9. तुम्हे क्या
तुम्हे क्या
अगर मैं दे देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है,
वह नींद, जिसमे मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छंद तुक ताल बिंब
मौतों की भट्ठियों में तपाए हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाए हुए ;
मिलते हैं शब्द मुझे आग में नहाए हुए !
और तो और
यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्ही हो वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ !
कि मैं उसी का बच्चा हूँ !
अनाथ, वनैला .........
देता हूँ, उसे
वासना में डूबे,अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने .....
गीत सब मन सूबे, सपने—
इसी में सच्चा हूँ:
अकेला.......
तुम्हे क्या, तुम्हे क्या, तुम्हे क्या .....
अब इस प्रस्तुति पर टिप्पणी का सामर्थ्य कहाँ!!
जवाब देंहटाएंपढ़ लिया।
जवाब देंहटाएंपढ़ लिया बस, टिप्पणी करने योग्य नहीं हैं .....
जवाब देंहटाएंगहन बात ... इंसान के अवचेतन मन में चलते द्वंद को बखूबी कहा है अज्ञेय जी ने ..
जवाब देंहटाएंकविता में अनोखा नयापन है...अति सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंअज्ञेय जी के आगे तो मैं हमेशा नतमस्तक रहती हूँ.
जवाब देंहटाएंप्रत्येक शब्द गहन भाव समेटे हुये .. आभार ।
जवाब देंहटाएंtipaani ke liye mere paas na to shabd hain aur na hi is layak hu... to bas naman...
जवाब देंहटाएंअज्ञेय जी की रचना के सामने नमन करने के अलावा और कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं.
जवाब देंहटाएंkayi bar agey ji ki rachnao ko samajhna mushkil ho jata hai.
जवाब देंहटाएंsunder prastuti.
अज्ञेय जी को सादर नमन.
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