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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये… … दुष्यंत कुमार


 
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

दुष्यंत कुमार

11 टिप्‍पणियां:

  1. वैसे तो दुष्यंत जी की हर ग़ज़ल लाजवाब हैं, पर यह मुझे खास पसंद है।
    आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए।

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  2. आभार इसके लिए। दुष्यंत कुमार की तो बात ही निराली है। ये तो मशहूर रचना है इनकी।

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  3. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना , बधाई

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  4. मेरी प्रिय कविता को इस मंच पर लाने के लिए धन्यवाद...

    जवाब देंहटाएं
  5. सारगर्भित ग़ज़ल परोसने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. वकाई दुष्यंत जी की हर गजल ला जवाब है इस प्रस्तुति के लिए आपका आभार
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  7. दुष्यंत जी का तो एक एक शब्द वजनदार होता है.

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