हिंदी में लिंग विधान-व्याकरणिक परिचर्चा
-डॉ. दलसिंगार यादव
जिन भारतीय भाषाओं में एक या तीन लिंग होते हैं उन भाषा-भाषियों का मानना है कि हिंदी में लिंग व्यवस्था सबसे अधिक दुरूह है। इस संबंध में यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि हिंदी के लिंग विधान पर संस्कृत प्राकृत, अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के व्याकरणों के प्रभाव पड़े हैं। फ़ारसी की विशेषता यह है कि इसके विशेषण शब्दों में लिंग भेद नहीं है। भारत में हिंदी पर भी उसका प्रभाव पड़ा है और उसी आधार पर हिंदी ने संस्कृत की परंपरा छोड़ विशेषण शब्दों में लिंग भेद करना बंद कर दिया। पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग दोनों संज्ञाओं के साथ पुलिंग विशेषणों का प्रयोग होने लगा है, जैसे, "सुंदर लड़का", "सुंदर लड़की", "सुंदर पुरुष", "सुंदर स्त्री" आदि। हिंदी में विभिन्न स्रोतों से शब्द लेने के बावज़ूद लिंग विधान सरल रखने का प्रयास किया गया है। शब्द विकास को ध्यान में रखकर ही पुंसत्व या स्त्रीत्व का चलन प्रायः हुआ है। लिंग क्या है? लिंग शब्द व्याकरण शब्द संज्ञा तथा पुल्लिंग है इसका अर्थ होता है "चिह्न" अथवा "लक्षण"। अर्थात् वह लक्षण जिससे स्त्री और पुरुष का भेद होता है।
किशोरीदास वाजपेयी का कहना है कि हिंदी में नपुंसक लिंग का बखेड़ा हट जाने की वजह से बड़ी सरलता हो गई है और संस्कृत तत्सम ताथ तद्भव शब्दों को प्रायः संस्कृत के अनुसार ही स्त्री लिंग और पुल्लिंग में रखा गया है।
तद्भव शब्दों में विशेष व्यवस्था है। नपुंसक लिंग शब्दों को प्रायः पुल्लिंग में रखा गया है। "ईकारांत", "ऊकारांत" शब्द (शब्द का अंत जिस स्वर ध्वनि से होता है उसे ही "-आंत" कहा जाता है) हिंदी के रूप गठन में (अपने) प्रायः हैं ही नहीं। "भाँति" जैसा शब्द कहीं मिल जाएगा जिसमें लिंग भेद की बात ही नहीं है। संस्कृत शब्दों को जहाँ रूपांतरित किया गया है वहां "इ", "उ" को हटा कर प्रायः अकारांत कर दिया गया है, जैसे, "रात्रि-रात", "बाहु-बांह" आदि। अप्राणिवाचक "जलधि" आदि कुछ पुलिंग वर्गीय हैं तो "निधि" आदि कुछ स्त्रीलिंग वर्गीय। संस्कृत के नपुंसक लिंग इकारांत शब्द "दधि" आदि को पुल्लिंग वर्ग में रखा गया है। अतः प्रत्येक अचेतन पदार्थ के नाम को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग के अंतर्गत रखना पड़ता है। इस संबंध में निश्चित नियम बनाना मुश्किल है। इसके लिए व्यापक और पूरे नियम नहीं बन सकते क्योंकि इसके लिए भाषा के निश्चित व्यवहार का आधार नहीं है। तथापि हिंदी में लिंग निर्णय दो प्रकार से किया जा सकता है - शब्द के अर्थ से और उसके रूप से।
बहुधा प्राणिवाचक शब्दों का लिंग निर्धारण अर्थ के अनुसार और अप्राणिवाचक शब्दों का लिंग निर्धारण उनके रूप अनुसार निश्चित करते हैं। शेष शब्दों का लिंग निर्धारण केवल व्यवहार के अनुसार माना जाता है और इसके लिए व्याकरण से पूर्ण सहायता नहीं मिलती। साधारणतः हिंदी भाषी अभ्यास से अचेतन पदार्थों में प्रचलित लिंग विशेष के शुद्ध रूप का व्यवहार करने लगते हैं। हिंदीतर भाषियों को हिंदी में शुद्ध लिंग का प्रयोग करते समय विशेष कठिनाई इसी कारण होती है।
प्रकृति में जड़ और चेतन दो प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं। चेतन पदार्थों में स्त्री और पुरुष का भेद होता है परंतु जड़ पदार्थों में यह भेद नहीं होता है।
संस्कृत प्रणाली में लिंग को व्यक्ति कहते हैं। "व्यक्तिः स्त्रीपुंनपुंसकादिः"। पाणिनि व्याकरण में भी लिंग शब्द के लिए "व्यक्ति" शब्द आया है। परंतु किशोरीदास वाजपेयी इन दोनों शब्दों से ज़्यादा उपयुक्त "जाति" शब्द मानते हैं। उनके असार संस्कृत में तीन जाति – स्त्री, पुरुष और नपुंसक या क्लीब हैं। हिंदी में क्लीबता को स्थान नहीं मिला। यहाँ सभी नामों या संज्ञाओं को दो ही वर्ग, अर्थात्, स्त्री और पुरुष में रखा गया है। कामता प्रसाद गुरु के अनुसार शब्द के जिस रूप से वस्तु की जाति (स्त्री या पुरुष) का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं।
लिंग विधान - पूर्व इतिहास
व्याकरण की दृष्टि से कुछ भाषाओं में चार लिंग, कुछ में तीन लिंग कुछ में दो लिंग तथा कुछ में एक ही लिंग का विधान होता है। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से कुछ में, जैसे, मराठी, दक्षिण की चार भाषाओं तथा अंग्रेज़ी में तीन लिंग का विधान चलता है। पर संस्कृत में केवल क्रियेतर शब्दों में ही रहा। क्रिया में लिंग विधान नहीं था। वहां पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंगों में क्रिया का एक ही रूप रहता है, जैसे, "बालकः पठति", "बालिका पठति", "पत्रम् पतति", "बालक पतति"। संस्कृत में मानव और मानवेतर, कुछ विशाल पशुओं के अतिरिक्त लिंग विधान के नियम सुनिश्चित नहीं हैं। विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं ने लिंग विधान को प्रभावित किया है – आकार, कोमलता, उपयोगिता आदि।
आखिर, यह लिंग विभाजन कैसे हुआ? किशोरीदास बाजपेयी का विचार है कि जब भाषा बनने लगी तब लोगों ने अपने-अपने घरवालों के नाम रखे होंगे। उसके लिए लोगों ने मूल स्वरों – "अ, इ, उ" का उपयोग किया होगा। लड़के का नाम अकारांत - "राम" रखा गया होगा, लड़की का नाम आकारांत "रमा" रखा गया होगा। लड़के का नाम "भारवि" तो लड़की का नाम "अरुंधती" रखा गया होगा। इस प्रकार – "अ, इ, आ, ई" पुरुष स्त्री भेद में विभक्त हो गए होंगे। उसके बाद जड़ पदार्थों के नाम रखे गए होंगे। "राम" की तरह ही जो "पर्वत", "वृक्ष" आदि हुए पुल्लिंग वर्गीय तथा "रमा" जैसा जिनका गठन हुआ वे स्त्री वर्गीय या स्त्रीलिंग वाला कहलाए। "लता", "द्राक्षा" आदि स्त्रीलिंग शब्द ऐसे ही बने होंगे। फिर उन प्रारंभिक शब्दों की तुलना पर पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों की रचना की जा जाने लगी होगी। "भारवि" की तरह "रवि", "पवि" आदि तथा "अरुंधती की तरह "नदी" आदि शब्दों को स्त्री वर्गीय बनाया गया होगा।
कुछ ऐसे ही शब्द भी बनाए गए होंगे जिनकी आकृति और गति उन उभय विधि शब्दों से भिन्न निकली, जैसे, जलम्, वनम् आदि। इन्हें कहाँ रखा जाए? ऐसे शब्द न तो "राम" जैसे थे और न ही "रमा" जैसे। ये दोनों ही वर्गों से भिन्न थे। अतः तीसरी श्रेणी नपुंसक लिंग बना दी गई। वे तीनों श्रेणियाँ संस्कृत में आज भी विद्यमान हैं। विकास परंपरा में हिंदी ने संस्कृत के विसर्ग (:) और नपुंसक बोधक अंतिम व्यंजन को समाप्त कर दिया और उनके शेष रूप को पुल्लिंग के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार संज्ञाओं के "अकारांत" और "इकारांत" शब्द हिंदी में पुल्लिंग हैं और "आकारांत" तथा "ईकारांत" शब्द स्त्री लिंग कहलाए।
आधुनिक अनुसंधानों से सिद्ध होता है कि यह व्याकरणिक लिंग विधान भारोपीय भाषा परिवार में बाद का आविष्कार है। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले दो प्रकार का ही वर्गीकरण था – "सामान्य लिंग" (कॉमन जेंडर) और "नपुंसक लिंग" (न्युटर जेंडर)। सामान्य लिंग बाद में पुल्लिंग (मैस्कुलिन जेंडर) और स्त्रीलिंग (फ़ेमिनिन जेंडर) में विभीजित हो गया (बरो, दि संस्कृत लैंग्वेज, पृष्ट 204)। इसकी पुष्टि हित्ती भाषा संबंधी खोजों से होती है। उसमें स्त्रीलिंग का प्रायः अभाव है ( चंद्रभान रावत, हिंदी भाषा : विकास और विश्लेषण, सरस्वती प्रकाशन मंदिर, आगरा, 1969, पृष्ठ 246)।
दूसरी विकास अवस्था में स्त्रीलिंग का विकास हुआ। यहीं से व्याकरणिक लिंग विधान का भारोपीय भाषाओं में आरंभ समझना चाहिए। कुछ लोगों का विचार है कि हित्ती भाषा में लिंग का लोप हो गया था।
अन्य भाषाओं में लिंग विधान
भारोपीय परिवार की आधुनिक भाषाओं में से मराठी, गुजराती, कोकणी, अंग्रेज़ी में तीन लिंग की व्यवस्था है। भारतीय आर्य भाषाओं के अन्य रूपों में से अधिकतर में दो लिंग वाली व्यवस्था है। बंगाली, उड़िया, असमिया में लिंग विषयक व्याकरणी वर्गीकरण समाप्त हो गया है। भारत की इन पूर्वी भाषाओं में लिंग के शिथिल होने का कारण प्रायः निकटवर्ती तिब्बती और बर्मा प्रदेशों की भाषाओं का प्रभाव माना जाता है। कोल भाषाओं के प्रभाव के कारण बंगाली आदि पूर्वी भाषाओं में लिंग भेद समाप्त हो गया। मराठी, गुजराती और दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्राचीन तीन लिंगों का भेद बना रहना निकटस्थ दक्षिणी भाषाओं के प्रभाव के कारण माना जा सकता है।
हिंदी में लिंग
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" लौकिक लिंग" और "व्याकरणिक लिंग" में भेद होता है। "हाथी" और "दही" पुलिंग शब्द हैं परंतु स्त्रीलिंग के रूप प्रयुक्त होते हैं। "आत्मा" पुल्लिंग शब्द है परंतु वह स्त्रीलिंग के रूप में प्रयुक्त होता है। "देवता" स्त्रीलिंग शब्द है परंतु पुल्लिंग के रूप में प्रयुक्त होता है। यह स्थिति सभी भाषाओं में विद्यमान है।
2. हिंदी ने लिंगों की संख्या केवल दो रख कर सरलता लाने का प्रयास किया है। तीन या चार लिंगों वाली भाषाओं से इसका बोझ निश्चय ही काम है।
3. हिंदी ने उन्हीं लिंगों को स्वीकार किया है जो तत्सम शब्दों में हैं। तद्भव शब्दों का भी लिंग निर्धारण तत्सम रूपों के आधार पर ही हुआ है। विदेशी शब्दों का लिंग वही है जो मूल भाषा में है। इस प्रकार हिंदी की लिंग व्यवस्था तर्क संगत व नियमित है।
4. हिंदी के शब्द भंडार में अनेक स्रोतों से शब्द आए हैं जिन्हें हिंदी ने उदारतापूर्वक अपनाया है। उन शब्दों के साथ उनकी विशेषता विद्यमान है। अरबी, फ़ारसी के स्त्रीलिंग तथा पुल्लिंग शब्दों को मूलतः लिंगों के अनुसार ही अपनाया गया है, जैसे, शहीद (पुल्लिंग), शर्त (स्त्रीलिंग), बेग़म (स्त्रीलिंग), दावा (पुल्लिंग), महबूब (पुल्लिंग), महबूबा (स्त्रीलिंग) आदि।
5. हिंदी के जो शब्द अपने हैं उनका लिंग प्रत्ययों के अनुसार चलता है और उनमें कहीं अपवाद नहीं है, जैसे, धोबी (पुल्लिंग), धोबिन (स्त्रीलिंग), बच्चा (पुल्लिंग), बच्ची (स्त्रीलिंग), घोड़ा (पुल्लिंग), घोड़ी (स्त्रीलिंग) आदि।
6. सर्वनाम वाचक शब्दों में लिंग है ही नहीं, जैसे, मैं, हम, आप, तुम, वह, वे आदि।
7. विशेषण वाचक शब्दों में आकारांत को छोड़ शेष में लिंग नहीं है, जैसे, अच्छा (पुल्लिंग), अच्छी (स्त्रीलिंग), भला (पुल्लिंग), भली (स्त्रीलिंग) बुरा (पुल्लिंग), बुरी (स्त्रीलिंग), सुंदर लड़का/लड़की, चालाक मर्द/औरत आदि। आकारांत शब्दों में भी स्त्रीलिंग का एक ही रूप ईकारांत है। वही रूप एक वचन तथा बहु वचन दोनों के लिए है।
8. संस्कृत के तिङंत (क्रिया) रूपों से विकसित क्रियाओं में लिंग भेद नहीं है। केवल कृदंत (जब किसी धातु में कोई प्रत्यय लगाकर प्रथम मूल शब्द बनाया जाता है तो उसे प्राइमरी (कृदंत) शब्द कहते हैं) से विकसित क्रियाओं में ही लिंग भेद है और वह भी नियम सापेक्ष एवं सुगम है, जैसे, आया, गया, खाया, पिया, उठा, बैठा आदि है।
हिंदी में लिंग निर्धारण के विभिन्न आधार
क. शब्दार्थ के आधार पर लिंग निर्धारण
1. हिंदी में पुल्लिंग शब्द से ऐसी वस्तु या ऐसे के व्यक्ति का बोध होता है जिसमें विशालता, गुरुता अथवा कुछ रूक्षता का भाव रहता है। अरबी में भी नियमतः ऐसा ही होता है। बड़ी और मज़बूत चीज़ें पुल्लिंग होती हैं। छोटी और कमज़ोर चीज़ें (सिन्फ़े-नाज़ुक) स्त्रीलिंग होती हैं।
2. स्त्रीलिंग शब्द से लघुता, निर्बलता कोमलता व सुंदरता का भाव व्यक्त्त होता है।
3. शब्द का रूप आकारांत होने पर भी यदि अर्थ स्त्रीलिंग से संबद्ध है तो वह स्त्रीलिंग माना जाता है, जैसे, दारा, माता, आत्मा आदि।
4. अर्थ से भिन्न यदि शब्द ईकारांत है तो वह शब्द स्त्रीलिंग माना जाता है, जैसे, गिलहरी, तितली, मक्खी, मछली आदि।
5. कुछ शब्दों के लिंग निर्णय में जाति की प्रधानता रहती है, जैसे, दूध, दही, मठ्ठा, मक्खन, हीरा, पन्ना, पुखराज आदि। ऐसे ही ऊंट, घोड़ा, बैल, हाथी पुल्लिंग हैं।
ख. शब्द के रूप के आधार पर लिंग निर्धारण
हिंदी शब्दों के लिंग का निर्माण कुछ प्रत्ययों से भी होता है। उन प्रत्ययों के आधार पर शब्दों में लिंग निर्धारण किया जा सकता है। कुछ नियम इस प्रकार हैं –
1. जिन प्राणि वाचक संज्ञाओं से जोड़े का ज्ञान होता है उनमें पुरुष बोधक संज्ञाएं पुल्लिंग और स्त्री संज्ञाएं स्त्रीलिंग होती हैं, जैसे, नर (पुल्लिंग), नारी (स्त्रीलिंग), घोड़ा (पुल्लिंग), घोड़ी (स्त्रीलिंग), मोर (पुल्लिंग), मोरनी (स्त्रीलिंग), बैल (पुल्लिंग), गाय (स्त्रीलिंग)।
2. कई एक मनुष्येतर प्राणिवाचक संज्ञाओं से दोनों जातियों का बोध होता है परंतु वे व्यवहार के अनुसार नित्य पुल्लिंग या स्त्रीलिंग होती हैं –
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
पक्षी, चीता, उल्लू, कौआ, भेड़िया, चील, कोयल, बटेर, मैना, गिलहरी,
खटमल तितली, मक्खी
3. प्राणियों के समुदाय नाम भी व्यवहार के अनुसार पुल्लिंग या स्त्रीलिंग होते हैं –
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
समूह, झुंड, कुटुंब, संघ, दल, मंडल भीड़, फ़ौज, सभा, प्रजा, सरकार, टोली
4. हिंदी में अप्राणिवाचक शब्दों का लिंग जानना विशेष कठिन है क्योंकि यह बात अधिकांश व्यवहार के अधीन है। अर्थ और रूप दोनों ही साधनों से इन शब्दों का लिंग जानने में कठिनाई होती है, जैसे, एक ही अर्थ वाले शब्द भिन्न लिंग वाले हैं - नेत्र (पुल्लिंग), आँख (स्त्रीलिंग), मार्ग (पुल्लिंग), बाट (स्त्रीलिंग)। समान अंत वाले शब्द भिन्न लिंग वाले हैं - कोदों (पुल्लिंग), सरसों (स्त्रीलिंग), माली (पुल्लिंग), डाली (स्त्रीलिंग), कान (पुल्लिंग), जीभ (स्त्रीलिंग)। कुल मिलाकर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हिंदी में लिंग निर्धारण का कोई निश्चित नियम बनाया जा सकता है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हिंदी में लिंग निर्धारण उनकी प्रत्ययों के आधार पर, उनके स्रोतों के अनुसार पर किया जा सकता है।
ग. प्रत्ययों के आधार पर लिंग निर्धारण
भाषाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनमें पुरुष वाचक शब्दों की अधिकता रहती है। उनके स्त्रीलिंग वाचक शब्दों का निर्माण आवश्यकता अनुसार किया जाता है। अतः उनके परिवर्तन के लिए कुछ स्त्री वाचक प्रत्ययों का विधान किया गया है। ऐसा देखने में नहीं आया है कि हिंदी स्त्रीलिंगी शब्दों को पुल्लिंग बनाने के लिए कोई प्रत्यय लगाना पड़े। बल्कि पुल्लिंग शब्दों में प्रत्यय जोड़कर स्त्रीलिंग शब्दों की रचना की जाती है। अतः स्पष्ट है कि भाषाओं में पुल्लिंग बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हिंदी में बहन (स्त्रीलिंग), बहनोई (पुल्लिंग), जीजा (पुल्लिंग), जीजी (स्त्रीलिंग), फूफा (पुल्लिंग), फूफी (स्त्रीलिंग) शब्द बनते हैं। परंतु ये रिश्ते वाले शब्द हैं। समाज में पहले स्त्री वाचक रिश्ते वाले शब्द रहे होंगे। बाद में पुरुष वाचक शब्दों की ज़रूरत पड़ी होगी।
हिंदी में स्त्री वाचक प्रत्यय संस्कृत से विकसित हुए हैं। हिंदी ने संस्कृत भाषा का "-आ" स्त्रीवाचक प्रत्यय त्याग दिया। हिंदी में "आकारांत" शब्द पुल्लिंग भी होते हैं। "-आ" प्रत्यय संस्कृत से आए तत्सम शब्दों में ही विद्यमान है। हिंदी का महत्वपूर्ण प्रत्यय "-ई" है। इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत "-आनी" और "-इनी" प्रत्ययों से हिंदी में पाँच प्रत्ययों का विकास हुआ है - "-आ", "-आइन", "-आनी", "-इन" और "-नी"। इनके अतिरिक्त संस्कृत का "-ऊ" प्रत्यय संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों में मिलता है। अतः हिंदी में स्त्रीलिंग शब्दों के निर्माण के लिए कुल मिलाकर आठ प्रत्ययों का प्रयोग होता है- "-आ", "-आइन", "-आनी", "-इन", "-इनी", "-ई", "-ऊ" और "-नी"।
कुछ विद्वान "-इया" कोई भी स्त्रीवाचक प्रत्यय मानते हैं। परंतु ऐसा मानना ग़लत है क्योंकि यह लघुता बोधक और स्वार्थिक बोधक प्रत्यय है। इससे बिटिया, बुढ़िया, लुटिया, डिबिया आदि। इनका मूल शब्द स्त्रीलिंग है। इनमें "-इया" प्रत्यय का प्रयोग है। "-इया" प्रत्यय का विकास संस्कृत के "-इका" प्रत्यय से हुआ है। "-इका" स्वार्थे प्रत्यय है। यह जिस शब्द में लगता है उसका अर्थ नहीं बदलता है, जैसे, बाला- बालिका, राधा-राधिका आदि। संस्कृत में "-इका" को कहीं भी स्त्रीवाचक प्रत्यय नहीं माना गया है। संस्कृत में "-अक" स्वार्थे प्रत्यय है जिसका स्त्रीलिंग रूप "-इका" है। "क्" के लोप होने तथा "य" श्रुति के आगम होने से "-इया" रूप निष्पन्न होता है। अतः "-इया" को स्त्रीवाची प्रत्यय मानना अवैज्ञानिक होगा। स्त्रीवाची प्रत्ययों और अन्य प्रत्ययों में मौलिक अंतर यह है कि स्त्रीवाची प्रत्यय केवल लिंग परिवर्तन करता है जबकि अन्य प्रत्ययों का मुख्य कार्य शब्द के रूप में परिवर्तन लाना है। लिंग उसका (शब्द का) स्वयं का धर्म है।
-डॉ. दलसिंगार यादव
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आपका आलेख गहन शोध से परिपूर्ण होता है और आधुनिक सोच को दर्शाता है।
जवाब देंहटाएंब्लॉग ‘राजभाषा हिन्दी’ को आपने एक नया आयाम दिया है।
इस आलेख के द्वारा कई नई और महत्त्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हुईं।
आभार आपका।
ज्ञानवर्धन के लिए बहुत बढ़िया आलेख!
जवाब देंहटाएंलिंग विधान पर सार्थक लेख ....ज्ञानवर्द्धक पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत ग्यानवर्द्धक आलेख है। राजभाषा हिन्दी नई ऊचाइयाँ छू रहा है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंयादव जी बहुत उपयोगी आलेख है। फुरसत में पढ़ने के लिए बुकमार्क कर लिया है।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक उपयोगी व संग्रहणीय आलेख...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार इस सुन्दर पोस्ट के लिए...
तितली , मक्खी इनमे भी नर और मादा दोनों का कोई भेद लिंग निर्धारण के लिए नहीं होता उपयोगी जानकारी किन्तु जटिल भी है निरंतरता की आवश्यकता होगी
जवाब देंहटाएंखंकरियाल जी!
जवाब देंहटाएंस्त्रीलिंग शब्द से लघुता, निर्बलता कोमलता व सुंदरता का भाव व्यक्त्त होता है। तितली सुंदरता और रंगों का विविधता का अर्थ देने वाली है। अतः स्त्रीलिंग है। मक्खियों की अनेक प्रजातियाँ हैं और घरेलू जीव मानी जाती हैं। लघु हैं अतः स्त्रीलिंग हैं। मच्छर भी लघु है परंतु कष्टकारक होता है। अतः पुल्लिंग के रूप में प्रयुक्त होता है। यह सब नियम सापेक्ष है। लेख को विश्लेषणात्मक ढंग से पढ़ने पर नियम स्पष्ट हो जाएंगे।
इस ब्लॉग पर प्रथम बार आना हुआ.आपकी शोधपूर्ण पोस्ट से मेरा अति सुन्दर ज्ञानवर्धन हुआ.बार बार पढ़े जाने योग्य है यह पोस्ट.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आईयेगा.आपका हार्दिक स्वागत है.
upayogi janakari, kuchh lekh sahej kar taiyar kiye hain lekin ye soch kar unaki upyogita blog par koi samajhega nahin de saki. bhavishya men hindi ke liye deti hoon.
जवाब देंहटाएंलिंग विधान पर बहुत ही उपयोगी एवं शोधपरक लेख ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय यादव जी ,
आपका ब्लाग हिंदी की कार्यशाला है | इस पर आने का मतलब कुछ न कुछ पाकर ही वापस जाना है |
आभार,
जवाब देंहटाएंSuresh
नमस्कार, आपका यह लेख बहुत ही लाभकारी है। परन्तु मैं एक प्रश्न का उत्तर जानना चाहती हूँ कि हिन्दी में कुछ शब्दों के लिंग क्यों नहीं बदलते हैं। आशा करती हूँ कि आप मेरे प्रश्न का उत्तर अवश्य देगें। आपकी आभारी सावित्री
जवाब देंहटाएंdahi kis ling ka udaharan hai
जवाब देंहटाएंनपुंसक लिंग के 50 संस्कृत उदाहरण प्रदान करे
जवाब देंहटाएंGyan vardhak jankari ke liye dhanyawad Yadav sir
जवाब देंहटाएंThank You Sir
जवाब देंहटाएंYou are so good writer.
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Thank You
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