30 जून 1911 - 5 नवंबर, 1998
झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़
महसूस हुई कंधों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
तन गई रीढ़
कौंधी कहीं चितवन
रँग गए कहीं किसी के होंठ
निगाहों के ज़रिए जादू घुसा अंदर
तन गई रीढ़
गूँजी कहीं खिलखिलाहट
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
भर गए कर्णकुहर
तन गई रीढ़
आगे से आया
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ... सच है किसी अपने का साथ मिल जाये तो जोश भर जाता है ..
जवाब देंहटाएंचरण स्पर्श बाबा नागार्जुन के!! इस कविता का मर्म ह्रदय से महसूस किया जा सकता है!!
जवाब देंहटाएंबाबा से सुने हैं ये कविता धनबाद में १ अप्रैल १९९१ को. उनकी प्रिय कविताओं में एक है यह...
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर. अद्वितिय.
जवाब देंहटाएंआगे से आया
जवाब देंहटाएंअलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़
कविता बहुत अच्छी लगी।
बाबा नागार्जुन को विनम्र श्रद्धंजलि।
kisi ka sparsh aur sath hone bhar ka ehsaas hi kitni sfurti bhar deta hai. sunder chitr kheencha hai.
जवाब देंहटाएंवाह अति सुन्दर.
जवाब देंहटाएंइस ऐतिहासिक रचना को पढवाने का आभार।
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जबरदस्त ... कमाल की प्रस्तुति है मनोज जी ... बाबा की कवितायें अनोखी होती हैं ... अलग अंजाद लिए ...
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