड़ते थे। बमपाठ बाबू के पोते को हमने कुछ दिन पढाया भी था। इसीलिए कुछ ज़्यादा ही हेल-मेल था। सोचा कि जरा हवेली पर भी माथा टेक लें।

“है कहाँ वो बुड्ढा दीवान ..... आज छोड़ेंगे नहीं ! काम के न काज के ! सेर भर अनाज के... !! और....... यह ललबबुआ चला है मालिक बनने !!! आज हम सब मल्कियत और दीवानी निकालते हैं ........ आज तो सिसपेंड कर के ही छोड़ेंगे !!!” बाप रे बाप..... बमपाठ सिंह तो आपे से बाहर थे। कूद कर के दुर्खा और कूद के दालान...... ! लग रहा था झुर्रीदार चमरी से गुस्सा फट कर बाहर आ जाएगा। देखा उनका पोता लालबाबू बड़े संदूक पर केहुनी टिकाये खड़ा था। हमको देख के बोला, "प्रणाम माटसाब" और एक कुर्सी आगे कर दिया।

हमें देख बमपाठ सिंह बाहर आए। हमारे प्रणाम का जवाब भी नहीं दिए और गुस्से से तमतमाए सामने एक कुर्सी ऐसे खींच कर बैठे कि हम भी डर गए। सकपका कर पूछे, "लगता है कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई है .... तभी सरकार इतने गुस्से में हैं ?"

सिंहजी के उफनते हुए गुस्से पर कुछ ठंडा पानी पड़ा। बेचारे फुंफकार छोड़े, "हूँ..."। संदूक की तरफ मुंह घुमा कर हम पूछे, "क्या हुआ है लालबाबू ?"

फिर से बमपाठ सिंह दहाड़े, “यह मुँहचुप्पा क्या बतायेगा... ? अरे हम से न सुनो। कहता नहीं है, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" सिंह जी गुस्से में भी इतना अलाप कर यह कहावत कहे कि हमारे तो अंदर ही अंदर हंसी छूट गई। हमने थोड़ी हिम्मत की और पूछे, "क्या बोले ... क्या बोले...?”

फिर सिंह जी विस्तार से समझाने लगे, छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" देखते नहीं हैं, इस ललबबुआ को ... यह सवा सौ बीघा की जमींदारी संभालेगा... ! एक तो आज-कल रैय्यत और बटीदार भी क़ानून बकता है और ये महाराज भोलानाथ ! हाये रे मालिक... जिस किसी ने कोई बात कह दी .. उसी में बह गए। एक तो ई करेला उस पर से वो नीम चढ़ा बूढा दीवान। एकदम सठिया गया है। अब न उसका शरीर काम करता है न दिमाग... ससुरा दही-घी के लोभ में दरबार भी नहीं छोड़ता है। और ये मालिक साहेब सब कुछ दिवान जी पर ही छोड़े हुए हैं। ये दोनों "छौरा मालिक और बूढा दीवान" मिल कर दो साल में जो चपत लगाया है कि क्या-क्या बताएं माटसाब !!!”

गुस्सा के मारे सिंह जी की लाल-लाल आँखों के ऊपर खिचड़ी हो चोकी भौंह फरक रही थी। बदन की एक-एक झुर्री काँप रही थी। "पिछले साल इसको कुछ समझ में आया नहीं और दीवानजी को आज-कल का आलस लगा रहा... सारा पटुआ पानी में ही सड़ गया। तम्बाकू भेजना था पुर्णियां मंडी और भेज दिया सातनेपुर में। पचासों हज़ार का घाटा लगवाया ... इन दोनों ने मिल कर। कितना जतन से हम अरजे ..... ! ये सब पानी जैसे बहा रहा है। रोसड़ा लीची बगान का पट्टा लेने में कितना पापड़ बेलना पड़ा था, वह ये ललबबुआ नहीं जानता है। दीवानजी तो साथ-साथ ही थे। उस दीवान को तो चश्मा से भी नहीं सूझता है। और ये ललबबुआ .... शाही लीची को बेच दिया औने-पौने दाम में। हम कहते हैं, माटसाब, एक-एक पेड़ हम परियार साल दो-दो सौ टका में बेचे थे, सुखार था तब। इस साल ये पचहत्तर रुपैए में ही गाछ बेच दिया।"

गुस्से में आगबबूला सिंहजी गिनाये जा रहे थे, "वही हाल जलकर का किया। हाकिम-हुक्काम सब को चुका कर भी लाख टका मछली से आ जाता था.... इस बबुसाहेब को कुछ बुझाया ही नहीं .... और दीवान जी तो आजकल सब कुछ भूल ही जाते हैं। जब तक हम देख रहे थे तो वही साले-साल जलकर का रसीद कटाते थे। और ये इस साल रसीदे कटना ही भूल गए। जिसका मन हुआ मछली मार के ले गया, एक पैसा घर नहीं आया.... उलटे जीरा डालने की पूंजी भी गई पानी में। ईंख बेचा सो पैसा अभी तक लटका हुआ है.... हथिया नच्छत्तर में धान का बिचरा गिराया.... परिणाम हुआ कि समय पर बिचरा तो खरीदना ही पड़ा जमीन भी खा-म-खा फंसा रह गया।"

लगता है आज बमपाठ सिंह सारा हिसाब कर देंगे, "पटपरा वाला रैय्यत के यहाँ से साल भर से एक दना नहीं आया है। मालगुजारी पर भी आफत है। दीवान बूढा एकदम सठिया गया है। जवानी में एक-एक अक्किल ऐसा लगाता था कि रैय्यत पैर पकड़ के झूलें अब रैय्यत के द्वार पर अपने झूलते रहता है। और इनको देखो.... बड़ा खून का गर्मी दिखाने गए थे। कहते हैं साहब, खून की गर्मी से कहीं राज चला है। एक पैसा का आमद तो हुआ नहीं... उलटे मार-पीट कर लिहिस। जो रैय्यत हमारे बाबा-पुरखा का पैर पूजता था हमारे पोता पर लाठी पूज दिया। रैय्यत से अक्किल लगा कर माल निकलवाना था कि लाठी से... ? हम कहते हैं क्या जरूरी था पर-गाँव में जा कर रंगदारी करने का.. ? पता नहीं है कि अब सरकार की आँख जमींदार सब पर लगी हुई है। अब लो मार भी खाया और मुक़दमा भी लड़ो। बाबू साहब तो लड़ लिए, दीवान जी के भरोसे कि सब कुछ फरिया ही देंगे लेकिन उस बूढे से अब कुछ होता है ... निखट्टू एक थानेदार तक को नहीं पटा पाया। लोअर कोर्ट में मरा हुआ वकील पकड़ा और अब जाओ हाई कोर्ट।"

"मालिक है जवान तो इसका दिमाग नहीं चलता है .... अल के बल औडर दे देता है। अपना दिमाग कुछ लगाता ही नहीं है। ज़ूम मे आकर सब बेदिमागी फैसला करता है। और दीवान जी बुढा गए हैं तो उनका देह ही नहीं चलता है। दौड़-भाग का कोई भी काम नहीं होता है। चश्मे से भी दिखाई नहीं देता है और दिमाग भी सठिया गया है। इसीलिए न कहते हैं, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ बिहान !!"

मालिक को बूढा रहना चाहिए ताकि वो अपने अनुभव से काम ले। और दीवान मतलब कार्यकारी को जवान रहना चाहिए ताकि वह तन और मन दोनों लगा कर पूरे जोश से काम करे। और नहीं जो उल्टा हो गया तो लो... "मामला बिगड़े सांझ बिहान!"

इतना कह के बमपाठ सिंह तुरत ऐलान कर दिए कि राज-पाट वो फिर से अपने हाथ में ले रहे हैं। अब छौरा मालिक नहीं रहेगा। सामने हमको भी जवान देखे और अक्किल बुद्धि से तो पहिले ही परिचित थे। लगे हाथ हमें ही दीवान में बहाल कर लिए। कहे कि अब न रहेगा छौरा मालिक, ना रहेगा बूढा दीवान और ना ही मामला बिगड़ेगा सांझ बिहान !! समझे, इसीलिए पिछले सप्ताह भेंट नहीं हुई। लेकिन हम तो ठहरे रमता जोगी बहता पानी, दरबारी कमाने में हमरा मन नहीं लगेगा न .... ! उधर मामला मुक़दमा फिट हुआ और इधर हम अपना झोली-डंडा उठाए और चले आये आपको ये कहानी ऐसी बनी सुनाने ! बोलो हरि !!!

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही रोचक अन्दाज में लिखी गई पोस्ट!
    पढ़कर मन प्रसन्न हो गया!

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  2. माटी की महक और परिंदों की चहक सा एहसास कराती कहावतों की एक दिलचस्प कहानी . हमारा पुराना भारतीय ग्राम्य जीवन भी साकार हो उठा . आभार.

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  3. बहुत बढ़िया लगी कहानी ...और समझ गए कि कहानी ऐसे बनी

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  4. पुराने लोग ऐसे ही नहीं बोला करते हैं, वे अनुभव से मंजे हुए होते हैं तो उन्हें आज के बच्चों के काम काज समझ नहीं आते हैं. ग्राम्य अंचल में बसी कहानी बहुत अच्छी लगी.

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