कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
दुष्यंत कुमार
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये… … दुष्यंत कुमार
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वैसे तो दुष्यंत जी की हर ग़ज़ल लाजवाब हैं, पर यह मुझे खास पसंद है।
जवाब देंहटाएंआभार आपका इस प्रस्तुति के लिए।
आभार इसके लिए। दुष्यंत कुमार की तो बात ही निराली है। ये तो मशहूर रचना है इनकी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत श्रेष्ठ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना , बधाई
जवाब देंहटाएंमेरी प्रिय कविता को इस मंच पर लाने के लिए धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंसारगर्भित ग़ज़ल परोसने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंवकाई दुष्यंत जी की हर गजल ला जवाब है इस प्रस्तुति के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंसमय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
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दुष्यंत जी का तो एक एक शब्द वजनदार होता है.
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