प्रेम
मैंने
गुलाब की
मौन शोभा को देखा!
उससे विनती की
तुम अपनी
अनिमेष सुषमा की
शुभ्र गहराइयों का रहस्य
मेरे मन की आँखों में
खोलो!
मैं अवाक् रह गय!
वह सजीव प्रेम था!
मैंने सूँघा,
वह उन्मुक्त प्रेम था!
मेरा हृदय
असीम माधुर्य से भर गया
मैंने
गुलाब को
ओठों से लगाया!
उसका सौकुमार्य
शुभ्र अशरीरी प्रेम था !
मैं गुलाब की
अक्षय शोभा को
निहारता रह गया!
[‘कला और बूढ़ा चाँद’ से]
पन्त जी की अमूल्य कविता के प्रस्तुतीकरण हेतु धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंअमूल्य कविता पढवाने के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंप्रकृति के सुन्दर विम्ब लिए प्रेम के उद्दात स्वरुप के दर्शन कराती कविवर पन्त जी की अमूल्य कविता के प्रस्तुतीकरण हेतु आपका बहुत-बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना पढ़वाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंअमूल्य कविता पढवाने के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंपंत जी की कविता पर टिप्पणी कर्ने की काबिलियत मुझमें नहीं है,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
पन्त जी कविता को पढ़वाने के लिए शुक्रिया.....
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