किताब पढ़कर रोना
रोया हूं मैं भी किताब पढकर के
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तांत था
पात्र जिसके अनेक
बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे
पढता जाता और रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ्ता कुछ और हूं
रोता कुछ और हूं
दोनों जुड गये हैं पढना किताब का
और रोना मेरे व्यक्ति का
लेकिन मैने जो पढा था
उसे नहीं रोया था
पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया
दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से
पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं
बाहर किताब के जीवन से पाता हूं
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है.
लाजवाब और एक अलग दृष्टि!
जवाब देंहटाएंक्या बात है...
जवाब देंहटाएंदर-असल जो किताब में है,वह कहीं हमारे जीवन में भी साथ-साथ घटित हो रहा होता है.
जवाब देंहटाएंरघुवीर सहाय की इस लघु-कविता ने पूरा जीवन-दर्शन बता दिया है!
आभार !
किताबे पढकर रोना और कभी कोई गुलाब रख देना. जीवन के वो कोमल अहसास कमतर होते जा रहे हैं. शायद वैसी किताबे नहीं रही, या वैसे लोग नहीं रहे.
जवाब देंहटाएंनहीं रहे वो पीनेवाले, नहीं रही वो मधुशाला.
सुन्दर संवेदनशील कविता की प्रस्तुति हेतु आभार...
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