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मंगलवार, 17 मई 2011

ऐतिहासिक उपन्यास

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हिन्दी उपन्यासों के विकास के दौर में इतिहास संबंधी एक नए दृष्टिकोण का उदय हुआ। इस कोटि के उपन्यासों में भारतीय इतिहास के उन अध्यायों और घटनाओं को चित्रित किया गया है, जिनसे वर्तमान को नयी दिशा और प्रेरणा मिलती है।

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वृन्दावन लाल वर्मा (1889-1969) ने हालाकि सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं, लेकिन उनका नाम ऐतिहासिक उपन्यासों लेखन में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके ‘संगम’ (1928), ‘लगन’ (1929), ‘प्रत्यागत’ (1929), और ‘कुंडलीचक्र’ (1932) सामाजिक उपन्यास और ‘गढ़ कुंडार’ ((1929), ‘विराटा की पद्मिनी’ (1936), ‘झांसी की रानी’ (1937), जैसे उपन्यास स्वतंत्रता के पहले और ‘कचनार’, ‘मृगनयनी’, ‘अहिल्याबाई’, ‘भुवन विक्रम’, ‘माधव जी सिंधिया’. ‘रामगढ़ की रानी’, ‘महारानी दुर्गावती’ आदि उपन्यास स्वतंत्रता के बाद लिखे गए है।

वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यासों में इतिहास के तथ्यों की रक्षा की है और ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का प्रसार किया है। उनमें इतिहास और कल्पना का समन्वय दिखायी पड़ता है। इन उपन्यासों में लेखक का अभीष्ट विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में जीवन का आदर्शात्मक यथार्थ निरूपण भी है।

‘झांसी की रानी’ तथ्याश्रयी और विवरणात्मक उपन्यास है जबकि ‘मृगनयनी’ मे तत्कालीन परिवेश को उसकी समग्रता के साथ आकलन किया गया है। उपन्यासकार ने ग्वालियर के महाराज मानसिंह और गांव की मृगनयनी के प्रेम के ताने बाने में उस समय के समय के सांस्कृतिक वातावरण को उसके विभिन्न आयामों में चित्रित करके उस कालखंड को जीवंत बना दिया है। तत्कालीन धर्म, राजनीति, चित्रकला, संगीतकला और वास्तुकला को उनके ब्यौरे ने सजीवता प्रदान किया है।

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हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ एक अभिनव प्रयोग है। ऐतिहासिक जीवनवृत्त से जुड़ी कुछ घटनाओं के उपयोग के बावज़ूद यह न तो आत्मकथा है, न जीवनी। प्रयोगशीलता इसकी प्रमुख विशेषता है। भरत के सांस्कृतिक यथार्थ को चित्रित करने वाला यह अनूठा ऐतिहासिक उपन्यास है। इसके अलावा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘चारुचन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ सातवें और आठवें दशक में प्रकाशित हुए।

द्विवेदी जी के उपन्यास इतिहास के तथ्यों पर आधारित नहीं है, उनमें कल्पना के आधार पर ऐतिहासिक वातावरण की सृष्टि की गई है। वे किसी कालखंड को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ उसे आज की ज्वलंत समस्याओं के साथ भी जोड़ते चलते हैं।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में मध्यकालीन जड़ता पर प्रहार किया गया है। अलंकृत शैली में लिखे जाने के बावज़ूद भी यह गद्यात्मक है, काव्यत्मकता ही इसकी भाषा और वस्तु दोनों है।

‘चारुचन्द्रलेख’ अनाकर्षक है और इसका विन्यास बिखरा-बिखरा लगता है। इसमें द्विवेदी जी ने कुतूहल, विस्मय, रोमांस और रहस्य की सृष्टि की है।

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यशपाल जी का ‘दिव्या’ एक काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास है। उन्होंने ने इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या अनेक प्रकार के संघर्ष झेलती है। यह एक रोमांस विरोधी उपन्यास है। यशपाल जी की दिव्या भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा से इस मामले में अलग है कि जहां चित्रलेखा को परिस्थितियों के कारण जीवन में कोई राह नहीं सूझती, वही दिव्या में राह की खोज है। ‘अमिता’ यशपाल जी का दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास है। किन्तु इसमें वह ऊंचाई नहीं है जो ‘दिव्या’ में है।

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राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) ने शैतान की आंख, 1923, विस्मृति के गर्भ में, 1923, सोने की ढ़ाल, 1923, बाइसवीं सदी, सिंह सेनापति, जीने के लिए, जय यौधेय, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदस, आदि उपन्यास लिखे जिनमें ‘सिंह सेनापति’ और ‘जय यौधेय’ मार्क्सवादी दृष्टि से लिखे गए ऐतिहासिक उपन्यास हैं, जिनमें लिच्छवी गण और यौधेय गण के संघर्ष चित्रित हैं।

महापंडित की उपाधि से विख्यात, अविश्रांत यात्री, तत्वान्वेषी, इतिहासविद्‌ और युगपरिवर्तनकामी साहित्यकार के रूप में राहुल सांस्कृत्यायन जी को जाना जाता है। हिंदी की सभी विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले राहुल जी ने ‘चरैवेति, चरैवेति’ का सत्य अपने जीवन में साकार किया।

जीवन पर्यंत ज्ञान पिपासु रहे राहुल सांस्कृत्यायन खुले दिमाग के मार्क्सवादी थे। उन्होंने समाजवाद को पुस्तकों से ही नहीं जीवन से भी सीखा। राहुल जी मार्क्सवादी चेतना से अनुप्राणित होकर द्वान्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इतिहास का विश्लेषण करने वाले उपन्यासकार हैं।

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रांगेय राघव ने भी ‘मुर्दों का टिला’ मार्क्सवादी दृष्टि से लिखा है और इसमें मोहनजोदाड़ो के गणतंत्र का चित्रण किया गया है।

चतुरसेन शास्त्री

चतुरसेन शास्त्री ने अपने उपन्यासों ‘वैशाली की नगरवधु’, ‘सोमनाथ’ और ‘वयं रक्षामः’ में भारतीय संस्कृति का संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत किया है। ‘वैशाली की नगरवधू’  में लिच्छवी गणतंत्र की चर्चा मिलती है। इस उपन्यास में आधुनिक नगर जीवन के सहारे तत्कालीन इतिहास की प्रमाणिकता को संदिग्ध बना दिया गया है।

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यह काल हिन्दी उपन्यास का स्थापना काल था। एक ओर इस काल में जहां प्रेमचंद द्वारा हिन्दी उपन्यास को साहित्य का दर्ज़ा दिलाया गया, वहीं दूसरी ओर जैनेन्द्र ने उसे आधुनिक बनाया। प्रसाद, कौशिक, उग्र, भगवतीचरण वर्मा, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, निराला आदि ने अपने-अपने ढ़ंग से उसे समृद्धि प्रदान कर बाद के दिनों में आने वाले उपन्यासकारों का मार्गदर्शन किया।

11 टिप्‍पणियां:

  1. ऐतिहासिक उपन्यासों की रोचक जानकारी ...

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  2. ऐतिहासिक उपन्यासों के विषय में दी गयी जानकारी अमूल्य है क्योंकि हम सभी क्षेत्र से जुड़े होते हैं सिर्फ साहित्य से नहीं और इसके बारे में इस तरह कि जानकारी ऐसे ही अमूल्य पोस्ट से प्राप्त हुई. इसके लिए आपको बहुत बहुतधन्यवाद.

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  3. ऐतिहासिक उपन्यासों के विषय में विस्तृत जानकारी .... इन पुस्तकों के बारे में जानकार लगा कि अभी तो हमने कुछ पढ़ा ही नहीं है .बहुत कुछ है जानने योग्य ... आपके इस श्रम के लिए साधुवाद

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  4. अरे आज तो यहाँ सब मेरे पसंदीदा लेखक हैं एक साथ .पर उनके ये उपन्यास शायद नहीं पढ़े मैंने.बहुत बहुत आभार इस बहमूल्य पोस्ट का.

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  5. इस श्रृंखला की हर पोस्ट संग्रहणीय है....एक कसक सी भी जाग जाती है....एक ज़माना हो गया है, इन किताबो को पढ़े. इनमे से कई किताबें...पैसे बचा कर खरीदीं थीं.

    बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी.

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  6. बहुमुल्य जानकारी सरजी

    बयं रक्षाम पढ़ने की दिली इच्छा है जिसे आपने बढ़ा दी। बहुत अच्छी, सार्थक और संग्रहणीय पोस्ट।

    आपका आभार कि इतनी मेहनत कर पाते है।

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  7. पति द्वारा क्रूरता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझावअपने अनुभवों से तैयार पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता के विषय में दंड संबंधी भा.दं.संहिता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझाव विधि आयोग में भेज रहा हूँ.जिसने भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए हैं. अगर आपने भी अपने आस-पास देखा हो या आप या आपने अपने किसी रिश्तेदार को महिलाओं के हितों में बनाये कानूनों के दुरूपयोग पर परेशान देखकर कोई मन में इन कानून लेकर बदलाव हेतु कोई सुझाव आया हो तब आप भी बताये.

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  8. सबकी राह अलग थी। सब मौलिक थे,इसलिए चंद बड़े नामों की परछाईं के रूप में सिमटकर नहीं रह गए।

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  9. ऐतिहासिक घटनाओं को रोचक उपन्यासों के रूप में प्रस्तुत करना कि लगे कि लेखक उसका प्रत्यक्षदर्शी इन उपन्यासकारों की खासियत है। इनमें वृंदालाल वर्मा की विराटा की पद्मिनी का तो कोई जोड़ ही नहीं।

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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