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रविवार, 17 जुलाई 2011

तुम्हारी पलकों का कँपना।

अज्ञेय

पलकों का कँपना

तुम्हारी पलकों का कँपना।
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।

मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के
खिलने का सपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।

सपने की एक किरण मुझको दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारी उस सपने का कण होना।
और सब समय पराया है।
बस उतना क्षण अपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आज सबेरे-सबेरे अच्छी कविता पढ़ने को मिली। आभार।

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  2. अज्ञेय जी प्रयोगवाद के प्रवर्तक के साथ नए प्रतीकों व बिम्बों के लिये भी विशेष तौर पर जाने जाते हैं । इस कविता में भी वही ताजगी है । कविता पढवाने के लिये धन्यवाद ।

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  3. पलकों का कंपना उस सपने का कण होना..... बहुत ही ख़ूबसूरत चाह है.....

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  4. बहुत सुन्दर कविता प्रस्तुत की है ..

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  5. किसकी पलकें किस कारण से कंपकंपा रही हैं...कोई खोले!

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