केले का पेड़
उधर से आए सेठ जी
इधर से संन्यासी,
एक ने कहा, एक ने मानी --
(दोनों ठहरे ज्ञानी)
दोनों ने पहचानी
सच्ची सीख, पुरानी :
दोनों के काम की,
दोनों की मनचीती --
जै सियाराम की!
सौटंच सत्यानासी।
कि
मानुस हो तो ऐसा …
जैसा केले का पेड़
जिस का सब कुछ काम आ जाये।
(मुख्यतया खाने के!)
फल खाओ, फूल खाओ,
घौद खाओ, मोचा खाओ,
डण्ठल खाओ, जड़ खाओ,
पत्ते – पत्ते का पत्तल परोसो
जिस पर पकवान सजाओ :
(यों पत्ते भी डाँगर तो खायेंगे --
गो माता की जै हो, जै हो!)
यों, मानो बात तै हो :
इधर गये सेठ, उधर गये संन्यासी।
रह गया बिचारा भारतवासी।
ओ केले के पेड़, क्यों नहीं भगवान् ने तुझे रीढ़ दी
कि कभी तो तू अपने भी काम आता --
चाहे तुझे कोई न भी खाता --
न सेठ, न संन्यासी, न डाँगर-पशु --
चाहे तुझे बाँध कर तुझ पर न भी भँसाता
हर असमय मृत आशा-शिशु?
तू एक बार तन कर खड़ा तो होता
मेरे लुजलुज भारतवासी!
'अज्ञेय' द्वार रचित 'केले का पेड़' के माध्यम से कवि ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि मनुष्य को केले से सीख लेनी चाहिए कि उसके गुण-धर्म भी उसके ही भाँति होनी चाहिए।पोस्ट अच्छा लगा।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकेला ही एकमात्र पेड है
जवाब देंहटाएंजिसपर जीवन में दुबारा फ़ल नहीं आता है।
अज्ञेय जी की कविता पढ़वाने पर आभार ...सीख देती रचना ...पढ़ कर अच्छा लगा ..
जवाब देंहटाएंkaaljayi krityan aisi hi hoti hai jo padhe sandesh grahan kar leta hai.aabhar
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविता...केले के पेड़ को यदि रीढ़ की हड्डी हो जाती तो वह केले का पेड़ नहीं रह जाता....
जवाब देंहटाएंइस कालजयी रचना को पढवाने का आभार.
जवाब देंहटाएंभारतवासी की तुलना केले के पेड़ से ... ऐसा अज्ञेय ही लिख सकते हैं ..
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