कष्ट का कोई अनुभव नहीं
प्रस्तुत कर्ता – मनोज कुमार
गांधी जी को बीमारों की सेवा करने का शौक तो बचपन से ही था। कोई अत्यंत बीमार हो और मृत्यु शय्या पर हो, और गाधी जी से मिलना चाहता हो तो असुविधा और कष्ट बर्दाश्त करके भी रोगी से मिलने चले जाते थे।
दिल्ली में एक मरणासन्न रोगिणी थीं। रोग से लड़ते-लड़ते उनके शरीर का ह्रास हो चुका था। केवल कुछ सांसें बाक़ी थीं। उन्होंने जीवन से बिदाई ले ली थी। लम्बी यात्रा करनी है ऐसा मानकर राम-राम करते अपने अंतिम दिन काट रही थी। रोगिणी ने घनश्यामदास बिड़ला से कहा, “क्या गांधी जी के दर्शन भी हो सकते हैं? जाते-जाते अन्त में उनसे मिल तो लूं।”
उन दिनों गांधी जी दिल्ली के आसपास भी नहीं थे। उनका दर्शन असम्भव था, पर अंतिम सांसें गिनते प्राणी की आशा पर पानी फेरना उचित न समझते हुए बिड़ला जी ने कहा, “देखेंगे। आपकी इच्छा ईश्वर शायद पूरी कर दे।”
दो दिनों बाद बिड़ला जी को सूचना मिली कि गांधी जी कानपुर से दिल्ली होते हुए अहमदाबाद जा रहे हैं। जिस गाड़ी से वे आ रहे थे वह सुबह चार बजे दिल्ली पहुंचती थी। अहमदाबाद की गाड़ी पांच बजे छूटती थी। केवल घण्टे भर का समय था। बीमार महिला दिल्ली से सोलह किलोमीटर की दूरी पर थी। एक घंटे में रोगी से मिलना और वापस स्टेशन पहुंचना लगभग असंभव था।
जाड़े का मौसम था। हवा काफ़ी तेज़ थी। उन दिनों मोटर गाड़ियां खुली छत वाली हुआ करती थीं। गांधी जी को सवेरे-सवेरे ऐसी गाड़ी में बत्तीस किलोमीटर का सफ़र कराना भी भयानक ही था। गांधी जी आ रहे हैं यह भी उस रोगिणी को मालुम नहीं था। इन सारी परिस्थिति के बीच उस बीमार महिला की गांधी जी की अंतिम इच्छा बिड़ला जी के सम्मुख थी। उन्होंने गांधी जी के गाड़ी से उतरते ही दबे स्वरों में पूछा, “आप आज ठहर नहीं सकते?”
गांधी जी ने कहा, “ठहरना मुश्किल है।”
बिड़ला जी हताश हो गये।
तुरत ही गांधी जी ने पूछा, “ठहरने के बारे में क्यों पूछा तुमने?”
बिड़ला जी ने कारण बताया। गांधी जी ने सुनते ही कहा, “चलो, अभी चलो!”
बिड़ला जी ने हिचकिचाते हुए कहा, “पर मैं आपको इस जाड़े में, ऐसी तेज़ हवा में, सुबह के वक़्त मोटर में बिठाकर कैसे ले जा सकता हूं?”
गांधी जी ने सहज भाव से कहा, “इसकी चिंता छोड़ो। मुझे मोटर में बिठाओ। समय खोने से क्या लाभ? चलो, चलो।”
बिड़ला जी ने गांधी जी को मोटर में बैठाया। जाड़ा और ऊपर से पैनी हवा बेरहमी से अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे। सूर्योदय तो अभी हुआ नहीं था। रुग्णा के घर वे ब्रह्ममुहूर्त में वे पहुंचे। रुग्णा शय्या पर पड़ी ‘राम-राम’ जप रही थी। गांधी जी उसकी चारपाई के पास पहुंचे। बिड़ला जी ने उससे कहा, “गांधी जी आए हैं।”
उस महिला को विश्वास नहीं हुआ। हक्की-बक्की रह गई वो। सकपकाकर उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी। पर उसमें शक्ति कहां थी? उसकी आंखों से दो बूंदें चुपचाप गिर गईं। उसकी आत्मा को क्या सुख मिला उसकी आंखें बता रही थीं।
वापस होत-होते गांधी जी की गाड़ी दिल्ली से छूट चुकी थी। मोटर से सफ़र करके आगे के स्टेशनों पर उन्होंने गाड़ी पकड़ी। गांधी जी को कष्ट तो हुआ, पर रोगी को जो शान्ति मिली, उस सन्तोष में गांधी जी को कष्ट का कोई अनुभव नहीं था।
इसलिए तो दूसरा गाँधी नहीं हो सका .
जवाब देंहटाएंसच्चा सुख तो इसी मे है। "गांधी जी" तो वाकई संत थे…सुंदर संस्मरण के लिये बहुत बहुत बधाई व आभार।
जवाब देंहटाएंऐसे प्रसंगों से भरा था गाँधीका जीवन…प्रेरक…
जवाब देंहटाएंअपने कष्ट की परवाह किये बिना दूसरों के बारे में सोचना , ऐसे व्यक्तित्व दुर्लभ ही तो है ...
जवाब देंहटाएंऐसे न जाने कितने क्षण हैं जो गाँधी जी के नाम के आगे "महात्मा" "बापू" जैसे शब्दों को सार्थक करते हैं ...हाँ अब ऐसे लोग तो सपना हैं...प्रेरक प्रसंग
जवाब देंहटाएंयक़ीन जानिए,वह क्षण गांधीजी के लिए कहीं अधिक अहम रहा होगा क्योंकि मृत्यु को आप जितनी बार क़रीब से देखते हैं,उसके प्रति निर्भयता उतनी ज्यादा बढ़ती है। और,जिसे मृत्यु का भय नहीं होगा,वही वह साहस जुटा पाता है जिसकी ज़रूरत किसी गांधी को होती है।
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंगों से भरा था गाँधीका जीवन..
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग!! सदियों में पैदा होते हैं ऐसे युगपुरुष!!
जवाब देंहटाएंगांधी जी देश व दूसरों के लिए जिए। आज के तथाकथित गांधीवादी छद्म रूप से अपने लिए लड़ रहे हैं। पहले हम समाज बाद में की संस्कृति का अनुसरण करते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अद्भुत संस्मरण।
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