प्रेरक-प्रसंग-2
सहूलियत का इस्तेमाल
30 मार्च 1947
प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार
गांधी जी मूलतः एक संवेदनशील व्यक्ति थे। अपने सिद्धांतों की कद्र करने वाले। वे आत्मा की आवाज़ सुनते थे। उनकी संवेदना, उनके तर्क और आध्यामिकता के बीच एक निष्पक्ष जज की तरह आ खड़ी होती थी। फिर उनकी सोच एक सिद्धांत की तरह सामने आती थी।
बापू लॉर्ड माउण्ट बैटन से मिलने जा रहे थे। नोआखाली और बिहार के ऐक्य-यज्ञ के बाद उनकी यह पहली यात्रा थी। वाइसरॉय की ओर से सूचना यह दी गई थी कि बापू को हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचना है। पर बापू ने हवाई जहाज से जाने से इंकार कर दिया। बोले, “जिस वाहन में करोड़ों ग़रीब सफ़र नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठ सकता हूं? मेरा काम तो रेल से भी अच्छी तरह चल जाता है। मैं रेल से ही आऊँगा।”
बापू ने यात्रा की तैयारी के लिए मनुबहन गांधी को आवश्यक निर्देश देते हुए कहा, “तुम्हें मेरे साथ आना है। सामान कम से कम लेना है। छोटे-से-छोटा तीसरे दर्ज़े का एक डब्बा पसंद कर लेना। मगर देखना, इसमें तुम्हारी कड़ी परीक्षा है, ख़्याल रखना!”
मनुबहन ने सामान तो कम-से-कम लिया, मगर डब्बा पसन्द करते समय उन्हें ख़्याल हुआ कि हर स्टेशन पर दर्शन करने वालों की भीड़ के कारण बापू घड़ी भर आराम नहीं कर पाएंगे। इसलिए उन्होंने दो भाग वाला एक डब्बा पसन्द किया। एक में सामान रख लिया और दूसरे में बापू के सोने-बैठने का इंतज़ाम कर दिया।
पटने से दिल्ली की गाड़ी सुबह 9.30 बजे चली। बापू 9.25 बजे स्टेशन पर आए। वहां लोगों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी। गाड़ी पर चढ़ने के बाद बापू ने देखा कि गाड़ी खुलने में अभी पांच मिनट है। मिनट-मिनट का उपयोग करने वाले गांधी जी ने पांच मिनट में फ़ण्ड इकट्ठा कर लिया।
रेल से यात्रा शुरु हुई। 24 घंटे का रास्ता था। हर स्टेशन पर राष्ट्रपिता के दर्शन के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। पर बापू को इन सब तकलीफ़ों की फ़िकर ही कहां थी! बापू दिन में 10 बजे भोजन करते थे। मनुबहन सब तैयारियां करने के लिए डब्बे के दूसरे हिस्से में गयीं। थोड़ी देर के बाद बापू के पास आई। लिखने में व्यस्त बापू ने पूछा, “कहां थी?”
मनुबहन ने बताया, “खाना तैयार कर रही थी।”
बापू ने कहा, “ज़रा खिड़की के बाहर नज़र डालकर देखो।”
मनुबहन को लगा कुछ भूल ज़रूर हो गई है। उन्होंने खिड़की के बाहर देखा तो उन्हें लोग लटके हुए नज़र आए।
मिठी-सी झिड़की देकर बापू ने कहा, “क्या इस दूसरे कमरे के लिए तुमने कहा था?”
मनुबहन ने कहा, “जी हां। मेरा ख़्याल था कि अगर इसी कमरे में अपना काम करूँ, बरतन मलूँ, तो आपको तकलीफ़ होगी। इसलिए मैंने दो कमरे का डब्बा लिया।”
बापू कहने लगे, “कितनी कमज़ोर दलील है। इसी का नाम अंधा प्रेम है। तुम जानती हो न कि मेरी तकलीफ़ बचाने के लिए वाइसरॉय ने हवाई जहाज का इंतज़ाम किया गया था। किन्तु मैंने उसका उपयोग करने से इंकार कर दिया था। ऐसा करने के बाद स्पेशल रेलगाड़ी से सफ़र करने की व्यवस्था की गयी थी। लेकिन एक स्पेशल ट्रेन के पीछे कितनी गाड़ियां रुकें और हजारों का खर्च हो जाय? यह मुझसे कैसे सहा जाय? मैं तो बड़ा लोभी हूँ। मना कर दिया। आज तुमने सिर्फ़ दूसरा कमरा ही मांगा, लेकिन अगर सलून भी मांगती तो वह भी तुम्हें मिल जाता। मगर क्या यह तुम्हें शोभा देता? तुम्हारा यह दूसरा कमरा मांगना सलून मांगने के बराबर है। मैं जानता हूं कि तुम मेरे प्रति अत्यंत प्रेम की वजह से ही यह सब करती हो। लेकिन मुझे तुम्हें ऊपर चढ़ाना है, नीचे नहीं गिराना है। तुम्हें भी यह समझ लेना चाहिए।”
मनु बहन की आंखों से अविरल अश्रु की धार बह चली।
बापू ने देखा तो बोले, “मैं इधर तुम्हें यह बात कह रहा हूं और उधर तुम्हारी आंखों से पानी बह रहा है, वह नहीं बहना चाहिए। अब इन बातों का प्रायश्चित यही है कि तुम सब सामान इस कमरे में ले लो, और अगले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को मेरे पास बुलाना।”
थर-थर कांपते हुए मनु ने सामान हटाया। उन्हें यह चिन्ता भी सता रही थी कि बापू का काम सब कैसे होगा? घर के सब काम – पढ़ना, लिखना, मिट्टी का लेप लगाना, कातना, मनु को पढ़ाना – जैसे घर में होता था, वैसे ही ट्रेन में भी होते थे!
अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकने पर स्टेशन मास्टर को बुलाया गया। उससे बापू ने कहा, “यह मेरी पोती, बड़ी भोली है। शायद यह अभी तक मुझे समझ नहीं पाई है, इसलिए इसने दो कमरे चुन लिए। इसमें इसका दोष नहीं है, दोष मेरा ही है। क्योंकि मेरे शिक्षण में ही कुछ अधूरापन रह गया होगा। अब प्रायश्चित तो दोनों को मिलकर करना होगा। हमने दूसरा कमरा ख़ाली कर दिया है। जो लोग गाड़ी पर लटक रहे हैं, उनके लिए कमरे का उपयोग कीजिए। तभी मेरा दुख कम होगा।”
स्टेशन मास्टर ने बहुत मिन्नतें की। पर बापू कहां मानने वाले थे। स्टेशन मास्टर ने कहा कि उन लोगों के लिए वह दूसरा डब्बा जुड़वा देगा। बापू ने कहा, “हां, दूसरा डब्बा तो जुड़वा ही दीजिए, मगर इस कमरे का भी इस्तेमाल कीजिए। जिस चीज़ की हमें ज़रूरत न हो वह ज़्यादा मिल सकती हो, तो भी उसका उपयोग करने में हिंसा है। मिलनेवली सहूलियतों का दुरुपयोग करवाकर क्या आप इस लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं?”
बेचारे स्टेशन मास्टर शर्मिन्दा हुए। उन्हें बापू का कहना मानना पड़ा।
बापू तो सारे हिन्दुस्तान के पिता ठहरे। वे आराम से बैठे रहें और उनके बच्चे लटकते हुए सफ़र करें, यह उनसे कैसे सहा जाता? इससे लटकते लोगों को जगह मिली और मनु बहन को यह अमूल्य सबक कि जो सहूलियतें मिल सकती हैं, उनमें से भी कम से कम अपने उपयोग में लेनी चाहिए। बापू ने ऐसे बारीक़ी भरे अहिंसा-पालन से ही अपने जीवन को गढ़ा था।
स्रोत : “बापू मेरी मां” - मनुबहन गांधी
यह किताब पढ़ने को मिली है। इसलिए तो गाँधी को गाँधी कहते हैं।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग ... काश यह सीख हर इंसान समझ पाए तो किसी को कोई आभाव न रहे ..
जवाब देंहटाएंshayad tabhi wo bapu kahlate the.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंजहाँ तक मुझे याद है -गांधी जी के मरणोपरांत केंद्र में कई सरकारें आयी और गयी पर किसी ने भी गांधी जी की भावनाओं, संकल्पनाओं एवं रामराज्य की ओर ध्यान नही दिया । आज राजनैतिक परिदृश्य परिवर्तित हो गया है । जन सेवक के नाम से जाने वाले लोग अपने कार्यालयों में गांधी जी का फोटो लगाकर मात्र एक औपचारिकता का निर्वहन कर रहे हैं । आज यदि गांधी जी जीवित रहते तो उन्हे भी तिहार जेल भेज दिया जाता । रामराज्य के बारे में शुरू से ही सोचा जाता तो यह नौबत नही आती । आज के नेता तथा शीर्ष पदों पर आसीन अधिकारी तो स्लीपर में भी नही जाते हैं । ऐसा करने से उनकी इज्जत जाने का प्रश्न उठ जाता है । आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं उनमें से कितने लोग गांधी जी के आदर्शों पर चलते हैं । आज लोगों की संवेदनाएं मृतप्राय स्थिति में आ गयी हैं । हमें गांधी जी के आदर्शें पर चलना चाहिए । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबापू के प्रसंग प्रेरणादायक हैं.. साथ ही ऐसे भी नहीं कि व्यावहारिक न् हों!!
जवाब देंहटाएंBahut sundar aalekh hai,Manoj Sir.
जवाब देंहटाएंजन-जन का समर्थन किसी को यों ही नहीं मिलता।
जवाब देंहटाएंसगीता जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंकभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/