नवगीत
गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो!
गुप्त गोदावरी होकर,
बहो मुझमें
बहो भीतर बहो!
हम उजड़े तट हैं,
अपनी पहचान यही
कंधों पर शव
वक्ष पर चिता है,
पर्वत हैं वे
नदियों को फेंकना-पटकना
आता है इनको
ये पिता हैं,
झरने से झील हो
सर पटकती रहो!
गुप्त गोदावरी होकर,
बहो मुझमें
बहो भीतर बहो!
रेत-रेत होकर
घुलना, फिर बहना तुममें
सदा-सदा साथ-साथ
बहने के प्रण हम।
नित्य नए मेलों पर
पर्वों पर उत्सव पर
छोटी सी पंखुरी
छोटे से कण हम।
तुम्हें भी कुछ याद है,
याद है तो कहो
कुछ तो कहो!
गुप्त गोदावरी होकर,
बहो मुझमें
बहो भीतर बहो!
बहुत ही सुन्दर नवगीत गोदावरी के माध्यम से बहुत कुछ कह गया।
जवाब देंहटाएंतुम्हें भी कुछ याद है,
जवाब देंहटाएंयाद है तो कहो
कुछ तो कहो!
गुप्त गोदावरी होकर,
बहो मुझमें
बहो भीतर बहो!
Beautiful presentation of thoughts
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बहुत सुन्दर नवगीत!
जवाब देंहटाएंटिप्पणी बाक्स में -
जवाब देंहटाएंआप अपने सुझाव और मूल्यंकन से हमारा मार्गदर्शन करें
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कृपया सुधार कर लीजिए!
सही शब्द "मूल्यांकन" है।
इनकी जितनी भीरचनाएँ इस स्तम्भ के अंर्गत पढ़ीं, सभी ने मुग्ध किया है!! इस रचना ने भी!!
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी धन्यवाद। सुधार कर दिया गया है।
जवाब देंहटाएंदक्षिण की गंगा गोदावरी का मानवीकरण अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंकाव्य के धरातल पर कथ्यों से गुंफित और खरी उतरती हुई कविता जिसकी अनुगूँज बहुत दूर तक जायेगी।
प्रकृति के माध्यम से काव्य (नवगीत) में लक्ष्यार्थक प्रयोग में मिश्रजी का कोई जबाब नहीं।
जवाब देंहटाएंगोदावरी नदी के माध्यम से भावों की प्रस्तुति बहुत सुन्दर है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंगुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो- इसे नवगीत के रूप में प्रस्तुत करना अच्छा लगा। कवि का प्रणय निवेदन गोदावरी नदी के माध्यम से अपनी पूर्ण समग्रता में वांक्षित भाव-भूमि को स्पर्श करने में सफल सिद्ध हुआ है।नवगीत अच्छा लगा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहो मुझमें बहो भीतर बहो!....
जवाब देंहटाएंश्यामनारायण मिश्र जी के गुप्त गोदावरी को समर्पित सुंदर नवगीत के लिए उन्हें साधुवाद !