भारतेन्दु युग की कविता
मनोज कुमार
आज की कविता का अभिव्यंजना कौशल पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने कहा था
भारतेंदु युग की भाषा पर कुछ नहीं लिखा , वहाँ तो गजब सम्प्रेषणीयता का आग्रह है . और यह भी कि ' सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? ' , का भी !!
भारतेन्दु युग में जहां ब्रजभाषा में साहित्य की रचना हो रही थी वहीं खड़ी बोली हिन्दी भी साहित्य की भाषा के रूप में स्थान ग्रहण कर रही थी।
1857 की क्रांति कुचल दी गई थी, और अंग्रेज़ी सत्ता की स्थापना के साथ विस्तार शुरु हो गया। सामंती भारत की की समाप्ति और औपनिवेशिक दासता का आगाज़ ... यानी शोषण ... शोषण ... और शोषण! इस शोषण के विरुद्ध राष्ट्रीय असंतोष को अपने ढंग से भारतेन्दु युग के रचनाकार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से कर रहे थे। भारतेन्दु जी की ही पंक्तियां उद्धृत करें –
अंग्रेज़ी राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलिजात इहै अति ख्वारी॥
अंग्रेज़ राज के कारण भारत का बहुत बड़ा हित हुआ है लेकिन इस राज की सबसे बड़ी खराबी यह है कि देश का धन विदेश चला जाता है। उस काल की देशभक्ति को इस द्वन्द्व के संदर्भ में ही समझा सकता है। यहां यह भी स्पष्ट है कि इसके पहले के जो मुस्लिम शासक थे, वे चाहे जितने बुरे रहे हों, कम से कम देश का धन तो देश में ही रहता था। पर अगर गहराई से विश्लेषण करें तो पाते हैं कि भारतेन्दु की पहली पंक्ति एक रणनीतिक वक्तव्य है, असली मकसद तो उनका यह बताना है कि अंग्रेज़ भारत को लूट रहे हैं और बरबाद कर रहे हैं। तभी तो वो कहते हैं अंग्रेज़ी राज बाहर से चाहे जैसा भी क्यों न दिखता हो लेकिन वह देश का पूरा रस चूसने वाला है।
भीतर-भीतर सब रस चूसै,
हंसि हंसि के तन मन धन मूसे।
जाहिर बातन में अति तेज,
क्यों सखि साजन? नहिं अंग्रेज़॥
भारतेन्दु युग आधुनिक हिन्दी साहित्य का पहला चरण है। इस कालखण्ड के साहित्य को भारतेन्दु के व्यक्तित्व और कृतित्व की देन के कारण इसका नामाकरण भारतेन्दु युग हुआ। इस युग के गद्य को लेकर तो कोई दुविधा है ही नहीं। न कथ्य को लेकर न माध्यम भाषा को लेकर – क्योंकि इसके पहले गद्य की कोई पुष्ट परम्परा नहीं थी। हां, कविता को लेकर दुविधा है। पहले के भक्तिकाल एवं रीति काल की काव्य-परंपरा काफी सम्पन्न थी। इसे छोड़कर एकदम से नये कविता-पथ पर चल पड़ना उस युग के रचनाकारों, कवियों के लिए बड़ा ही असम्भव-सा काम था। इसलिए इस युग में भी भक्ति, श्रृंगार और नीति की कविताओं की भरमार है, भले ही भाषा ब्रजभाषा ही रही।
जहां, कवि परम्परा का ही अनुकरण कर रहे थे, वहीं कविता के नाम पर चमत्कार-सृष्टि भी कर रहे थे। महाराज कुमार बाबू नर्मदेश्वर प्रसाद सिंह ने ‘शिवा शिव शतक’ तथा स्वयं भारतेन्दु परम्परागत कविता लिख रहे थे। इन कविताओं में अनुभव की सजीवता और चमत्कार थे।
एक ही गांव में बास सदा, घर पास रहौ नहिं जानती हैं।
पुनि पाचएं-सातएं आवत-जात, की आस न चित में आनती हैं।
हम कौन उपाय करैं इनको, ‘हरिचंद’ महा हठ ठानती हैं।
पिय प्यारे तिहारे निहोरे बिना, आंखियां दुखिया नहिं मानती हैं॥
लेकिन जहां इस युग में एक तरफ़ अधिकांशतः परम्परागत कविताएं ही लिखी जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ़ इस युग के कई कवियों ने परम्परा से हट कर नए विषयों को लेकर नई भाववस्तु वाली कविताएं भी प्रचुर मात्रा में लिखी। ऐसे-ऐसे विषयों पर कविताएं रची गई जिसके बारे में पूर्ववर्ती काल के कवि सोच भी नहीं सकते थे। ग़रीबी, भूख, अकाल, रोग, कलह, खुशामद, कायरता, टैक्स, देश की दुर्दशा, छुआछूत, व्यभिचार, कुप्रथा, अशिक्षा, कूपमण्डूकता, रिश्वतखोरी, सिफ़ारिश, बेकारी ...आदि विषयों पर कविताएं लिखी गईं। मतलब उस समय के जीवन से जुड़ा ऐसा कोई भी पक्ष बाक़ी न रह गया। ऐसा लगता है कवि रचनाओं को रज़मर्रा के जीवन से जोड़कर देखते थे ... रचते थे। हम कह सकते हैं कि उनका प्रयास था परलौकिक जीवन-दृष्टि को हटाकर लौकिक जीवन-दृष्टि को स्थापित करना, जिसमें वे सफल भी हुए।
अपने अतीत और वर्तमान के आलोक में कहीं न कहीं उनके मन में पीड़ा थी, क्षोभ था-...! एक तरफ़ था अतीत का गौरव, दूसरी तरफ़ थी वर्तमान की दुर्दशा। इस दुर्दशा को देख कर, विचार कर उसके कारणों को अपनी रचना में समाहित करते ये रचनाकार समाज की जड़ता, रूढिप्रियता और कुरीतियों पर प्रहार करते रहे। वे समाज सुधारना तो चाहरे थे लेकिन उनके सामने द्वन्द्व और दुविधा थे, क्योंकि बाल-विवाह, विधवा-विवाह पर मतैक्य नहीं था। कर्मकाण्ड का विरोध समाज को सहज स्वीकार्य नहीं था। जबकि अंग्रेज़ों का दमन और आर्थिक शोषण असह्य था। मध्यकालीन अराजकता के परिप्रेक्ष्य में अंग्रेज़ राज के सुख-साज इसलिए उन्हें अस्वीकार्य था कि सारा धन विदेश चला जा रहा था। भारतेन्दु ने 1874 में स्वदेशी आन्दोलन भी चलाया। ‘अंधेर नगरी’ में चूरन बेचने वाले के माध्यम से उन्होंने कहा,
चूरन अमले सब जो खावैं।
दूनी रुशवत तुरत पचावैं॥
चूरन साहब लोग जो खाता।
सारा हिन्द हजम कर जाता।
चूरन पुलिस वाले खाते।
सब कानून हजम कर जाते॥
कविता का यह अंश आज भी प्रासंगिक है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुन्द गुप्त, श्रीधर पाठक, चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमधन’. राधाचरण गोस्वामी, आदि इस युग के प्रगतिशील कवि थे।
गद्य में तो इस युग में खड़ी बोली अपना ली गई, पर कविता में ब्रजभाषा ही चलती रही। जहां एक ओर भारतेन्दु का कहना था कि ‘ब्रजभाषा में ही कविता करना उत्तम है’, वहीं दूसरी ओर बालकृष्ण भट्ट का मानना था कि, ‘खड़ी बोली में एक प्रकार का कर्कशपन है, उसके साथ कविता में सरसता लाना प्रतिभावान के लिए कठिन है तब तुकबन्दी करने वाले की कौन कहे।’
लेकिन जाने-अनजाने ही सही भारतेन्दु युग के कवि नाटकों आदि में प्रयुक्त कविताओं में खड़ी बोली का उपयोग करते रहे। साथ ही कुछ मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार, के अयोध्याप्रसाद खत्री जैसे भी थे जो खड़ी बोली पद्य का आन्दोलन चला रहे थे और उन्होंने ‘खड़ी बोली के पद्य’ भी प्रकाशित किया। बद में चलकर इसे आधुनिक हिन्दी कविता की भाषा में स्वीकृति तो मिली ही।
स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग संक्रमण का काल था। हां, इस नए-पुराने की कदम ताल में पुराना पिछड़ रहा था, नया अगे बढ रहा था। अंतर्विरोध के रहते हुए भी इस युग ने नवयुग का मार्ग प्रशस्त किया। कविता को रोज़मर्रे के यथार्थ जीवन की समस्याओं से जोड़ा गया। जागरण का काम, भी इस युग की कविताओं ने किया। मध्यकालीन से आधुनिक बोध की तरफ़ प्रगतिशील क़दम भी इसी युग में बढे। अतः हम कह सकते हैं कि इस काल का साहित्य नवजागृत श्रेणी का साहित्य है।
मनोज जी आपकी ऊर्जा देख मैं प्रेरित होता रहता हूँ... यदि मेरे एम ए के दौरान यह ब्लॉग रहा होता तो मुझे अलग से पढने की आवश्यकता नहीं होती.. सारगर्भित रूप से अपने भारतेंदु युग की कविता से परिचय कराया है.. संग्रहनीय आलेख...
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
भारतेंदु युग की कविता पर इतनी विस्तृत चर्चा करके आपने के नयी कड़ी जोड़ दी है ..समीक्षा के क्षेत्र में ...आपका आभार
कविता को रोज़मर्रे के यथार्थ जीवन की समस्याओं से जोड़ा गया। जागरण का काम, भी इस युग की कविताओं ने किया।
जवाब देंहटाएंआपका यह लेख बहुत अच्छी जानकारी दे रहा है ...आपका यह प्रयास सराहनीय है ..आभार
सारगर्भित लेख!
जवाब देंहटाएंसंग्रहनीय आलेख ।
जवाब देंहटाएंआभार ।
कितने साल पहले हिंदी साहित्य से टच छूट गया अब आपके माध्यम से सब कुछ फिर से जानने को मिल रहा है वह भी सरल और रोचक तरीके से.
जवाब देंहटाएं... saarthak charchaa ... prasanshaneey lekhan ... prasanshaneey post !!!
जवाब देंहटाएंहिंदी साहित्य अब आपके माध्यम से जानने को मिल रहा है संग्रहनीय आलेख.
जवाब देंहटाएंभारतेंदु युग की कविता पर इतनी विस्तृत चर्चा बहुत ही ज्ञानवर्द्धक लगी...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंयह आलेख तो आपने बहुत परिश्रम से तैयार किया है!
जवाब देंहटाएं--
हमारे साथ-साथ कालेज के विद्याथियों के लिए भी यह बहुत उपयोगी है!
भारतेंदु जी कि "टूट टाट घर टपकत खटियो टूट" कभीनहीं भूल पाता..
जवाब देंहटाएंअमूल्य रचना!!
जानकारीपरक तथा ज्ञानवर्धक आलेख.
जवाब देंहटाएंभारतेंदु युग आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक काल माना जाता है , बलिया के ददरी मेले में दिये गए भारतेंदु द्वारा संप्रेषित वाक्य (निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति का मूल "} हिंदी के उत्थान का स्मरण कराती है . अच्छी लगी ये परिचर्चा .
जवाब देंहटाएंमनोज जी ,
जवाब देंहटाएंआपका ये प्रयास बहुत सार्थक है
पड़कर बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली
बहुत धन्यवाद आपको