तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !
अनामिका
साथियो, नमस्कार!
१६ सितम्बर, २०११ , शुक्रवार को इसी राजभाषा पर मैंने एक पोस्ट 'यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है ?' शीर्षक से महादेवी वर्मा जी की जीवन के कुछ रोचक प्रसंग प्रस्तुत किये थे. उन्ही को आगे बढ़ाते हुए आगे के लेखन को विस्तार देती हूँ.....
पांच वर्ष की होते होते आपको भोपाल तथा इंदौर की यात्रा करनी पड़ी, जहाँ 'अतीत के चलचित्र' का 'रामा' इन्हें मिला. छोटे भाई की स्पर्धा में रामा को आप साम-दाम-दंड-भेद के द्वारा केवल अपने लिए 'राजा भैया' कहने के लिए किस तरह बाध्य कर देती थीं, इसकी भी एक रोचक कहानी है. वय की गति के साथ जीवन विस्तार की छाया में यह घर की शिशु कुशलता बगीचे के फूलों और पड़ोसियों के घर तक पहुँचने लगी.
माँ ने चाहा कि बेटी को कुछ समय खिलौनों-गुड़ियों में उलझाये रखें और कुछ समय गृह कार्य की शिक्षा दें, यदि यह ना हो सके तो पाटी पकड़ा कर स्कूल ही भेज दें. महादेवी जी इन सब चक्करों में नहीं पड़ना चाहती थीं. फूल, तितली, हरी दूब और फर्श पर या दीवार पर कुछ उकेरने के लिए कोयला और सिन्दूर के अतिरिक्त उन्हें और कुछ भी ना चाहिए था. परेशान होकर छोटे भाई और बहन की ओर संकेत करते हुए माँ ने कहा – “खेलना छोटों का काम है, बड़ों का पढना या काम करना.”
इन्होंने पढना पसंद किया. आर्य समाजी संस्कारों के साथ इन्हें मिशन स्कूल में भेज दिया गया. घर में हिंदी, उर्दू, संगीत और चित्रकला के अध्ययन का प्रबंध कर दिया गया.
अध्ययनारम्भ के दिन ही आप थोड़ी देर तक अध्यापक के पास बैठी रहीं और फिर छुट्टी की मांग पेश की. आवश्यकता पूछे जाने पर तपाक से उत्तर दिया – “फूल तोड़ लाऊं, नहीं तो माली तोड़कर बाबू (पिताजी) के फूलदान में लगा देगा, जहाँ वे सूख जाते हैं.”
'तो क्या तुम्हारे तोड़ने से नहीं सूखते ?'
“सूखते तो हैं, पर भगवानजी पर चढ़ने के बाद फिर जिज्जी (माँ) उन्हें नदी भेजवा देती है. माली कूड़े में फेंक देता है और बाबू उन्हें उठाने भी नहीं देते.”
पंडित जी को ज्ञात हुआ कि बालिका केवल बातचीत में ही नहीं, पढने-लिखने में भी पर्याप्त प्रवीण है. लड़कियां और हो ही क्या सकती हैं, पढ़ाकू या लड़ाकू . महादेवी जी ने दोनों रूपों में दक्षता प्राप्त की है. लड़ाकू रूप उनके सामाजिक विद्रोह और नारी विषयक निबंधों में शतश: मुखरित है और पढ़ाकू रूप तो जग - जाहिर है.
'रामा' नामक संस्मरण - रेखाचित्र में इन्होने अपने बचपन की अनेक मनोरंजक घटनाओं का उल्लेख किया है, जिनसे इनके स्वभाव और प्रबुद्धता का पता चलता है. दशहरे के मेले में जाने के लिए रामा ने एक को कंधे पर बिठाया और दूसरे को गोद में ले लिया. इन्हें उँगली पकडाते हुए बार - बार कहा – “उंगरिया जिन छोड़ियो राजा भैया .” सिर हिलाकर स्वीकृति देते हुए भी इन्होने अंगुली छोड़कर मेला देखने का निश्चय कर लिया. भटकते भूलते और दबने से बचते बचते जब इन्हें भूख लगी तब रामा का स्मरण अनिवार्य हो उठा.
एक मिठाई की दूकान पर खड़े होकर अपनी सारी उद्दिग्नता छिपाते हुए इन्होने सहज भाव से प्रश्न किया – “क्या तुमने रामा को देखा है ? वह खो गया है .”
बूढ़े हलवाई ने वात्सल्य मुग्ध होकर पूछा – “कैसा है तुम्हारा रामा ?.”
इन्होने ओठ दबाकर धीरज के साथ कहा – “बहुत अच्छा है .”
हलवाई इस उत्तर से क्या समझता ? अंततः उसने आग्रह के साथ विश्राम करने के लिए वहीँ बिठा लिया. महादेवी जी ने लिखा है - ' मैं हार तो मानना नहीं चाहती थी, परन्तु पाँव थक चुके थे और मिठाईयों से सजे थालों में कुछ कम निमंत्रण नहीं था. इसीसे दुकान के कोने में बिछे टाट पर सामान्य अतिथि की मुद्रा में बैठकर मैं बूढ़े से मिठाई रुपी अर्ध्य को स्वीकार करते हुए उसे अपनी महान यात्रा की कथा सुनाने लगी.' संध्या समय जब सबसे पूछते पूछते बड़ी कठिनाई से रामा उस दुकान के सामने पहुंचा, तब इन्होने विजय-गर्व से फूलकर कहा – “तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !.”
छाया की आंखमिचौनी
छाया की आंखमिचौनी
मेघों का मतवालापन,
रजनी के श्याम कपोलों
पर ढरकीले श्रम के कन ;
फूलों की मीठी चितबन
नभ की ये दीपावलियाँ,
पीले मुख पर संध्या के,
वे किरणों की फुलझड़ियाँ ;
विधु की चांदी की थाली
मादक मकरंद भरी सी,
जिसमे उजियारी रातें,
लुटती घुलतीं मिसरी सी !
भिक्षुक से फिर आओगे,
जब लेकर यह अपना धन,
करुणामय तब समझोगे
इन प्राणों का महंगापन !
क्यों आज दिए देते हो
अपना मरकत - सिंहासन ?
यह है मेरे मरू-मानस
का चमकीला सिकता कन !
आलोक यहाँ लुटता है
बुझ जाते हैं तारागण,
अविराम जला करता है
पर मेरा दीपक सा मन !
जिसकी विशाल छाया में
जग बालक सा सोता है,
मेरी आँखों में वह दुःख
आंसू बनकर खोता है !
जग हंसकर कह देता है
मेरी आँखे हैं निर्धन,
इनके बरसाए मोती
क्या वह अब तक पाया गिन ?
मेरी लघुता पर आती
जिस दिव्य लोक को ब्रीड़ा
उसके प्राणों से पूछो
वे पाल सकेंगे पीड़ा ?
उनसे कैसे छोटा है
मेरा यह भिक्षुक जीवन
उनमे अनंत करुणा है
इसमें असीम सूनापन !
महादे देबी वर्मा के बारे में बहुत अच्छी जानकारी से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद । अभिव्यक्ति का स्वरूप 'तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा ' को जीवंतता प्रदान कर देता है । महादेवी वर्मा के मन में लिखते समय जो भाव उभरते थे वे उनके निजी न होकर इसका प्रसार सृष्टि के कण-कण को प्रभावित कर जाता था चाहे वह कविता हो,संस्मरण हो या रेखाचित्र । मेरे पोस्ट पर आकर मुझे भी प्रोत्साहित करें ताकि हम अपने अस्तित्व को भी समझ सकें । धन्यवाद अनामिका जी ।
जवाब देंहटाएंएक लम्बे समय के बाद महादेवी जी को पढ़ने का अवसर मिला. उनके जीवन के विविध प्रसंगों की स्पष्ट छाप उनके लेखन में उभर कर आती है.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद अनामिका जी !
बाल-मन की निश्छल बातें। भावों की वह कोमलता, अक्सर, कहीं गुम हो गई लगती है। अब तो माता-पिता भी इतराते नहीं थकते कि देखो,अभी से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंमहादेदेवी वर्मा पर रोचक आलेख एवं भावपूर्ण सुन्दर कविता की प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी पर यह बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी पर इतना कुछ पढ़ना बहुत ही सुखद लगा ... उनके भावों को शब्दों में उतरा है आपने ..
जवाब देंहटाएंमहादेवि वार्माजी के बारे में रोचक प्रसंग पढ़कर बहुत आनंद आया ...
जवाब देंहटाएंअब लगता है कि यह चिट्ठा हिन्दी के लिए स्मरणीय बनकर ही रहेगा।
जवाब देंहटाएंसुन्दर विस्तृत प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी पर यह बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंजो आनंद आया, शब्दों में नहीं बता सकती...
जवाब देंहटाएंकोटि कोटि आभार आपका....
महादेवी जी को कलम में बाँध लिया ....
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी के बारे में जितनी बार भी पढ़ा जाये हर बार कथ्य नवीन एवं रोचक लगता है ! आभार आपका जो आपके माध्यम से इन बेहतरीन संस्मरणों को दोबारा पढ़ने का अवसर मिल रहा है ! बहुत बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंBahut aanand aa raha hai in sansmaranon ko padhne me!
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी के जीवन के इन प्रसंगों को नहीं पढ़ा था पहले} काफ़ी रोचक वर्णन है। आपकी शैली ने इसमें चारचांद लगा दिए हैं।
जवाब देंहटाएंमहादेवी वर्मा जी के बारे में रोचक प्रसंगों को जानकर बहुत अच्छा लगा..बहुत सुन्दर आलेख..
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