हिंदी दिवस के बहाने
अरुण चन्द्र रॉय
हिंदी दिवस की शुभकामनाएं! ठीक उसी भाव से जैसे हम आपको जन्म दिन की हार्दिक शुभकामना देते हैं. कई दिनों से लगातार देख रहा हूं कि हिंदी दिवस के विरोध में, विपक्ष में तरह तरह की बाते हो रही हैं. इन सबमे उलझने की बजाय मुद्दे पर चर्चा करें.
दिल्ली के दिल और सांस्कृतिक केंद्र श्री राम सेंटर में एक किताब की दुकान हुआ करती थी. वर्षों पुरानी दुकान थी वह. हिंदी की उत्कृष्ट पुस्तकें वहां मिल जाया करती थी. सभी साहित्यिक पत्रिकाएं वहां मिल जाया करती थी. बैठ कर पढने की सुविधा भी थी वहां. वाणी प्रकाशन इस दुकान का सञ्चालन करती थी. मैं जब से दिल्ली आया था नियमित जाता था वहां. कुछ साल पहले बंद कर दी गई. कोई शोर नहीं हुआ. जानकारी नहीं है कि किसी साहित्यकार, रंगमंच के पुरोधाओं ने इसके लिए आवाज़ उठाई हो. जबकि इस से इतर कॉफी होम को बंद होने से बचाने के लिए कितना शोर हुआ. बुद्धिजीवियों ने मार्च किये. मीडिया में कवरेज़ हुआ. दुखद तो यह है कि श्रीराम सेंटर देश के अग्रणी सांस्कृतिक केन्दों में से एक है, रोज़ ही यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं, अधिकांश हिंदी में होते हैं. किसी ने इस मुद्दे को नहीं उठाया. किताब की दूकान को बचाने की कोई कोशिश नहीं हुई जबकि श्रीराम सेंटर के भीतर हिंदी की पुस्तकों की यह दूकान किसी मायने में कॉफी होम से कम अहमियत नहीं रखती थी. मैंने कुछ अखबारों में पत्र लिखे लेकिन शायद छपा नहीं. मालूम नहीं कि कोई दूसरी दूकान है जहाँ एक स्थान पर हिंदी के किताबें मिल जाएँगी.
इसका कारण जानने के लिए हमें सदियों पहले जाना होगा. जब अँगरेज़ भारत में आये तो यहाँ की संस्कृति की गहराई से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें लग गया कि बिना संस्कृति प्रहार किये भारत को उपनिवेश बनाना संभव नहीं होगा. सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई . इसका उद्देश्य भारतीय भाषा और संस्कृति के प्रति नकारात्मक और पिछड़ेपन का भाव उत्पन्न करना था. जिसमे वे सफल रहे थे और आज तक हम उनके आरंभिक निवेश की भरपाई कर रहे हैं अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति उदासीनता का रवैया अपनाकर.
फिर कैसे मिली आज़ादी. एक गुजराती मोहनदास करमचंद गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका के वापिस लौटे और देश भर का भ्रमण किया तो उन्हें लग गया था हिंदी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा नहीं है जो देश की संस्कृति और आत्मा के इतने करीब हो. इसलिए उनके अधिकांश भाषण, लेखन हिंदी में हैं. यदि सांस्कृतिक उत्थान और जागरूकता नहीं आई होती, यदि भारतीयता की भावना जागृत नहीं हुई होती तो आज़ादी मिलनी मुश्किल थी. उस दौरान हिंदी भाषा की वकालत करने वाले अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी गैर हिंदी भाषी थे. इस लिए अभी देश में एक भाषाई क्रांति आनी बाकी है जो सही मायने में सच्ची स्वतंत्रता की ओर ले जाएगी.
कुछ दिनों पहले की बात है. मैं चेन्नई गया था और फिर वहां से पुदुचेरी. तमिलनाडु जाने से पहले तक मुझे लगता था कि वाकई हिंदी विरोधी हैं. लेकिन स्थिति बिल्कुल उलट है. ड्राइवर से लेकर दूकानदार तक, होटल वाले, छोटे छोटे ठेले वाले, नारियल वाले, कटहल वाले सब कामचलाऊ हिंदी जानते हैं. कम से कम अंग्रेजी से अधिक हिंदी जानते हैं. इस से मेरा मत बदला है कि आधा देश हिंदी विरोधी है. जिस तरह राजनीतिक रोटी सेंकने के कई मुद्दे होते हैं, भाषाई मुद्दा उनमे से एक है. इसे गलती कहेंगे या राजनीति हिंदी को दूसरी भारतीय भाषाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया गया है जबकि वास्तविकता इसके विपरीत हैं.
हिंदी बिना भारतीय भाषाओँ के हिंदी अधूरी है. सुना है आज से कोई तीस-चालीस साल पहले स्कूलों में मातृभाषा के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा को मैट्रिक स्तर पर पढाया जाता था जिसमे उर्दू, पंजाबी, तेलगु, तमिल, बंगाली आदि हुआ करते थे. इसके लिए पार्ट टाइम शिक्षकों की व्यवस्था की जाती थी. लेकिन आज वह व्यवस्था ख़त्म हो गई है. यदि भाषा पढाई भी जाती है तो फ्रेंच, स्पैनिश, चैनीज़ आदि आदि. इस से अपने ही देश के भूगोल और सांस्कृतिक से पहचान कम हो रही है. इससे प्रान्तों के बीच भाषाई और संस्कृतिक दूरी बढ़ी है. आज भी यदि देश के सभी राज्यों में मातृभाषा के अतिरिक्त एक और भारतीय भाषा को पढना अनिवार्य बना दिया जाय तो निश्चित ही इसका सबसे अधिक लाभ हिंदी को मिलेगा.
इतनी जटिलताओं के बाद भी हिंदी देश की आधे से अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जा रही है तो इसका श्रेय हमारी संस्कृति, विविधता और आर्थिक उन्नति को जाता है. आर्थिक उन्नति का सारा श्रेय नई तकनीक और अंग्रेजी को देना बेमानी होगा. मेरे एक करीबी मित्र हैं जो टेलीकाम इंजिनियर हैं. दुनिया के कई देश घूम आये हैं. बड़ी-बड़ी दूरसंचार कंपनियों के साथ काम कर चुके हैं अपनी खिचड़ी अंग्रेजी और ठेठ हिंदी के बदौलत. पंद्रह साल दूरसंचार के क्षेत्र में काम करने के बाद जब कहता हूं कि अब तो अंग्रेजी ठीक कर लो अपनी, हंस के कहते हैं भाई अपनी हिंदी लोग सीख रहे हैं.
तकनीक के क्षेत्र में किसी भाषा का न आना बाधक नहीं हो सकता. बस हमें चाहिए तो अपनी भाषा के प्रति सम्मान . यह एक जटिल बात है. जो पिछली तीन शताब्दियों से हमारी संस्कृति पर प्रहार कर रहा हो उसके ठीक होने में कुछ दशक तो लगेंगे ही. इस तरह मुझे लगता है हिंदी की दशा-दिशा सत्तर के दशक की तुलना में बेहतर है.
मेरे एक मित्र हैं श्री ताहिर . हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखते हैं. लखनऊ में बुक्स एंड बुक्स नाम की बड़ी पुरानी दुकान वाले परिवार से तालुक्क रखते हैं. देश की एक बड़ी विज्ञापन कंपनी के साथ क्रिएटिव डाइरेक्टर है. उन्होंने कभी कहा था कि अरुण जानते हो देश में पब्लिक स्कूल की परंपरा कैसे आई क्यों आई. क्योंकि अंग्रजो को उनकी तनख्वाह पर काम करने वाले भारतीय बाबुओं के बच्चों को आम भारतीय से अलग करना था. मुझे उनकी बात जंची. अँगरेज़ अपनी साजिश में सफल रहे और आज भी वह परंपरा जारी है. हिंदी के प्रति नीचता का भाव यहीं से शुरू होता है जो कालांतर में विभिन्न स्तर तक पहुचता है.
भारत में अंग्रेजी शिक्षा पर रोष जाहिर करते हुए मार्क टुली कहते हैं, "कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।"
बाजारीकरण के कई नुकसान हुए हैं लेकिन एक लाभ भी हुआ है कि हिंदी के लिए एक बाज़ार खुला है, नई दिशाएं बनी हैं. यह केवल इसलिए नहीं हुआ है कि हिंदी बोला जाने वाला भूभाग आर्थिक रूप से संपन्न है बल्कि ऐसा इसलिए हुआ है कि हिंदी पूरे देश से संपर्क बनाने में सक्षम है. यही सक्षमता हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिलाया है. हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा मिले या ना मिले इसके लिए सरकार द्वारा एक आयोग का गठन किया गया था. आयोग ने देश भर के विद्वानों, साहित्यकारों, आम जनता से संपर्क करने के बाद ही इस नतीजे पर पंहुचा कि देवनागरी लिपि में हिंदी देश की राजभाषा होगी. और १९६५ में १४ सितम्बर को हिंदी को आधिकारिक राजभाषा का दर्ज़ा मिला. जिस तरह देश में अन्य सैकड़ो ऐसे प्रावधान हैं जिनपर अमल नहीं होता है, जिनमे विरोधाभास हैं, उसी तरह हिंदी के साथ भी है और यह उपनिवेशवाद के असर के अतिरिक्त कुछ और नहीं.
हिंदी दिवस विशुद्ध रूप से एक सरकारी आयोजन है क्योंकि देश की भाषा, संस्कृति जैसे विषयों की जिम्मेदारी सरकार की और केवल सरकार की ही होती है. निजी क्षेत्र में यह दिवस तो मनाया ही नहीं जाता है क्योंकि इस दिवस के साथ बाज़ार नहीं जुड़ा है. बाज़ार तो मनाता है फादर्स डे, मदर्स डे, कपुल्स डे, अर्थ आवर, एन्वयोरेंमेंट डे, एनर्जी डे, वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे आदि आदि. इस बाज़ार को संस्कृति और भाषा के क्या लेना देना. चूँकि बाज़ार इस दिवस को तवज्जो नहीं देता हमें भी इस दिवस का कोई महत्व नहीं पता चलता है. जबकि सरकारी क्षेत्र में हिंदी के प्रयोग में धीमी किन्तु उल्लेखनीय प्रगति हुई है. एक स्पष्ट प्रगति तो सामने आती है कि सरकार जो कि इस देश का सबसे बड़ा विज्ञापन प्रदाता है, अपनी विज्ञापन राशि को अंग्रेजी और हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओँ के बीच समान रूप से खर्च करता है जो कि कुछ वर्ष पूर्व तक नहीं था, इस से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के अखबारों और अन्य मीडिया को बहुत संबल मिला है, उनमे प्रगति हुई है.
इसलिए आने वाली पीढी जो दुनिया देख रही है, उसे पता है बाकी दुनिया में अपनी मातृभाषा के प्रति कितना सम्मान है, इस से अपनी भाषा के प्रति भी सम्मान जग रहा है और उपनिवेशवादी मानसिकता से धीरे धीरे निकल रही है. इस लिहाज़ से मुझे तो हिंदी का भविष्य उज्जवल दिख रहा है.
हिंदी दिवस पर आपका पोस्ट अच्छा लगा । प्रत्येक देश की अपनी राष्ट्र भाषा है लेकिन दुख जो हम सबको वर्षों से साल रहा है वह कि आज की तिथि तक हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा न बन सकी । यह हमारे राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न है । दोष कहाँ है ! लार्ड मेकाले ने 1835 में Native Indians के लिए जिस शिक्षा पद्धति की नींव डाली आज भी वह पद्धति कुछ अपवादों को छोड़ कर उसी अवस्था में हमें या शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों को प्रभावित कर रही हैं । मेरी अपनी मान्यता है कि इस विषय पर भी आम सहमति के साथ राष्ट्रीय मुहिम छेड़ी जाने की आवश्यकता है । हिंदी दिवस पर आपको भी मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं । पोस्ट अच्छा लगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंअभी तो हिंदी दिवस कि शुभकामनायें स्वीकार करें .....लेख पर टिप्पणी इत्मीनान से करूँगा .....!
जवाब देंहटाएंठीक है। यह एकता का अभाव तो खाता ही रहेगा लोगों को और भाषा को भी।
जवाब देंहटाएंहिंदी दिवस की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंहिंदी दिवस की शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंहिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं------
जै हिन्दी, जै ब्लॉगिंग।
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।
बहुत ही सही आलेख -
जवाब देंहटाएंहिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत सही कहा है आपने ...बेहतरीन
जवाब देंहटाएंहिन्दी दिवस की शुभकामनाओं के साथ ...
इसकी प्रगति पथ के लिये रचनाओं का जन्म होता रहे ...
आभार ।
वंदना गुप्ता जी की तरफ से सूचना
जवाब देंहटाएंआज 14- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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हिंदी दिवस पर आपको भी शुभकामनाएं ...
जवाब देंहटाएंआज ऐसा लगता है कि पर्यावरण सरंक्षण, जल संरक्षण के साथ लोगो को अपनी भाषा के सरंक्षण के प्रति भी जागरूकता निर्माण करने की घड़ी आ गयी है ...
मैं चेन्नई गया था और फिर वहां से पुदुचेरी. तमिलनाडु जाने से पहले तक मुझे लगता था कि वाकई हिंदी विरोधी हैं. लेकिन स्थिति बिल्कुल उलट है. ड्राइवर से लेकर दूकानदार तक, होटल वाले, छोटे छोटे ठेले वाले, नारियल वाले, कटहल वाले सब कामचलाऊ हिंदी जानते हैं.
जवाब देंहटाएंहिंदी का भविष्य उज्जवल वाली आपकी बात यहाँ सच दिखाई दे रही है ....कई वर्ष पहले जब मैं चेन्नई गई थी तो रिक्शे वाले बिलकुल भी हिंदी नहीं बोल पा रहे थे जबकि टूटी फूटी अंग्रेगी तो वे बोल रहे थे पर आज आपकी पोस्ट ये बता रही है कि वहा हिंदी ने काफी प्रगति की है ये एक शुभ संकेत है .....
सुंदर पोस्ट। हिन्दी के शत्रु निहित स्वार्थों वाले भारतीय ही हैं।
जवाब देंहटाएंआर्चीज़ द्वारा निर्धारित और विज्ञापित कई दिवसों में तो हम बढ़-चढ कर भाग लेते हैं और इस दिवस को मनाने के नाम पर "भाग" लेते हैं..
जवाब देंहटाएंअरुण जी का आलेख विचारोत्तेजक है!! और बड़ी शान्ति मिली इसको पढकर!!
दक्षिण भारत में हिंदी बोलने वालों की तादाद बढ़ी है , जानकर अच्छा लगा ...वरना दक्षिण का हमारा अनुभव तो यही रहा कि बड़े शहरों में फिर भी लोंग हिंदी का प्रयोग कर लेते हैं , छोटे कस्बों में बहुत मुश्किल होती है!
जवाब देंहटाएंआभार एवं शुभकामनायें!
हिंदी दिवस की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंवस्तुतः,खासकर समाचार माध्यमों में जिस प्रकार की हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है,उसे देखते हुए हिंदी का भविष्य अंधकारमय ही लगता है। डर है,कहीं यह पाठ्यपुस्तक तक न सिमट कर रह जाए। इतना ज़रूर है कि कुछ लोग बीच-बीच में ढाढस बंधाते मिल जाते हैं कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। मगर,आप दस लाइन ढंग की हिंदी बोल कर देखिए किसी सार्वजनिक जगह पर,लोग आपका मुंह ताकते नज़र आएंगे क्योंकि अब बोलचाल में भी हम न तो पूरी हिंदी बोल पाते हैं,न ढंग की कोई अन्य भाषा। बस,कामचलाऊ ज्ञान है हमारा। उधर विदेश में हिंदी सम्मेलन,इधर अपने ही कार्यालय में टिप्पण-आलेखन के लिए संघर्षरत हिंदी अनुभाग।
जवाब देंहटाएंकुछ लोग अपनी एक यात्रा या घुमाई में दस आदमी से मिल के भाषा पर बड़े विद्वान ही बन जाते हैं। जैसे वे अधिकृत इतिहासकार हों और वही सत्य बता सकते हों। अब देखिए क्या होता है हिन्दी का।
जवाब देंहटाएं"जिस तरह राजनीतिक रोटी सेंकने के कई मुद्दे होते हैं, भाषाई मुद्दा उनमे से एक है. इसे गलती कहेंगे या राजनीति हिंदी को दूसरी भारतीय भाषाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया गया है जबकि वास्तविकता इसके विपरीत हैं."
जवाब देंहटाएंआपकी इस राय से सहमत हूं क्योंकि कई बार मैंने लिखा और कई मौकों पर विचार व्यक्त किया परंतु कुछ लोगों को सकारात्मक और सच्चा समाचार रास ही नहीं आता है।
मेरा बंगलौर अक्सर जाना आना होता है। रास्ते में आंध्र भी पड़ता है। एकाध लोग कट्टरवादी मिल जाते हैं। परंतु उन्हें नज़र अंदाज़ करना चाहिए।
सकारात्मक और मनोवृत्ति परिवर्तन में सहायक पोस्ट।
हिंदी दिवस पर आपको भी शुभकामनाएं .
जवाब देंहटाएं.बेहतरीन आलेख -