नाटक साहित्य-6
भारतेन्दु जी के नाटक
मनोज कुमार
भारतेन्दु जी ने न केवल साहित्य की सेवा की बल्कि नाट्य-कला और रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया। वे जानते थे कि दृश्य-काव्य होने की वजह से नाटक जनता को जागृत करने का सशक्त माध्यम हो सकता है। उन्होंने अनेक नाट्य-साहित्य की रचना की। उनके नाटकों की विषय-वस्तु यथार्थवाद जे निकट है।
“वैदिक हिंसा हिंसा न भवति” एक प्रहसन है। इसमें कुछ लोलुप और स्वार्थी जो अवसरवादी भी हैं ऐसे तत्वों पर तीखा व्यंग्य कसा गया है। ऐसे लोग देश की जड़ों को खोखला कर डालते हैं। ऐसे लोगों के प्रति सचेत करता हुआ व्यंग्य और उपहास की शैली में लिखा गया यह नाटक राष्ट्रप्रेम की शिक्षा भी देता है और देश के पुनरुत्थान के लिए प्रेरित करता है।
‘‘विषस्य विषमौधम्” संस्कृत की भाषा शैली में लिखा गया एक-पात्रीय नाटक है। इसमें देश के रजवाड़े में चल रहे व्यभिचार-लीला, प्रजा-शोषण और षडयंत्रों का पर्दाफ़ाश किया गय है और बताया गया है कि इस तरह के कुचक्र से देश दुर्बल हो रहा है। ये राजा ही देश की परतंत्रता के कारण बने। ऐसे तत्वों से सावधान रहने की आवश्यकता है।
प्रेमजोगिनी काशी के पाखंड भरे रूप का यथार्थवादी नाटक है। इस नाटक में सामंती पतन की कहानी कही गई है। यह नाटक एक नया प्रयोग था जिसके हर अंक में नये पात्र आते हैं। इस नाटक के द्वारा भारतेन्दु जी ने धार्मिक और सामाजिक पतनशीलता की ओर इशारा किया है। यह नाटक व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया है।
‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक नवयुवकों में चरित्र और आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से लिखा गया था। हरिश्चन्द्र का सत्यप्रिय, न्यायप्रिय, त्यागप्रिय और कर्तव्यपरायण चरित्र हमारे देश के लिए एक तरह से मानदंड ही तो स्थापित करता है। इस तरह के चरित्र बल से ही ग़ुलामी की जंज़ीर को काटा जा सकता था। यह नाटक भारतीय जनता के धैर्य और अथाह करुणा का प्रतीक है।
“प्रगटहु रवि-कुल निसि, बीती प्रजा कमलगन फूले।
मंद परे रिपुगन तारा सम, जन-मय-तम उनमूले॥”
सत्य हरिश्चन्द्र के रंगमंच पर आ जाने से अंग्रेज़ीराज को हटाने का संदेश इन पंक्तियों द्वारा स्पष्ट हुआ है। बलिया में ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ में हरिश्चन्द्र के रूप में एक बड़े जन समूह को उन्होंने भाव-विभोर कर दिया।
चन्द्रावली स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है। इसे रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है। इसमें राधा-कृष्ण के उपासक चन्द्रावली के प्रेम और भक्ति को दर्शाया गया है।
“भारत दुर्दशा” के द्वारा उन्होंने देशभक्ति का अलख जगाने की कोशिश की है साथ ही स्वाभिमान की भावना जगाई है। यह नाटक अंग्रेज़ी राज की अप्रत्यक्ष आलोचना है। देश प्रगतिशील हो और उसका गौरव फिर से स्थापित हो इसकी कामना की गई है, ताकि देश का पुनरुत्थान हो सके। इस नाटक में भारत की दयनीय दशा का बहुत ही प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया गया है। आसमान छूती महंगाई, उसपर से कर वसूली का शोसक चक्र, से जनता त्रस्त थी। यह भी कहा गया है कि इस अधोगति के लिए विदेशी शासक जिम्मेदार है।
अंगरेजराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै, अति ख्वारी।
ताहू पै महँगी काल रोग विस्तारी।
दिन दिन दूने दुख ईस देत हा हा री।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।
समाज में छुआछूत, आपसी दुश्मनी, आलस्य, बीमारी, नशाखोरी आदि अनेक बुराइयां व्याप्त थें जिसने देश की दुर्दशा को और बढाया। ऐसी परिस्थिति में भारतेन्दु ने देश के गौरपूर्ण अतीत की इस नाटक के द्वारा याद दिलाते हुए लोगों को प्रेरित करने काम किया है,
“जहँ भए शाक्य हरिश्चन्द्र नहुष ययाती।
जहँ राम युधिष्ठिर वासुदेव सर्याती।
जहँ करन अर्जुन की छ्टा दिखाती।
तहँ रही मूढता, कलह, अविद्या-राती।”
प्रयोगशीलता और लोकधर्मी चेतना के कारण यह नाटक आज भी प्रासंगिक है। यह लचीले शिल्प का नाटक है। इसमें पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक-नाट्य का द्भुत मिश्रण है।
“भरत जननी” एक काव्य नाटक है जिसमें राष्ट्रीय जागरण का संदेश दिया गया है। इस नाटक में अंग्रेज़ी शासन के कारण हो रहे पतन को दिखाया गया है और कहा गया है कि इस शासन से रक्षा के लिए लोग प्राणपन से जुट जाएं।
“अब बिन जागे काज सरत नहिं आलस्य दूर बहाओ।
हे भारत भुवनाथ भूमि निज बूड़त आनि बचाओ॥”
‘‘नील देवी” में पतिव्रत्य, देशभक्ति और वीरता को नारी के चरित्र बल के रूप में दर्शाया गया है। नील देवी में उन्होंने पागल की भूमिका निभाई। इन नाटकों में देश के गौरवपूर्ण अतीत को याद दिला कर देशवासियों को आज़ादी प्राप्ति के लिए संघर्ष रत होने का संदेश दिया गया है। नील देवी स्त्रीप्रधान दुखान्त नाटक है।
“रहे हमहुँ कबहूँ स्वाधीन आर्य बलधारी।”
“अंधेर नगरी” एक ऐसा नाटक है जिसकी सार्थकता और मूल्यवत्ता समय के साथ बढ़ती ही गयी है। इसमें भारतेन्दु जी की नाट्यकला का चरमोत्कर्ष हुआ है। प्रहसन और व्यंग्यकला का चुटीला नाटक अपनी सजीवता और सजगता के कारण लाजवाब है। एक छोटी सी लोकोकति के आधार रचित इस नाटक में अपने समय का पूरा वर्तमना समेटे है। प्रहसन शैली में लिखा गया यह नाटक देश के भीतर सूदखोर महाजन की जहां एक ओर खबर लेता है वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ी शासन के जन विरोधी प्रशासन, शोषण और कर नीति पर भी प्रहार करता है। यह नाटक अपने प्रभाव में लोगों की आंख खोलने औरे सजग होने में सफल हुआ है।
‘‘सती प्रताप’’ में सती सावित्री के कथानक को लेकर भारतीय नारी की चेतना और आदर्श को प्रस्तुत किया गया है। इस नाटक का भी उद्देश्य लोगों में जागरण उत्पन्न करना है। भारतेन्दु जी इसके केवल चार दृश्य ही लिख पाए थे बाद में बाबू राधाकृष्ण दास ने इसे
पूरा किया।
भारतेन्दु जी के अनूदित नाटक
रत्नावली हर्षकृत संस्कृत नाटिका का हिन्दी अनुवाद है। इस अनुवाद में मूल संस्कृत छन्दों के साथ स्वयं उन्होंने भी छंद बनाए।
पाखण्ड विडम्बन कवि कृष्ण मिश्र द्वारा रचित प्रबोध चन्द्रोदय के तीसरे अंक का अनुवाद है। यह उनकी मौलिक दृष्टि का परिचायक है।
धनंजय विजय कांचन कवि के संस्कृत नाटक का अनुवाद है। यह वीर रस प्रधान ओजपूर्ण नाटक है।
मुद्रा राक्षस संस्कृत के विख्यात नाटककार विशाखदत्त के मुद्राराक्षस का अनुवाद है। इस नाटक के द्वारा भारतेन्दु जी यह प्रमाणित करना चाहते थे कि श्रृंगार रस के बिना भी विचारोत्तेजक महान नाटक की रचना की जा सकती है। चाणक्य की कूटनीति, दृढता और नैतिकता दर्शनीय है। अनुवाद जीवन्त और मौलिक है।
कर्पूर मंजरी प्राकृत में राजशेखर रचित सट्टक का अनुवाद है। इसमें राजदरबार का सुन्दर व्यंग्यात्मक चित्र है।
दुर्लभ बन्धु शेक्सपियर के नाटक ‘मर्चेण्ट आफ वेनिस’ का अनुवाद है। भारतेन्दु ने इसका भारतीयकरण किया है। उन्होंने पात्रों के नाम, स्थान, कथा, संवाद आदि में परिवर्तन किया है। सच्ची मित्रता और धनिकों के हृदय की क्रूरता दिखाना इसका उद्देश्य है।
विद्यासागर यतीन्द्र मोहन ठाकुर के बंगला नाटक का अनुवाद है। यह एक रोमांटिक नाटक है जिसमें रोमियो-जूलियट प्रेम में असफल होने के कारण प्राण नहीं देते, बल्कि अन्त में मिल जाते हैं।
भारतेन्दु जी के लिए नाटक साहित्य भी था और रंगमंच भी। भारतेन्दु जी ने नाटकों द्वारा देश की पतनशील अवस्था, अंग्रेज़ों की शोषक नीति आदि का चित्रण के साथ लोगों को अपने उन्नत अतीत की भी याद दिलाई और दर्शक में देशप्रेम की भावना जगाकर आज़ादी के संघर्ष के लिए उत्प्रेरित किया। भारतेन्दु जी के नाटक रंगशिल्प की दृष्टि से बहुत ही सरल होते थे। थोड़े से रंगमंचीय उपकरणों की सहायता से ये नाटक मेले-ठेले में कहीं भी खेले जा सकते थे। उन्होंने लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए इन नाटकों की रचना की। ये नाटक काफ़ी प्रभाशाली सिद्ध हुए। लोक नाट्य शैली को अपनाने से इसके मंचन में कोई कठिनाई नहीं हुई।
बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत शोधपूर्ण लेख ..नाटकों की उपयोगिता के बारे में सशक्त लिखा है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को हरियाली तीज के शुभ अवसर पर बहुत बहुत शुभकामनायें ......
जवाब देंहटाएंपोस्ट पर आपका स्वागत है
दोस्ती - एक प्रतियोगिता हैं
भारतेंदु जी के नाटक आज भी उतने ही प्रशंसा के पात्र हैं जितने उनके जमाने में थे। नाटक का स्वरूप एवं जनमानस की आत्मीयता भी समय के प्रवाह के साथ परिवर्तित होती रहती है। लोग बदल गए, उनकी मानसिकता बदल गयी एवं बदल गया वह परिप्रेक्ष्य जिन परिस्थितियों के दौरान भारतेंदु जी ने इन्हे नाट्य-जगत में एक नूतन विधा के रूप में प्रस्तुत किया था। इनका नाटक ' अंधेर नगरी ' भले ही किसी ने न देखा हो या न पढ़ा हो, फिर भी समाज में, देश की शासन व्यवस्था में कुछ गलत होने पर कह देते हैं कि भाई, अब यह देश या समाज अंधेर नगरी की तरह हो गया है। उनके नाटकों के बारे में आपके द्वारा प्रस्तुत जानकारी अच्छी लगी। धन्यवाद,सर।
जवाब देंहटाएंभारतेंदु जी के नाटक तत्कालीन व्यवस्था एवं सामाजिक परिवेश का दर्पण तो थे ही, आज भी उनकी प्रासंगिकता दिखाई देती है..
जवाब देंहटाएंआपने छोटी पोस्ट में भारतेंदु सम्पूर्ण प्रस्तुत कर दिया है!!