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बुधवार, 6 अप्रैल 2011

धोनी की जीत के बहाने

धोनी की जीत के बहाने

अरुण चन्द्र रॉय

क्रिकेट का खुमार अभी उतरा नहीं है देश भर का  . १९८३ की जीत के समय मैं इतना छोटा  था कि समझ नहीं आया था कि विश्वकप जीतना क्या होता है. यह तब समझ आया जब अपना देश १९८७ के विश्वकप में इंग्लैंड के हाथों हार गया था. ग्राहम गूच के मनिंदर सिंह की गेंदों पर वे स्वीप शाट्स कल तक जेहन में तैर रहे थे. अब धोनी का बैक फुट  पर जाकर गेंद को अंतिम क्षणों तक देख कर संयम से लगाये गए शाट्स दिमाग पर छाये हुए हैं.

धोनी के बारे में इतना कुछ कहा जा रहा है कि हम जैसों के लिए कुछ भी कहना कोई खास मायने नहीं रखता लेकिन बात यह है कि आज धोनी जहाँ हैं वहां से कहना और जहाँ से धोनी आयें हैं वहां से देखने और कहने में बहुत फर्क है. बेशक किसी को कोई फर्क पड़े या ना पड़े.

धनबाद वही है झारखण्ड के लिए जो मुंबई है भारत के लिए. धनबाद में मैं खूब क्रिकेट खेला हूँ. इसी कारण दसवी ख़राब हुई . इसी कारण बारहवी ख़राब हुई . वहां एक क्रिकेट क्लब है - स्टार. इस क्लब ने बिहार को कई रणजी ट्राफी के प्लयेर दिए. इसी क्लब का एक खिलाडी हुआ करता था चन्द्र मोहन झा. बिहार के क्रिकेट सर्किट में उसे सी एम के नाम से जाना जाता था. छोटे शहर में क्रिकेट उसी फटाफट फॉर्मेट में खेला जाता है जिसे अब दुनिया अपना रही है . वहां २५ ओवर के मैच होते थे. सी एम को मैंने कई २५ ओवर के मैचों में सेंचुरी बनाते देखा है. बिल्कुल आज के धोनी की तरह खेलता था वह. लेकिन अफ़सोस कि वह हेमन ट्राफी से आगे नहीं पहुँच सका. हां, जब धोनी फाइनल में खेल रहे थे तो मुझे सी एम की सबसे अधिक याद आ रही थी. कारण...

धनबाद या कहिये झारखण्ड में क्रिकेट का कोई खास ढांचा नहीं है.. सो वह किसी टांड (खाली ऊँचा पठारी मैदान ) पर पिट्च बना लिया जाता है वहीँ शुरू हो जाता है क्रिकेट. उस पिट्च का चरित्र ठीक वैसा ही होता है जैसा फाइनल में वानखेड़े का था. पिट्च स्लो खेलती है.. गेंद डालने के बाद रुक कर आती है. सी एम को ऐसे पिच पर खेलना बहुत रास आता था और नए तरह के शाट्स ईजाद किये थे उसने. बिल्कुल धोनी  के हेलीकाप्टर शाट या पैदल शाट की तरह जो वे मुरलीधरन की गेंदों पर खेलने की कोशिश कर रहे थे.  वह या तो बाल को आगे बढ़ कर हाफ वाली बना लेता था या फिर अंतिम समय तक देख कर बैक फुट  पर जाकर मिड ऑफ और कवर में खेलता था. धोनी कुछ ऐसे ही खेल रहे थे. यानी जो बैटिंग धोनी कर  रहे थे उसके पीछे उनकी बगैर ढांचे वाले पिचों पर कहलाने  वाली पृष्ठभूमि काम कर रही थी.

समय के साथ क्रिकेट और क्रिकेट के चयन प्रक्रिया में काफी बदलाव हुए हैं. यही कारण है कि आज धोनी राष्ट्रीय मानक बन के उभरे हैं अन्यथा कई अन्य प्रतिभाओं की तरह वे भी कहीं स्टेशनरी शाप चला रहे होते. यह फर्क सभी समझते ही हैं. धनबाद में एक मात्र  क्रिकेट स्टेडियम है डिगवाडिह.. इसे कभी झारखण्ड का एडेन कहा जाता था. १८००० दर्शक क्षमता वाले स्टेडियम में सुनील गावस्कर, कपिलदेव और वेगसरकर प्रदर्शनी मैच खेलने आये हैं. धनबाद का पेस सनसनी हम लोग राजू पाठक को कहते थे. हमें राजू की बाल कभी नज़र नहीं आयी. न जब बल्लेबाज़ी करते थे तब ना ही जब दर्शक हुआ करते थे. राजू पाठक ने एक प्रदर्शनी मैच में पहली बाल पर सुनील गावस्कर को आउट किया था. मैदान छोड़ते हुए गावस्कर जी ने उसका पीठ ठोकते हुए कहा था तुम मुंबई में होते तो नेशनल टीम में खेलते. लेकिन आज झरिया में राजू पाठक की एक स्टेशनरी की दुकान  है.

धोनी किसी क्रिकेट अकादमी से नहीं उपजे हैं न  ही उनके शाट्स. हमारे देश भर के छोटे छोटे शहरों में हजारों धोनी बिखरे पड़े  हैं जो अपने शाट्स खुद बनाते हैं जरुरत के हिसाब से , परिस्थितिजन्य. समतल विकेट.. ऊबड़ - खाबड़ सडको पर पिच बना के खेलने वाले बल्लेबाज ही टेस्ट मैचों के पांचवे दिन बढ़िया खेल सकते हैं धोनी की तरह. देश को, बी सी सी आई को इसे समझने की जरुरत है.

आज जब धोनी महानायक हैं तो लग रहा है कि अपना ही कोई सी एम , राजू पाठक ही खेल रहा है.

22 टिप्‍पणियां:

  1. मन उदास हो गया राजू और सी एम के बारे में सोचकर!

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  3. धोनी किसी क्रिकेट अकादमी से नहीं उपजे हैं न ही उनके शाट्स. हमारे देश भर के छोटे छोटे शहरों में हजारों धोनी बिखरे पड़े हैं

    आपकी बात सटीक है .... सी एम के बारे में सोचकर पता चला की इस व्यवस्था में क्या हो रहा है ... सी एम के बहाने आपने पूरी तस्वीर पेश कर दी आपका आभार

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  4. अरुण भाई, आपकी बात से सौ फीसदी सहमत हूँ... 1987 का विश्व तो बहुत ही थोडा सा याद है, लेकिन उसके बाद के हर विश्वकप में जीत की बंधती और बिगडती उम्मीदें सारी की सारी याद हैं मुझे... जब धोनी ने विजयी शॉट लगाया तो ख़ुशी के इज़हार के साथ-साथ आँखों में नमी आ गई थी... मेरा परिवार भी उस समय नहीं समझ पाया था उन आंसुओं का राज़... और उसके बाद जो दिवाली मनाई, वोह उत्साह शायद ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाउँगा...

    अजहर की सेना का पाकिस्तान को हरा देने के बाद फिर श्रीलंका से हार जाने का दुःख शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है. आस्ट्रेलिया के साथ खेले गए फ़ाइनल मैच के समय मैं दक्षिण कोरिया में था और भारी बर्फ़बारी की बीच रात को 12 बजे तक घर से दूर एक कैफे में बैठा याहू चैट रूम के द्वारा मैच का हाल लोगो से मालूम कर रहा था, जब टीम हारी तो बहुत भारी निराशा के साथ 2 किलोमीटर बर्फीली हंवाओं के बीच जंगल में अकेले घर तक पहुंचना कभी नहीं भूल सकता हूँ... लेकिन उन सभी ज़ख्मों को धोनी की टीम ने भर दिया है... कितना खुश हूँ बयान नहीं कर सकता हूँ...

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  5. किस्मत का भी कुछ दखल तो होता ही है....धोनी का नाम पहली बार सहारा पर आने वाले एक "सिली पॉइंट' प्रोग्राम में सुना था, जिसमे कीर्ति आज़ाद , अशोक मल्होत्रा बार-बार धोनी का नाम लेते कि "दो साल से धोनी विंग में इंतज़ार कर रहे हैं और सौरभ गांगुली को पार्थिव पटेल पर ही भरोसा है. " उसके बाद भारतीय टीम में एक विकेटकीपर -बल्लेबाज की जो कमी पूरी हुई वह तो इतिहास ही बन गया है.
    ऐसे सी.एम. और राजू तो पूरे देश में बिखरे पड़े हैं. ज़हीर खान और अगरकर के साथ रणजी खेलनेवाला पड़ोस का एक लड़का तीन हज़ार की तनख्वाह पर खट रहा है क्यूंकि क्रिकेट के चक्कर में पढ़ाई पूरी की नहीं....सबसे ज्यादा अफ़सोस इसी बात का होता है...समयाभाव के कारण खेल छोड़कर वे कोई हुनर सीख नहीं पाते.

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  6. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (7-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  7. किस्मत का खेल इसी को कहते है धोनी मूल रूप से उत्तराखंड से है .

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  8. जीवन में ऐसा ही होता है। सबको मौका नहीं मिलता। जिन्‍हें मिलता है उसमें कितने उसे भुना पाते हैं। धोनी को मिला तो उन्‍होंने उसे भुना लिया।
    *

    धोनी तो पहाड़ से उतरकर मैदान में आए और अब शिखर पर जा बैठे हैं। वे खांटी देशी क्रिकेटर हैं। इसलिए उनके शाट्स भी ऐसे ही हैं।

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  9. बहुत सार्थक बात समाहित है आपके लेख में ...

    सी एम और राजू जैसे बहुत से योग्य खिलाडी अवसर न मिल पाने के कारण दबे रह जाते हैं |

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  10. धोनी किसी क्रिकेट अकादमी से नहीं उपजे हैं न ही उनके शाट्स. हमारे देश भर के छोटे छोटे शहरों में हजारों धोनी बिखरे पड़े हैं जो अपने शाट्स खुद बनाते हैं जरुरत के हिसाब से , परिस्थितिजन्य. समतल विकेट.. ऊबड़ - खाबड़ सडको पर पिच बना के खेलने वाले बल्लेबाज ही टेस्ट मैचों के पांचवे दिन बढ़िया खेल सकते हैं धोनी की तरह. देश को, बी सी सी आई को इसे समझने की जरुरत है......


    देश में विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी प्रतिभाएं बिखरी पड़ी हैं जिन्हें अवसर नहीं मिलता. यदि मिलता भी है तो वह राजनीति की भेंट चढ़ जाता है . धोनी जैसे खिलाडी भाग्यशाली हैं जिन्हें अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का मौका मिला और उन्होंने भी भारतीय क्रिकेट टीम को विश्वविजेता के रूप में स्थापित करके देश का गौरव बढाया.

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  11. हमने तो सबको बधाई देने तक ही सीमित रखा है, सो वह आप भी लीजिए, ढेरों-ढेर बधाई.

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  12. सी० एम और राजू जैसे खिलाड़ी न जाने कितने हैं ...पर अवसर सबको नहीं मिल पाता ...शायद इसी को भाग्य कहते हैं ...अच्छा लेख

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  13. अच्छा आलेख....जाने कितने धोनी है और फिर सबकी अपनी अपनी तकदीरें...

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  14. हमारे देश भर के छोटे छोटे शहरों में हजारों धोनी बिखरे पड़े .
    धोनी ही नहीं और भी बहुत टेलेंट हैं भारत में बस कभी थोड़ी किस्मत से रह जाता है तो कोई हमारे देश की व्यवस्था के चलते.
    सुन्दर आलेख.

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  15. बंधु!
    धोनी के बहाने कई यादें आपने ताज़ा करवा दी।
    १. 1983 का ज़िम्बावे वाला मैच, जब घर के सारे सदस्य रेडिओ ऑफ करके सोने चले गए तो मेरा देर रात तक जग कर सुनना और दूसरी सुबह सबको बताना कि क्या हुआ?
    २. फिर फाइअनल के दिन अपने हेड ऑफ द डिपार्टमेंट की बेटी की शादी में शामिल थे हम, और भारत जब जीता तो उस शादी में क्रिकेट की चर्चा ...!
    ३. कोलाकाता के ईडेन गार्डेन का सेमीफाइनल अपनी श्रीमती जी के साथ आए थे देखने। पहला हाफ तो चीखते चिल्लाते देखते रहे दूसरे हाफ की ट्र्निंग ट्रैक पर भारत की खास्ता हाल देख मैच छोड़कर भाग आए। श्रीमती जी का लौटती वक्त रास्ते भर सुनाते रहना कैसा मैच दिखाने ले आए, इससे तो बढिया थ घर में ही रहते आदि-आदि।
    ४. इस बार के फाइनल को श्रीमती जी बिस्तर पर लेट कर देखने को मज़बूर थीं, शल्यचिकित्सा के बाद ... मज़बूरी थी उनकी। भारत जब जीता तो रातभर जागी, न सिर्फ़ वो, हम सब भी ... कारण जीत की खुशी ही थी, पर दूसरी तरह से। धोनी के अंतिम छक्के वाले शॉट पर ऐसा कूदी को ऑपरेटेड हिस्से पर दर्द बढ गया और फिर खुशी के दर्द को रात भर हंस-हंस कर झेलती रहीं।

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  16. बिहार में लालू जैसों का कब्जा क्रिकेट अकादमियों से हटे,तो धोनियों को मौक़ा मिले धुनने का!

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  17. 120 करोड़ लोगों में प्रतिभाशाली लोग न हों ऐसा हो ही नहीं सकता । बस सामाजिक विषमता और अभावों की वजह से हजारों प्रतिभाएं दबी रह जाती हैं । बहुत अच्छा लेख ।

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  18. अपने कॉलेज के दिनों तक क्रिकेट जिस दीवानगी से देखा करती थी,की क्या लड़के भी ऐसे दीवाने होंगे...पर अब मन खट्टा है इसकी तरफ से....क्रिकेट में बाज़ार है या बाज़ार में क्रिकेट कहना मुश्किल है....आलेख के उतरार्ध में आपने जो बात कही,वह तो है ही...उसके साथ साथ क्रिकेट के सामने any खेल तथा खिलाड़ियों की उपेक्षा मुझे बुरी तरह कचोट जाती है...
    बाज़ार,मिडिया और धनाढ्यों ने मिलकर क्रिकेट को क्या एक खेल भर रहने दिया है ???
    मेरी अंतरात्मा गवाही नहीं देती किसी भी भांति इसका समर्थक बनाने की...

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  19. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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