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गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी, ऐतिहासिक और भावप्रधान उपन्यास

पिछले पोस्ट में हमने भारतेन्दु युग की चर्चा आरंभ की थी जिसमें हमने सामाजिक उपन्यास की चर्चा की थी। अब आगे बढते हैं।

तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास : हिन्दी उपन्यास युग-जीवन के चित्रण की जिस प्रवृत्ति को लेकर शुरु हुआ था, बाद के लेखकों ने उस परम्परा का अनुगमन नहीं किया। जिसके कारण यथार्थ परक समाज-चित्रण के लिए हिन्दी उपन्यास को प्रेमचंद तक इंतज़ार करना पड़ा। बाबू देवकी नन्दन खत्री के ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास के प्रकाश में आते ही चमत्कारपूर्ण घटना-प्रधान उपन्यासों की ऐसी धूम मची कि कुछ समय के लिए सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाली प्रवृत्ति की गति मन्द पड़ गयी।

देवकीनन्दन खत्री पर उर्दू की दास्तान-परम्परा का प्रभाव है। उन्होंने ‘तिलस्मे होशरूबा’ से लेकर ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता संतति’, ‘भूतनाथ’, ‘नरेन्द्र-मोहिनी’, ‘वीरेन्द्र वीर’, ‘कुसुम कुमारी’ जैसे रहस्य-रोमांच से भरे उपन्यासों की रचना की।

खत्री जी के उपन्यासों का संसार तिलस्मी और ऐयारी से भरपूर उर्दू दास्तानों और प्राचीन भारतीय राजकुमार-राजकुमारियों की प्रेम-कथाओं से निर्मित ऐसा संसार है जिसमें सब कुछ अतार्किक, जादुई और चमत्कारपूर्ण है। ऐयार अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है तीव्रगामी या चपल व्यक्ति। देवकीनन्दन खत्री के अनुसार, ‘ऐयार उसे कहते हैं जो हर एक फन जानता हो। शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य काम है।’ खत्री जी के उपन्यासों में इन्हीं ऐयारों की करामात का रहस्य-रोमांच भरा ऐसा आख्यान है जिसको पढने वाला व्यक्ति आत्म-विस्मृति की हद पर पहुंच कर इतने मनोरंजनपूर्ण संसार में लीन हो जाता है कि वहां से निकलना उसे प्रीतिकर नहीं लगता। माताप्रसाद गुप्त के अनुसार अतिप्राकृत भावना के आधार पर लिखे हए इन उपन्यासों की लोकप्रियता के लिए मध्ययुगीन विकृत रुचि ही उत्तरदायी है। खत्री जी के उपन्यास के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है

“यद्यपि इन उपन्यासों का तथ्य केवल घटना वैचित्र्य नहीं है, रस-संचार, भाव-विभूति तथा चरित्र-चित्रण भी नहीं है। ये वास्तव में घटना-प्रधान कथानक या किस्से हैं, जिनमें जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं है। यही कारण है कि ये उपन्यास साहित्यिक कोटि में नहीं आते।”

हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकी नन्दन का स्मरण इस बात के लिए सदैव बना रहेगा कि जितने पाठक इन्होंने उत्पन्न किए उतने किसी ग्रन्थकार ने नहीं किया। चन्द्रकान्ता पढने के लिए ही न जाने कितने लोगों ने हिन्दी सीखी।

देवकी नन्दन खत्री के तिलस्मी रास्ते पर चलकर हरेकृष्ण जौहर ने ‘कुसुमलता’, ‘भयानक भ्रम’, ‘नारी पिशाच’, ‘मयंक मोहिनी या माया महल’, ‘भयानक खून’ आदि ऐयारी उपन्यासों की रचना की।

किशोरी लाल गोस्वामी ने भी ‘शीशमहल’ नामक उपन्यास लिखा। इन लेखकों को खत्री जैसी लोकप्रियता नहीं मिली।

3. जासूसी उपन्यास :

गोपाल राम गहमरी ने जासूसी उपन्यासों का सूत्रपात किया। इनके उपन्यासों के कथानक भयंकर हत्याओं, डाकों एवं रहस्यमय षडयंत्रों से ओत-प्रोत हैं। जासूसी उपन्यास पूरी तरह से यूरोप, खासकर इंग्लैण्ड की देन है। 19 वीं सदी में सर आर्थर कानन डायल के उपन्यास काफ़ी लोकप्रिय हुए थे। उनके प्रभाव के कारण बंगला में और बाद में हिन्दी में जासूसी उपन्यास लिखे गए। गोपाल राम गहमरी ने 1900 में ‘जासूस’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी में इनके जासूसी उपन्यास प्रकाशित होते रहे। ऐसे उपन्यासों की संख्या लगभग 200 है। ‘अद्भुत लाश’, ‘गुप्तचर’, ‘बेकसूर को फांसी’, ‘ख़ूनी कौन’, ‘बेगुनाह का ख़ून’, ‘जासूस की चोरी’, ‘अद्भुत ख़ून’, ‘डाके पर डाका’, ‘जादुगरनी मनोला’, ‘ख़ूनी का भेद’, ‘ख़ूनी की खोज’, ‘क़िले में ख़ून’ आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में चोरी, डकैती, हत्या आदि से संबंधित कोई भयंकर कांड हो जाता है और जासूस उसके सुराग को पाने में लग जाता है। फिर तो कथानक एक रहस्य से दूसरे रहस्य में उलझता हुआ तरह-तरह की घटनाओं में तब तक फंसता-निकलता रहता है जब तक जासूस अपने धैर्य, साहस, बल, बुद्धि और कौशल से रहस्य का पर्दाफ़ाश नहीं कर देता।

जासूसी उपन्यास की घटनाएं जीवन की यथार्थ स्थिति के नज़दीक होती हैं। कल्पना से उनमें रहस्य का समावेश किया जाता है। इसके कारण कथानक जटिल और पेचीदा हो जाता है। इस तरह से इनमें मनोरंजन और कुतूहल का समावेश रहता है। साथ ही सत्य का उद्घाटन, नैतिकता का स्थापन और आदर्शवादी दृष्टि का पोषण भी इनका उद्देश्य होता है।

गहमरी के अलावा रामलाल वर्मा (चालाक चोर), किशोरी लाल गोस्वामी (ज़िन्दे की लाश), जयराम दास गुप्त (लंगड़ा ख़ूनी) ने भी जासूसी उपन्यासों की रचना की। किन्तु उन्हें गहमरी के समान ख्याति नहीं मिली।

४. ऐतिहासिक उपन्यास :

किशोरीलाल गोस्वामी ने ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना में विशेष रुचि दिखाई। ‘तारा वा क्षात्रकुल कमलिनी’, ‘कनक कुसुम वा मस्तानी’, ‘सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल’, ‘लखनऊ की क़ब्र या शाही महलसरा’, ‘सोना सुगन्ध वा पन्ना बाई’, आदि इनके प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास हैं।

इसके अलावा गंगा प्रसाद (नूरजहां, वीर पत्नी, कुमार सिंह सेनापति, हम्मीर), जयरामदास गुप्त (काश्मीर पतन, रंग में भंग, मायारानी, नवाबी परिस्तान व वाज़िद अली शाह, मल्का चांद बीवी), मथुरा प्रसाद शर्मा (नूरजहां बेगम), ब्रजनन्दन सहाय (लाल चीन) आदि ने भी ऐतिहासिक उपन्यास लिखे।

इन उपन्यासों में हालाकि ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं का चित्रण हुआ है, फिर भी इन्हें सही मायनों में ऐतिहासिक उपन्यास नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक तो इनमें ऐतिहासिक वातावरण का अभाव है और साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं और उस समय की रीति-नीति, आचार-विचार, वेश-भूषा आदि के वर्णन में काफ़ी दोष भरा हुआ है। सच कहा जाए तो इन लेखकों की प्रवृत्ति इतिहास लिखना कम प्रेम प्रसंगों, विलास लीलाओं, रहस्य रोमांस और कुतूहल पूर्ण घटनाओं को बढा चढ़ा कर दिखाना ज़्यादा रहा है। ऐसा लगता है कि इन्होंने ऐतिहासिक छान-बीन कम की, कल्पना से अधिक काम लिया। इन्हें ऐतिहासिक रोमांस कथा कहना ज़्यादा सही होगा।

५. भावप्रधान उपन्यास :

ऐसे उपन्यासों में न घटना की प्रधानता है न चरित्र की। इनमें भावतत्व की प्रधानता है। ठकुर जगमोहन सिंह का ‘श्यामा-स्वप्न’, ब्रजनन्दन सहाय के ‘सौन्दर्योपासक’, ‘राधाकान्त’, ‘राजेन्द्र मालती’, आदि उपन्यास इस कोटि के उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में कथा तत्व बहुत ही कम हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इन्हें ‘काव्यकोटि में आने वाले भावप्रधान उपन्यास’ कहा है। इन उपन्यासों में कोई गति भी नहीं है।

ज़ारी ….!

15 टिप्‍पणियां:

  1. सभी तरह के उपन्यासों के बारे में विस्तृत और अच्छी जानकारी भरा आलेख ..आभार.

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  2. तिलिस्म,जासूसी और इतिहास- सब विचार के अंग हैं। भाव इन सबसे पृथक् होता है। विचार अल्पजीवी होते हैं,भाव स्थायी।

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    1. सत्यवचन मित्र राधारमण, सत्यवचन
      जैसा कि आपने कहा कि विचार के विभिन्न अंग हैं। विचार चाहे तिलिस्म,जासूसी या इतिहास किसी रूप मे प्रस्तुत किया जाय उसकी सार्थकता तभी है, जब वो उच्च भाव प्रकट करने में समर्थ हो क्योंकि भाव ही स्थाई है, यदि ऐसा न होता तो पंचतंत्र की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती और उनको इतना सम्मानित स्थान न प्राप्त होता।
      यह कथन सर्वथा मिथ्या है की खत्री जी के उपन्यासों में सबकुछ अतार्किक, जादुई और चमत्कारपूर्ण है। वास्तव में उन्होंने (श्री देवकी नंदन खत्रीजी) ने स्वयं एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है की वो किसी अतार्किक, जादुई और चमत्कार वाली बात या भूत प्रेत पर विश्वास नहीं करते । उनके द्वारा लिखा प्रत्येक चमत्कार यांत्रिकी, वैद्युत एवं रसायन शास्त्र की सहायता से किया जा सकना संभव है, और उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं।
      मेरे विचार से तो किसी मनुष्य की न केवल चारित्रिक उन्नति के लिए बल्कि उसको अच्छी बाते, नीति तथा व्यवहार की शिक्षा दे उच्चकोटि का नागरिक बनाने के लिए सबसे रोचक प्रभावी उपाय यही है। क्योंकि इससे जीवन के प्रति उत्साह भी बना रहता है, साथ ही मनुष्य संसार के प्रति उदासीन या अकर्मण्य होने से बचा रहता है।
      दूसरी ओर प्रेमचंद जी एवं उनके समय के अन्य लेखकों(लेखकों और उनके प्रेमियों से क्षमा याचना सहित) की यथार्थ परक समाज-चित्रण वाला कथा साहित्य है जोकि यथार्थ चित्रण में इतना बढ़ाचढ़ा है कि उनका नायक लाख प्रयत्न करे, वो मुंह के बल ही गिरता है। यदि विजय प्राप्त भी करता है तो नैतिक कारणों से, नकि पुरुषार्थ के कारण। ये देख पाठक का मन अनायास ही यह सोचने लगता है कि पुरुषार्थ व्यर्थ है. परिश्रम व्यर्थ है.
      आप जानते ही हैं की प्रेमचंद जी एवं उनके समकालीन अन्य लेखकों का कथा साहित्य भारतीय पाठ्यक्रम में आदि से अन्त तक भरा पड़ा है और इसी कारण से इसे पढ़ने का सौभाग्य, जब मैं मात्र नौ वर्ष का बालक था तभी से प्राप्त हो गया था। मेरे चाचा, बुआ इत्यादि सब विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे अतः उनके पाठ्यक्रम का साहित्य भी घर में उपलब्ध था और इसी कारण हाईस्कूल (कक्षा १०) तक आते आते मैंने ये तथाकथित यथार्थ परक समाज-चित्रण वाला कथा साहित्य सारा ही पढ़ डाला था।
      मैं एक नौ वर्ष के बालक का छोटा सा अनुभव आपसब के साथ बांटना चाहूँगा । इस बालक ने प्रेमचंद की कहानी ईदगाह पढ़ी और तीन पैसे ले कर ईदगाह जाने वाले बालक कि मजबूरी से दुखी कोमलमन बालक कई दिन तक गुमसुम रहा वो बालक मै था। ये मेरा स्वयं का अनुभव है. ऐसे अनगिनत मायूस अनुभवों से भरा है मेरा बचपन। इस कथा साहित्य ने मेरी बाल सुलभ मुस्कान, हंसी, मेरा बचपन मुझसे छीन लिया। इससब से उबर परिपक्व होने में जवान होने के बाद भी मुझे बरसों लगा गए।

      पन्डित सूर्यकान्त

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    2. पंडित सुर्य कांतजी ने सटीक टिप्पणी की है । बहुत अच्छा लिखा है ।

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  3. उपन्यास विधा के मूर्धन्य लेखकों और उनकी कृतियों के बारे में ये लेखमाला बहुत ज्ञानपरक है . आभार .

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  4. उपन्यास के विषय में इतनी सशक्त जानकारी पहले नहीं थी ...अच्छी श्रृंखला

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  5. क्या याद दिलाए हैं.. बहुत दिन तक हम बाजार में लखलखा खोजते रहे.. कोई बेहोश को होश में लाने के लिए.. धन्यवाद भाई जी!!

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  6. उपन्यास विधा के परिचय की शृंखला में तलस्मी और जासूसी उपन्यासों की उपयोगी जानकारी मिली। कुछ नामों की याद भी ताज़ा हो आई।

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    1. Kya apko yaad hai Chandra kanta se bhi purana upanyas hai rakt mandir, and danav desh. Kya ap mujhe uska writer name bta sakte hai.

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  7. पन्यास के विषय में इतनी सशक्त जानकारी पहले नहीं थी ...अच्छी श्रृंखला

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  8. उपन्यास विधा के माध्यम से मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष का सजीव अनुभव कर सकते हैं।

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  9. इन उपन्यासों के अलावा इतिहासिक उपन्यास साहबे आलम, नूरजहां, गोली, वयं रक्षां, आदि भी हैं । मगर यहां इनका उल्लेख नहीं किया गया ।

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