हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, एक ऐसे स्वनामधन्य और हिन्दी के पाणिनि कहे जानेवाले व्यक्ति, पर कुछ लिखने के लिए मेरी लेखनी सहम रही है। क्योंकि महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जैसे अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इनकी की गयी उपेक्षा पर राहुल जी काफी व्यथित थे। वे लिखते हैं-
“क्या यह दुनिया एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त करने लायक है, जिसमें अनमोल प्रतिभाओं को काम करने का अवसर न मिले और ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे गुलछर्रे उड़ाते राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंच पर अपना नाच दिखाएँ?”
आचार्य जी की पुस्तक भारतीय भाषाविज्ञान की भूमिका में राहुल जी लिखते हैं- “आचार्य वाजपेयी हिन्दी के व्याकरण और भाषाविज्ञान पर असाधारण अधिकार रखते हैं। वे मानों इन्हीं दो विधाओं के लिए पैदा हुए हैं। ................. मेरा बस चलता, तो वाजपेयी जी को अर्थचिन्ता से मुक्त करके, उन्हें सभी हिन्दी (आर्य भाषा वाले) क्षेत्रों में शब्द-संचय और विश्लेषण के लिए छोड़ देता। उन पर कोई निर्बन्ध (कार्य करने की मात्रा का) न रखता। जिसके हृदय में स्वतः निर्बन्ध है, उसे बाहर के निर्बन्ध की आवश्यकता नहीं।“
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के स्नेही और प्रेरक व्यक्तित्वों में पं.अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी, पं.कामताप्रसाद गुरु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डॉ. अमरनाथ झा के नाम उल्लेखनीय हैं। अपनी पुस्तक हिन्दी शब्दानुशासन को समर्पित करते हुए आचार्य जी लिखते हैं-
जो इस कृति के प्रेरक कर्ता,
जो हैं इस चिन्तन के बीज;
उन्हें छोड़ फिर और किसे यह,
करूँ समर्पित उनकी चीज ?
पुस्तक में समर्पण के इन शब्दों के नीचे उपर्युक्त महानुभावों के नाम दिए गए हैं और ऊपर उनकी फोटो। इसके अतिरिक्त भी अपने समकालीन हिन्दी एवं अन्य विद्वद्वरों के प्रति भी आचार्यजी का और उनके प्रति उन विद्वद्वरों का सम्मान था। जिस क्षेत्र में आचार्यजी काम कर रहे थे, उसमें उनका कोई सानी नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि उनके विरोधी नहीं थे। आचार्यजी एक अक्खड़ स्वभाव के व्यक्तित्व थे और अपने सिद्धांत के कट्टर। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक था। उन्हें चाहने वाले भी उनके साथ असहज हो जाया करते थे। एक अवसर पर सांकृत्यायन जी ने उन्हें दुर्वासा की संज्ञा दी है।
आचार्यजी मात्र एक वैयाकरण ही नहीं, बल्कि एक सशक्त आलोचक भी थे। अपनी पुस्तक हिन्दी निरुक्त के प्रथम संस्करण की भूमिका में (1949) वे लिखते हैं कि “…………. इस देश के अनेक आधुनिक “आचार्य” लोगों ने यह लिख दिया कि भाषा-विज्ञान का उदय सर्वप्रथम यूरोप में हुआ! यही बात आलोचनात्मक साहित्य के लिए भी कही और लिखी गयी थी, पर जब मैंने, अब से दस-पन्द्रह वर्ष पहले “माधुरी” में ‘आलोचना का जन्म और विकास’ शीर्षक लेख छपाकर उस भ्रांत धारणा का निराकरण किया, तब लोगों ने वैसा लिखना बन्द किया!“
आचार्यजी की लेखनी जिस पथ पर चली, मौलिकता की छाप छोड़ गयी। उन्होंने भाषा को निरूपित करने के अतिरिक्त पत्रकारिता, काव्यशास्त्र, इतिहास आदि विषयों को अपनी लेखनी से आयाम दिया है। पर, हिन्दी भाषा को दिए गए योगदान के लिए वे अधिक याद किए जाते हैं और शायद इसीलिए लोग उन्हें हिन्दी का पाणिनि कहते हैं।
अपनी लेखनी से मील का पत्थर खींचने वाले आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का जीवनवृत्त कहीं एक स्थान पर उपलब्ध नहीं है। इस सम्बन्ध में महापंडित राहुल सांकृत्यायन जा का एक लेख हिन्दी शब्दानुशासन की पूर्वपीठिका के रूप में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी शीर्षक से लिखा है। इसमें हिन्दी के लिए आचार्यजी द्वारा की गयी सेवाओं का उल्लेख किया गया है। सम्भवतः वे आचार्यजी के जीवन-वृत्त पर प्रकाश डालना भी चाहते थे, जो इतिहासकारों को बहुत प्रिय है। अतएव उन्होंने पत्र लिखकर उनसे उनकी जन्मतिथि आदि पूछी, जिसका उल्लेख करते हुए राहुल जी लिखते हैं कि “इस लेख को उनकी छोटी-सी जीवनी नहीं बनाना चाहता, फिर भी जन्मतिथि और जन्मस्थान दे देना चाहता था। जानता था कि वे ऊपर ही ऊपर मेरा कुछ लिखना पसन्द न करेंगे। पर मैं दुर्वासा के अभिशाप को सिर-माथे पर चढ़ाने के लिए तैयार था। उन्होंने मेरी जिज्ञासा की पूर्ति निम्न पंक्तियों में की (26-0754)”- ‘आपने मेरी जन्मतिथि पूछी है, जो मुझे मालूम नहीं; क्योंकि वह सब बताने वाले मेरे माता-पिता मुझे दस वर्ष का छोड़ स्वर्गवासी हो गए थे। अन्दाजा यह है कि इस सदी से दो-तीन वर्ष आगे हूँ। ..... मैं 56-57 का होऊँगा। पर यह सब आप किस लिए पूछ रहे हैं? मेरा व्यक्तित्व जो कुछ है, सब जानते हैं। कहीं कुछ छपाना अनावश्यक है”।
कुल मिलाकर यह कि आचार्यजी ने कभी अपनी पब्लिसिटी नहीं देखनी चाही। हाँ, वे अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग अवश्य थे। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि सनातनी होने के कारण या किसी और कारण से वे अक्खड़ स्वभाव के थे। राहुल जी इसी लेख में दसवीं सदी के अपभ्रंश के महान कवि पुष्पदन्त से आचार्यजी की तुलना करते हुए लिखते हैं कि- ‘गर्व करता है’, ‘झगड़ालू है’ आदि कह कर हम किशोरी दास जी जैसी प्रतिभाओं की उपेक्षा कर के आने वाली पीढ़ियों के सामने मुँह नहीं दिखा सकते।............ वाजपेयी जी भी ‘अभिमानमेरु’ हैं।
इन सब बातों को पढ़कर ऐसा लगता है कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भले ही एक व्यवहारकुशल व्यक्ति न रहे हों, किन्तु उनकी रचनाओं को देखने से लगता है कि वे लोगों के युक्ति-संगत विचारों को कितनी नम्रता से स्वीकार करते थे। जिनके विचारों को उन्होंने स्वीकार नहीं किया, तो उसके पीछे उनके अकाट्य तर्क थे, जिसका उल्लेख आगे अवसर आने पर किया जाएगा।
इन्टरनेट पर उपलब्ध सामग्री के अनुसार संक्षेप में उनका जीवन-वृत्त यों है-
आचार्यजी का जन्म कानपुर के मंधना के पास रामनगर नामक गाँव में सन् 1897 या 1898 में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्ष-दीक्षा गाँव मे हुई। इसके बाद इनकी संस्कृत की पढ़ाई भगवान कृष्ण की क्रीड़ा-भूमि वृन्दावन में हुई। फिर वाराणसी से प्रथमा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से विशारद और शास्त्री की परीक्षा सम्मान सहित उत्तीर्ण की। हिमाचल प्रदेश के सोलन में इन्होंने अध्यापक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। संस्कृत के विद्वान होते हुए भी इनका झुकाव हिन्दी भाषा में काम करने की ओर हुआ। हिन्दी में कार्य करने के लिए सम्भवतः प्रकृति ने इन्हें नियुक्त किया था। अतएव हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद से इन्होंने हिन्दी की विशारद और उत्तमा (साहित्य रत्न) की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
हिन्दी में भाषा के क्षेत्र में इनका अपूर्व योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त इन्होंने आलोचना, काव्यशास्त्र, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में भी योगदान दिया। पर हिन्दी भाषाविज्ञान, व्याकरण, वर्तनी, हिन्दी शब्दों का विश्लेषण आदि के क्षेत्र में इनका इतना अभूतपूर्व योगदान रहा कि लोग इन्हें हिन्दी का पाणिनि की संज्ञा से विभूषित करना अधिक उपयुक्त समझे। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता आन्दोलनों, अन्य सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में भी आचार्यजी आवश्यकता के अनुसार अपनी भूमिका निभाने में पीछे नहीं रहे। इन्होंने घर छोड़ने के बाद अपने जीवन का अधिकांश समय हरिद्वार के पास कनखल में बिताया और वहीं 12 अगस्त, 1981 को अपनी इहलीला समाप्त की।
अगले अंक में इनकी रचनाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास रहेगा।
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ऐसे आलेख ब्लागजगत की थाती हैं -परम आदरणीय स्वर्गीय वाजपेयी जी की एक लघु पुस्तिका ,हिन्दी व्याकरण मेरे बुक सेल्फ में है ...जो मेरे संग्रह की अमूल्य पुस्तकों में से है!आपका बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंहिंदी साहित्य में कई नाम यूं ही गुमनाम है. आपका यह आलेख भूले बिसरे पथ को आलोकित कर रहा है
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा ये सब। किशोरी जी का भाषाविज्ञान वाला लिखा पढ़ना चाहूंगा। आप इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी के बारे में जान कर अच्छा लगा ... सराहनीय लेख ..
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन के लिए बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंएक महान वैयाकरण का इस ब्लॉग के माध्यम से परिचय, एक अनमोल अनुभव है. मैं स्वयं को इन अर्थों में भाग्यशाली मानता हूँ कि आचार्य जी के श्रीमुख से मुझे इनका परिचय पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी! आभार आपका!
- सलिल
इतने महान हस्ती से हमारा परिचय कराया ....आभार आपका
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...वाह!
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख भूले बिसरे पथ को आलोकित कर रहा है| आभार|
जवाब देंहटाएंएक महान मनिषी के बारे में इस आलेख को प्रस्तुत कर, राय जी, आपने इस ब्लॉग की गरिमा को बढ़ाया है।
जवाब देंहटाएंदो पुस्तकें इनकी पास में थीं, हिन्दी शब्दानुशासन और संस्कृति का पांचवां अध्याय। आपके इस लेख को पढ़कर उनका पठन कर रहा हूं।
बहुत बहुत आभार इस विराट व्यक्तित्व से परिचित करवाने के लिए...
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरीदास वाजपेयी के बारे में जान कर सुखद लगा ...बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है यह.
जवाब देंहटाएंजनता सरकार के प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई आचार्य किशोरी दास बाजपेयी जी की सीट पर खुद पुरस्कार देने गए इसी से उनके व्यक्तित्व का आभास होता है। विस्तृत जानकारी काफी मूल्यवान है।
जवाब देंहटाएंमाथुर साहब, आपने बिलकुल सही कहा। सुना है कि सरकारी आमंत्रण पर वे दिल्ली तो चले गए थे। किन्तु मंच तक जाने के लिए मना कर दिया। तो तदानीन्तन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने उनकी सीट पर जाकर उनका सम्मान किया था।
जवाब देंहटाएंसार्थक एवम् समृद्धशाली लेखन के लिये बहुत बहुत बधाई... आचार्य परशुराम जी।
जवाब देंहटाएंहिंदी के पाणिनि के योगदान को पढ़ कर अभिभूत हुआ।
जवाब देंहटाएं●ऐसे अक्खड़ मनीषी हिन्दी में दूसरे नहीं । मैने उनकी सीमेन्ट स्टेच्यू भी तैयार की ।
जवाब देंहटाएं●ऐसे अक्खड़ मनीषी हिन्दी में दूसरे नहीं । मैने उनकी सीमेन्ट स्टेच्यू भी तैयार की ।
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