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बुधवार, 13 जुलाई 2011

अभी तो

अभी तो

दुष्यंत कुमार त्यागी



-- रात के घने काले समय में
मेरी हथेली पर
तुमने बनाया है जो सूरज
            -- मेंहदी से
            कहीं सुबह तक रचेगा
            लाल होगा!
--  यों उतावले मत हो
रचेगा ज़रूर
सूरज है
तुमने बनाया है!
            -- लेकिन प्रिय,
            अभी तो अंधेरा है
            नमी है हथेली में
            सुबह की प्रतीक्षा है!
(आवाजों के घेरे में .. से)

7 टिप्‍पणियां:

  1. दुष्यंत कुनार त्यागी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। साहित्य-जगत में अपनी रचनाओं के माध्यम से ये वो मुकाम और मंजिल हासिल करने में कामयाब हुए हैं जिसे आज तक किसी ने हासिल नही किया है। इस कविता को प्रस्तुत करने के लिए विशेष धन्यवाद।

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  2. सुबह सुबह एक अभूतपूर्व कविता पढ़कर दिन बन गया....

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  3. बेहद सुन्दरभाव .आभार आपका भाई साहब .

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  4. उसने बना भेजा है चाँद और सूरज
    एक ही पन्ने पे
    क्या अनुमान लगाऊं मैं
    इस सन्देश का
    चाहती है क्या रुकना रात भर
    या कहना चाहती है चाँद वो है
    और उसका सूरज मैं
    या चाहती है
    चाँद से बदन में
    भर दूं ऊष्णता सूरज की
    के चांदनी भी तप जाये
    और भोर की किरने दे
    शीतलता मन की

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