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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

प्रेमचंद साहित्यिक योगदान - 3

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                                                   मनोज कुमार

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यथार्थवाद से तात्पर्य उस दृष्टिकोण का है जिसमें कलाकार अपने व्यक्तित्व को यथासंभव तटस्थ रखते हुए वस्तु को, जैसी वह है वैसी ही देखता है और चित्रित करता है – अर्थात्‌ यतार्थवाद के लिए वस्तुगत दृष्टिकोण अनिवार्य है।


 


कलाकार जब वस्तु पर अपने भाव और कल्पना का आरोप कर देता है और उसको स्वप्नों के रंगीन आवरण में लपेटकर देखता है और चित्रित करता है, तो उसका दृष्टिकोण रोमानी हो जाता है।


कलाकार जब वस्तु पर अपने भाव और विवेक का आरोप कर देता है और उसे अपने आदर्श के अनुकूल गढ़ता है उसका दृष्टिकोण आदर्शवादी बन जाता है।


प्रेमचंद का व्यक्तित्व साधारण और व्यावहारिक था। साथ ही उनके जीवन के आदर्श भी प्रत्यक्ष और सुनिश्चित थे। अतएव उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर ही आदर्शवाद की प्रतिष्ठा की है। उनका आदर्शवाद रोमानी आदर्शवाद नहीं है, व्यावहारिक आदर्शवाद है। उन्होंने बहुत विस्तृत क्षेत्र का चित्रण किया है। निम्न और मध्यम श्रेणी के पात्रों के चित्रण में उन्हें सफलता मिली। यथार्थ और आदर्श के चित्रण के समन्वय से इस चित्रण में एक स्वाभाविकता है। उनका मानना था कि यथार्थवाद हमारी आंखें खोल देता है तो आदर्शवाद ऊंचा उठाकर किसी मनोरम स्थान पर पहुंचा देता है। किसी देवता की कामना करना मुमकिन है लेकिन उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है। यथार्थ और आदर्श के समन्वय से उन्होंने अपने पात्रों में सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा की। मानवीय दुर्बलता उनके पात्रों में मिलती है। लेकिन ऐसी दुर्बलताएं ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। अन्यथा निर्दोष चरित्र तो देवताओं में ही मिल सकता है। साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है।

पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

सेवासदन की कुलीन नायिका सुमन अभाव और कुरूतियों के दंश से तबायफ हो जाती है किन्तु देह का सौदा नहीं करती। यही था प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

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प्रेमचंद का साहित्य ग़रीब जनता का साहित्य है। उन्होंने जीवन को बहुत नज़दीक से देखा था। गरीबी, संघर्ष व त्‍याग का जीवन अपनाते हुए उन्‍होंने कई बार बड़े से बड़े प्रलोभन ठुकरा दिए। देहाती किसान के रूप में सादा जीवन व्‍यतीत करने वाले प्रेमचंद में अंहकार नाम मात्र का भी नहीं था। जीवन की सभी प्रकार की कटुता सहकर भी वे हमेशा प्रसन्‍नचित आगे बढ़ते रहे। वे गरीबी में जन्‍में, अभावों में पले बढ़े और दरिद्रता से जूझते हुए ही संसार से चले गए।

उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा रूप मिलता है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने बिना किसी वाद की ओर देखे अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। वे अपने पात्रों को ऐसा सजीव चित्र देते हैं कि पाठक की उससे सहानुभूति सहज ही प्राप्त हो जाती है। पुरुष-पात्रों के साथ-साथ उन्हें नारी-पात्र के चरित्र चित्रण में भी सफलता मिली है। सच तो यह है कि समाज के सभी वर्ग के पात्रों का चरित्र अपने-अपने अनुरूप समान स्थान पाता है।

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उनका सबसे प्रधान गुण है उनकी व्यापक सहानुभूति। उनके व्यक्तित्व का मानव पक्ष अत्यंत विकसित था। इनके उपन्यास और कहानियों में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व है, चाहे अभिजात वर्ग हो या उच्च वर्ग हो, चाहे मध्यम वर्ग और दलित वर्ग हो। सत्‌ और असत्‌, भला और बुरा दो सर्वथा भिन्न वर्ग करके पात्र निर्माण करने की अस्वाभिक प्रथा को उन्होंने तोड़ा।

डॉ. नगेन्द्र का मत है,

“इसका अर्थ यह नहीं कि उनको सत्‌-असत्‌ की चेतना नहीं थी। नहीं, यह चेतना उनकी सर्वथा निर्भ्रांत थी और इस विषय में उनका दृष्टिकोण पूर्णतया निश्चित और स्थिर था। परंतु उनके मन में घृणा नहीं थी। उनके मन में मानव के प्रति सहज आत्मीय भाव था। वे उसके पाप से अवगत थे। पाप का उन्होंने निर्मम होकर तिरस्कार किया है, परन्तु पाप को छोड़ उन्होंने कभी पापी से घृणा नहीं की।”

इस संदर्भ में राजेन्द्र यादव के भी विचार सामने रख लें,

“मूलतः उनकी समस्या तत्कालीन दृष्टि से वांछनीय-अवांछनीय, शुभ-अशुभ के चुनाव की है। परिणति वांछनीय और शुभ की ओर उन्मुख होने की है। वह समस्या और उसका हल साथ ही देते हैं।”

रूढ़ियों की छाया में उनके मानसिक विकारों और धार्मिक भावनाओं के शरणागत शोषण के विकृत व्यवहारों आदि का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। उन्होंने पूंजीवादियों और ज़मींदारों के दोषों को क्षमा नहीं किया, किंतु साथ ही उनकी तकलीफ़ों के प्रति भी वे निर्मम नहीं थे। एक ओर उन्हें होरी आदि के शोषण की चिन्ता है, तो दूसरी ओर रायसाहब के शोषण की भी। हर वर्ग अपने ऊपर वाले वर्ग से शोषण का शिकार है। यदि एक वर्ग अपने को दुखी और शोषित समझता है, तो शोषक वर्ग उससे परे नहीं है। हर वर्ग के अपने-अपने आदर्श के बहाने हैं। उनकी अलग-अलग कुण्ठाएँ हैं। प्रेमचन्द उन सबके प्रति सजग हैं। समग्र भारतीय समाज उनका पात्र है। उनके मनोवैज्ञानिक चित्रण पाठक को झकझोरते हैं।

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प्रेमचन्द पहले रचनाकार हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न चरित्रों को मनोवैज्ञानिक तरीके से चित्रित किया और उनके पात्र मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति लगने लगे। उनकी कहानियाँ मनोरंजन के उद्देश्य से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के यथार्थ को उजागर करती हुई सामने आईं। उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का अन्तर्द्वन्द्व है। अपनी प्रारम्भिक कहानियों में वे आदर्शों से नियंत्रित होने वाले रचनाकार लगते हैं। लेकिन बाद की कहानियों में उन्होंने यथार्थ का चित्रण करते हुए, हालांकि ये कहानियाँ समस्यामूलक रही हैं, आदर्श समाधान प्रस्तुत करना बन्द कर दिया। यह उनकी रचनाओं में रिक्ति नहीं बनी बल्कि ये वैचारिक मंथन के रूप में पाठकों को झकझोरने लगीं और ये रचनाएं अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती अधिक प्रभावशाली साबित हुईं। ‘पूस की रात’ और 'कफन' जैसी कहानियों में उनकी बदली हुई वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी बाद की कहानियाँ घटना प्रधान न होकर चरित्र प्रधान हैं जिनमें पात्रों की मनोवृत्तियों का वास्तविक चित्रण नितांत सहज रूप में देखने को मिलता है। उनका स्वयं कथन है -
'कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।'
इस कथन से उनकी कहानियों में आए विकास को समझा जा सकता है।

'कफन' कहानी उनके इस वैचारिक विकास का उत्कर्ष है। इसमें ग्रामीण कृषक की दुरावस्था का चित्रण है। किसानों की आर्थिक विपन्नता जमीदारों - साहूकारों के शोषण का नतीजा नहीं है बल्कि यह आर्थिक विषमता मूलक समाज की संरचना है। यह कहानी उस सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती है जो मनुष्य के जिन्दा रहने पर उसका शोषण होने देती है और मर जाने पर खोखली नैतिकता का जामा पहन उसके अंतिम संस्कार के लिए उपाय करती है, सहयोग करती है।

मुख्य पात्र जो कि निकम्मे हैं, कोई काम-धाम नहीं करते। उनकी सोच है कि जो निकम्मे नहीं है उनकी भी स्थिति कमोवेश यही है, बेहतर नहीं। वे इस फलसफे पर जीवन यापन करते हैं कि जी-तोड़ मेहनत करके मरना कहाँ की बुद्धिमानी है। यह कहानी कर्मफल के सिध्दांतों पर प्रश्न उठाती है। भौतिकतावादी जीवन के चरम पर आज मानवीय संवेदना आत्मकेन्द्रित होकर शून्य होती जा रही है। प्रेमचन्द ने इसे आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व ही चित्रित कर दिया था। यह प्रेमचन्द की सर्वाधिक त्रासदपूर्ण कहानी है जो जीवन की व्यर्थता और निस्सारता को व्यंजित करती है। एक व्यक्ति जिसका जीवन पशु से भी बदतर है उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा सच भूख है। और भूख का मनोविज्ञान उसे कितना संवेदना शून्य बना सकता है, वह इस कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त है। राजेन्द्र यादव इसे बुधिया के कफन की कहानी नहीं बल्कि मृत नैतिकबोध के कफन की कहानी मानते हैं।

प्रेमचन्द का मनोविज्ञान अन्य मनोविश्लेषणात्मक विचाराधारा के लेखकों से कदाचित भिन्न है। उनका मनोविश्लेषण समाधान मूलक नहीं है, बल्कि वे जीवन के सत्य को उद्धाटित करते हुए मानसिक परिस्थितियों का चित्रण करने में मनोवैज्ञानिक स्पर्श देते हैं। उनकी इस शैली से कहानी की मूल संवेदना प्रखर होती जाती है।

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मुंशी प्रेमचंद अपनी सरल भाषा और व्‍यावहारिक लेखन के कारण पाठकों में शुरू से ही प्रिय रहे हैं। उनकी सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलने वाली भाषा पहले नहीं देखी गई। उर्दू और हिन्दी के कृत्रिम भेद-भाव को दूर करके सरल शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया। प्रेमचंद की भाषा सरल, सजीव, और व्‍यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्‍यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्‍दों का भी प्रयोग है, प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है।

डॉ. नागेन्‍द्र के अनुसार उनके उपन्‍यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्‍दों के चुनाव एवं वाक्‍य योजना की दृष्टि से उसे सरल एवं बोलचाल की भाषा कहा जाता है। पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता, एकरूपता एवं अकाव्‍यत्‍मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए।

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प्रेमचंद कालजयी रचनाकार थे। उन्‍होंने समाज के विभिन्‍न वर्गों की विषमता को अपने साहित्य में दिखाया है साथ ही मानवीय संवेदना को भी साहित्‍य से जोड़ने की कोशिश की है। शिक्षा में हो रहे भ्रष्‍टाचार से लेकर स्‍त्री विमर्श के विषय को बड़े ही सरल ढंग से साहित्‍य के माध्‍यम से उन्होंने उठाने की चेष्‍टा की है। प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है उसे आज के बुद्धिजीवी सिर्फ प्रासंगिक मानकर अपना पल्‍ला झाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। उनके यर्थाथवाद को कोई समझने की कोशिश नहीं करता।

सेवासदन के गांधीवादी प्रेमचंद गबन में मार्क्सवादी विचारधारा में ढलते दीखते हैं लेकिन गोदान तक आते-आते वामपंथ से भी उनका मोहभंग हो चुका है। मंगलसूत्र पूरा नहीं हुआ... वरना क्या पता इसमें समाजवाद की भी पोल खुल जाती। जीवन के अंत में मृत्यु-शैय्या पर पड़े प्रेमचंद का जैनेन्द्र से यह कहना कि “अब आदर्श से काम नहीं चलेगा” शायद उनकी आशाओं और दृढ़ विश्वासों के स्खलन का सूचक है।

हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश स्‍तंभ, जो जीवन मूल्‍यों को बताता था आज हमारे बीच नहीं है पर यह तो निश्चित है कि वे देश के महान व सर्वोत्तम रत्‍न थे। उन्‍होंने जनवादी लेखनी को नया आयाम दिया। हिंदी साहित्‍य में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। जीवन को कसौटी पर कसने के लिए उन्‍होंने एक मापदंड दिया। उनके साथ खड़े होने का मतलब मुक्ति के साथ खड़ा होना है। वे लेखनी के माध्‍यम से भविष्‍य का मार्ग दर्शन भी करते थे। उनके दिखाए जीवन का मूल्‍य भुलाया जा रहा है। उनका मानना था कि साहित्य को राजनीति से आगे होना चाहिए लेकिन आज ऐसा नहीं है। प्रेमचंद का साहित्य आज भी प्रासंगिक है। उनकी कहानियों में आम आदमी की संवेदना है। प्रेमचंद ने अपने साहित्‍य के माध्‍यम से मानवीय मूल्‍यों को स्‍थापित करने का गंभीर प्रयास किया। प्रेमचंद के उपन्‍यासों में आम आदमी का चरित्र दिखाई देता है।

प्रेमचंद का साहित्‍य साम्राज्‍यवाद और उपनिवेशवाद का विरोधी था अंग्रेजी शासन की शोषणमूलक नीतियों के विरूद्ध उन्‍होंने आवाज उठाई। उन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है। तभी तो उन्हें क़लम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है।

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6 टिप्‍पणियां:

  1. khoob sundar vivaran bhaijee.......
    bahut kichu sikhvak hetu samagri...

    pranam.

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  2. manoj bhaai,
    adbhut likh rahe hain, lekin isko anyathaa mat leejiyegaa.. sachmuch ADBHUT vivaran hai.. anupam ..

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  3. मुंशी प्रेम चंद को उपन्यास सम्राट यों ही तो नहीं कहते ! आपने जो विषद व्याख्या की वह अमूल्य है

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  4. जो लेखन स्वयं जीकर लिखता है वही प्रेमचंद है, अपने पत्रों के बीच रहकर जो उन्होंने देखा और अनुभव किया वही तो प्रस्तुत किया तभी तो वे यथार्थवादी लेखक थे. जिसमें समाज में उनका हर पत्र आज भी जीवंत हो रहा है.
    आपकी प्रस्तुति बहुमूल्य है. इतनी बारीकी से फिर से प्रमचंद को सजीव करना एक कठिन कार्य है सबसे बड़ी बात ये है आज जितनी भी कलमें चल रही हैं सब इतनी गहराई से नहीं जानते हैं.

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  5. बहुत सुंदर एवं सटीक विश्‍लेषण !!

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  6. देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कलम के सिपाही ,अमर कथा शिल्पी मुंशी प्रेमचन्द का साहित्य और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है. उन पर केंद्रित इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए आभार .

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