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सोमवार, 1 अगस्त 2011

मैं नहीं चाहता चिर सुख


सुमित्रानन्दन पन्त 


की कविता-3


मैं नहीं चाहता चिर सुख


मैं नहीं  चाहता चिर सुख,
मैं नहीं  चाहता चिर दुःख,
सुख-दुख की खेल मिचौनी
खोले  जीवन अपना मुख।

सुख-दुख  के मधुर मिलन से
यह   जीवन  हो   परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित  है अति दुख से,
जग पीड़ित  रे, अति सुख से,
मानव  जग   में  बँट  जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख  है  उत्पीड़न,
अविरत सुख भी  उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में
सोता-जगता  जग-जीवन !

यह साँझ-उषा   का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का ;
चिर  हास-अश्रुमय  आनन
रे, इस मानव जीवन का !

9 टिप्‍पणियां:

  1. यह साँझ-उषा का आँगन,
    आलिंगन विरह-मिलन का ;
    चिर हास-अश्रुमय आनन
    रे, इस मानव जीवन का !
    Kya gazab kee panktiyan hai! Sahee hai....Hariwanshrai Bachhan kaa kamaal hai!

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  2. अविरत दुख है उत्पीड़न,
    अविरत सुख भी उत्पीड़न,
    दुख-सुख की निशा-दिवा में
    सोता-जगता जग-जीवन !

    सुमित्रा नन्दन पन्त जी की बेहतरीन रचनाओं में से एक .. आभार

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  3. आज तो बचपन की याद ताज़ा हो गयी.. हमारी पाठ्य-पुस्तक में यह कविता पढाई जाती थी. इसकी व्याख्या लिखने में हम कितने पृष्ठ लिख जाते थे..

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  4. school men padhi kavita fir padhwane ke liyebahut-bahut dhanybad......

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  5. आप इतने सुंदर फूल चुनकर लाते हैं कि मन प्रसन्न हो जाता है कई सारी साहित्यिक जानकारियां आपके माध्यम से हो रही है आभार

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  6. पंत जी ने जीवन दर्शन करा दिया …………पढवाने के लिये हार्दिक आभार्।

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