उपन्यास साहित्य
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का ‘मैला आंचल’ - आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति
मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना का श्रेय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को जाता है। प्रेमचंद के बाद रेणु ने गांव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया है।
‘रेणु’ जी का ‘मैला आंचल’ वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को दिखलाया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं है, पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। खूबी यह है कि यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है।
रेणु जी ने ही सबसे पहले ‘आंचलिक’ शब्द का प्रयोग किया था। इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहते हैं,
“यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास।“
इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है। ‘रेणु’ कहते हैं,
“इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।“
यही इस उपन्यास का यथार्थ है। यही इसे अन्य आंचलिक उपन्यासों से अलग करता है जो गांव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखे गए हैं। गांव की अच्छाई-बुराई को दिखाता प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, शिवप्रसाद रुद्र, भैरव प्रसाद गुप्त और नागार्जुन के कई उपन्यास हैं जिनमें गांव की संवेदना रची बसी है, लेकिन ये उपन्यास अंचल विशेष की पूरी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। बल्कि ये उपन्यासकार गांवों में हो रहे बदलाव को चित्रित करते नज़र आते हैं। परन्तु ‘रेणु’ का ‘मेरीगंज’ गांव एक जिवंत चित्र की तरह हमारे सामने है जिसमें वहां के लोगों का हंसी-मज़ाक़, प्रेम-घृणा, सौहार्द्र-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढाव के साथ उकेरा गया है। इसमें जहां एक ओर नैतिकता के प्रति तिरस्कार का भाव है तो वहीं दूसरी ओर नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच कहीं न कहीं जीवन के प्रति गहरी आस्था भी है – “मैला´आंचल में”!
पूरे उपन्यास में एक संगीत है, गांव का संगीत, लोक गीत-सा, जिसकी लय जीवन के प्रति आस्था का संचार करती है। एक तरफ़ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बनाता है तो दूसरी तरफ़ उस समय का बोध भी दृष्टिगोचर होता है। ‘मेरीगंज’ में मलेरिया केन्द्र के खुलने से वहां के जीवन में हलचल पैदा होती है। पर इसे खुलवाने में पैंतीस वर्षों की मशक्कत है इसके पीछे, और यह घटना वहां के लोगों का विज्ञान और आधुनिकता को अपनाने के की हक़ीक़त बयान करती है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका, झाड़-फूक, में विश्वास करनेवाली अंधविश्वासी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है। साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है। सब डॉ.प्रशान्त की जाति जानने के इच्छुक हैं। हर जातियों का अपना अलग टोला है। दलितों के टोले में सवर्ण विरले ही प्रवेश करते हैं, शायद तभी जब अपना स्वार्थ हो। छूआछूत का महौल है, भंडारे में हर जाति के लोग अलग-अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। और किसी को इसपर आपत्ति नहीं है।
‘रेणु’ ने स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई राजनीतिक अवसरवादिता, स्वार्थ और क्षुद्रता को भी बड़ी कुशलता से उजगर किया है। गांधीवाद की चादर ओढे हुए भ्रष्ट राजनेताओं का कुकर्म बड़ी सजगता से दिखाया गया है। राजनीति, समाज, धर्म, जाति, सभी तरह की विसंगतियों पर ‘रेणु’ ने अपने कलम से प्रहार किया है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु काफ़ी रोचक है। चरित्रांकन जीवंत। भाषा इसका सशक्त पक्ष है। ‘रेणु’ जी सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोककथाएं, लोकगीत, लोकसंगीत आदि को शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं।
अपने अंचल को केन्द्र में रखकर कथानक को “मैला आंचल” द्वारा प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिन्दी में आंचलिक उपन्यास की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अपने प्रकाशन के 56 साल बाद भी यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक उपन्यास के अप्रतिम उदाहरण के रूप में विराजमान है। यह केवल एक उपन्यास भर नहीं है, यह हिन्दी का व भारतीय उपन्यास साहित्य का एक अत्यंत ही श्रेष्ठ उपन्यास है और इसका दर्ज़ा क्लासिक रचना का है। इसकी यह शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण ही नहीं है, वरन् एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण भी है। बोली-बानी, गीतों, रीतिरिवाज़ों आदि के सूक्ष्म ब्योरों से है। जहां एक ओर अंचल विशेष की लोकसंस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या की है वहीं दूसरी ओर बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में लोक-व्यवहार के विविध रूपों का वर्णन भी किया है। इन वर्णनों के माध्यम से ‘रेणु’ ने “मैला आंचल” में इस अंचल का इतना गहरा और व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है।
संदर्भ
1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार 9. फणीश्वरनाथ रेणु – व्यक्तित्व, काल और कृतियां – गोपी कृष्ण प्रसाद 10. फणीश्वरनाथ रेणु व्यक्तित्व एवं कृतित्व – डॉ. हरिशंकर दुबे
बहुत अच्छे और सहज ढंग से 'रेनू'जी और उनके उपन्यास 'मेंला आँचल'पर प्रकाश डाला है. काफी जानकारी हासिल हुयी.
जवाब देंहटाएंमनोज जी!! मैला आंचल और रेणु जी की भाषा ने बिना बनावट के जो माटी की महँक बिखेरी है..उस्का आनन्द अनुभव करने में है.. मैला आँचल तो मील का पत्थर है.. यही महँक देसिल बय्ना में आती है.. साधुवाद!!
जवाब देंहटाएं@ विजय माथुर जी,
जवाब देंहटाएंआभार आपका, प्रोत्साहन के लिए।
@ सलिल जी,
जवाब देंहटाएंबड़े भाई सही कहे हैं कि इस उपन्यास में जो माटी की महक है वह अन्यत्र कहीं नहीं है और इनका लेखन हम लोगों को एतना प्रभावित किया कि हम सब देसिल बयना का कन्सेप्ट बनाने पर प्रोत्साहित हुए। आभार आपका कि आपने हमारे उस प्रयास को पसंद किया।
यह उपन्यास मैंने पढ़ा है ... पर .......... शायद अब कुछ भी याद नहीं ...जब कॉलेज में थी तब पढ़ा था ..फिर से पढ़ना चाहूंगी ..
जवाब देंहटाएं@ संगीता जी,
जवाब देंहटाएंज़रूर पढिए, लाजवाब उपन्यास है।
रेणु जी की कालजयी कृति के बारे में हर बार पढ़कर , उसे फिर से पढने की इच्छा जागृत होती है . आंचलिक कृतियों में मैला आंचल हमेशा मील का पत्थर रहेगा .
जवाब देंहटाएंजिन उपन्यासों में परिवेश चित्रण कथा के केंद्र में होता है,ऐसे उपन्यास को आँचलिक उपन्यास की संज्ञा दी जाती है। "मैला आँचल" में रेणु जी ने बिहार के पूर्णिया जिले के "मेरीगंज" जनपद की परंपरा,रीति-रिवाज,तीज-त्यैहार, लोगों की वेश-भूषा, अंचल की भाषा,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन के समग्र पहलू को अपनी पूर्ण समग्रता में सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन समाविष्ट किया है। "चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनिया" यानि "मारे गए गुल्फाम" यानि "तीसरी कसम" यानि रेणु जी की सर्वश्रेष्ठ कृति के बारे में जितना भी लिखा-पढ़ा जाए,शायद संतुष्टि नही मिलेगी। इस पोस्ट की सम्यक प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं@ अशीष जी
जवाब देंहटाएंसही कहा। मैं तो कई बार पढ गया।
@ प्रेम सरोवर जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने, जितना कहा जाए कम है।
आह आज तो शाम बना दी आपने .मेला आँचल बहुत पहले पढ़ा था और शायद उसपर कोई फिल्म भी बनी थी .ज्यादा तो याद नहीं पर इतना याद है कि तब भी गहरे उतरा था ये उपन्यास आज आपकी इस पोस्ट ने दिल खुश कर दिया
जवाब देंहटाएंगौर से देखिए,इसका अनुवाद बिल्कुल संभव नहीं है।
जवाब देंहटाएं@ शिखा जी
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र हीरो थे।
आज़ादी के तुरंत बाद लिखा गया यह उपन्यास न केवल बिहार बल्कि समूचे ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा था.... भाषा की दृष्टि से जरुर यह आंचलिक था लेकिन कथ्य में पूरा भारतीय..... दुखद है कि यह पहलु आज के साहित्य से गायब है.... पचास साल बाद भी पूर्णिया वैसे ही है जैसा छोड़ के गए थे रेणु जी...आज भी डाक्टर की कमी है... मलेरिया आज भी मौजूद है वहां और पूरे भारत में.... एक नई दृष्टि चाहिए इस उपन्यास को समझने के लिए....
जवाब देंहटाएंअरुण जी सही कहा आपने। इस अंचल को दर्शाने वाला अब कोई रेणु भी नहीं है।
जवाब देंहटाएंvery good my blog link- "samrat bundelkhand"
जवाब देंहटाएंअगर मैं यह कहूँ कि यह उपन्यास मुझे पंक्ति-दर-पंक्ति याद है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। सुंदर संदर्भ। आपका यह आलेख जाल-जगत में विचरन करने वाले अध्येताओं के लिये वरदान सिद्ध होगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
मुझे कत्तई आश्चर्य नहीं है। आखिर आपके देसिल बयना के हम सबसे पुराने पाठकों में से एक हैं।
जवाब देंहटाएंयह उपन्यास क्या कभी विस्मृत करने योग्य है ????
जवाब देंहटाएंआपकी इस समीक्षा ने मेरे मनोभावों को ही जैसे अभिव्यक्ति दी है....
बहुत बहुत आभार इस सुन्दर पोस्ट के लिए...
मैला आँचल पढ़ते हुए पूरा ग्रामीण परिवेश साकार हो जाता है...और पाठक खुद को उन्ही के बीच पाता है...पर सही कहा...
जवाब देंहटाएं"इसकी यह शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण ही नहीं है, वरन् एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण भी है। "
इस कालजयी कृति के विषय में पढना हमेशा ही रुचिकर होता है.
@ रंजना जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका रंजना जी आपके बहुमूल्य विचार के लिए।
@ रश्मि जी
जवाब देंहटाएंसच में जितना पढ़ो उतना और पढ़ने का मन करता है।
क्या मैला आंचल का महत्व इसलिये है कि वह एक अंचल विशेष के बारे में है, उसमें ग्रामीण मिट्टी की महक और अन्य आंचलिक उपन्यासो से अलग है. बिलकुल नहीं मैला आंचल एक रूपकात्मक उपन्यास है ध्यान से देखें तो मेरीगंज आजादी के समय बदल रहे भारत के रूपक में बदल जाता...विश्वसनीयता के साथ यह हमारे समाज के तमाम अंतर्विरोधों को उजागर कर देता है.
जवाब देंहटाएंmay ye upaneyas padhna chati hu
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंmay ye upaneyas padhna chata hu easke sabhi parst dekhaya
जवाब देंहटाएं