फूलहार से स्वागत
प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार
बात आज़ादी मिलने के कुछ महीने पहले की है। बापू नोआखाली के गांवों का दौरा कर रहे थे। जब वे देवीपुर पहुंचे तो गांव के लोगों ने उनके स्वागत के लिए खूब सजावट कर रखी थी। उसमें डेढ़-दो सौ रुपयों का ख़र्चा हुआ होगा। लोगों ने खास चांदपुर से फूल-ज़री, रेशम की पट्टियां, लाल-पीले-हरे काग़ज़ आदि से गांव को सजाया था। इसके अलावा उन्होंने तेल के दीये भी जलाये थे।
यह सब देख कर बापू काफ़ी गंभीर हो गए। वहां के मुख्य कार्यकर्ता को उन्होंने बुलवाया। उससे पूछे, “इस सजावट के लिए तुम पैसा कहां से लाए?”
कार्यकर्ता ने जवाब दिया, “आपके चरण हमारी धरती पर कहां बार-बार पड़ते हैं? इसलिए हम हिन्दुओं में से हरेक ने आठ-आठ आने दिये, और जो दे सकता था उससे ज़्यादा भी दिये। इस तरह क़रीब तीन सौ रुपये इकट्ठे किये गए। उसी से हम इन चीज़ों को ख़रीद कर लाये।”
यह सुनकर बापू को और भी चिढ़ हुई। उन्होंने कहा, “तुम्हारी की हुई यह सजावट कुछ ही देर में कुम्हला जायेगी। इससे तो मुझे यही लगता है कि तुम सब मुझे धोखा दे रहे हो। और मेरी हिम्मत पर यह सब ठाटबाट कर के तुम क़ौमी झगड़े को और भी बढ़ावा दे रहे हो। क्या तुम नहीं जानते कि मैं तो इस समय आग की लपलपाती ज्वाला से घिरा हुआ हूं?
“तुम लोगों ने जितने फूलों के हार पहनाए हैं, उनके बजाय यदि उतने ही सूत के हार पहनाते तो मुझे रंज न होता। क्योंकि सूत के हारों से सजावट भी होती है और बाद में वे कपड़े बनाने के काम आते हैं, वे फ़िज़ूल नहीं जाते।
“मुझे लगता है इस गांव में पैसे बहुत हैं! नहीं तो ऐसे मुश्किल की घड़ी में यों हार-तोरण लगाना तुम्हें नहीं सूझता। अगर तुम लोगों ने मेरे प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए यह सब किया है, तो यह ग़लत है। इससे ज़रा भी प्रेम प्रकट नहीं होता। इस सजावट में विलायती मिलों का रेशम और रिवन वगैरा कैसे लगाया तुम लोगों ने? मेरी दृष्टि में यह सब दुखदायी है। न जाने मुझे क्या-क्या देखना बदा है!”
बेचारे कार्यकर्ता को क्या पता था कि बापू को इतना दुख होगा। वे वहां से गए और आधे घंटे में सब सजावट निकाल डाली। जो-जो चीज़ें काम में ली जा सकती थीं वे ले ली गईं। हारों में जितना तागा काम में लिया गया था, बापू ने सबका एक बंडल बनाने के लिए कहा। वह बंडल काफ़ी बड़ा था। वह लोगों को सीने के काम में लेने के लिए दिया। उस बंडल में क़रीब 15-20 रील तागा था। अगर बापू इतना न कहते, तो इतना तागा बेकार चला जाता। उसके बाद गावों में हमेशा हाथ कते सूत के हारों से बापू का स्वागत किया जाता रहा। वह सूत क़रीब पांच थानों का इकट्ठा हुआ था। उसका कपड़ा बुनवाकर ग़रीबों में बांट दिया गया।
बापू ग़रीबों के ऐसे संगी थे!
लेकिन गांधीजी के चेलों ने तो चापलूसी की सारी ही दीवारे तोड़ दी हैं। सूत की माला पहनने से ही कुछ नहीं होता, आज देखो सारा हिन्दुस्थान गाँधी के नाम से अटा पड़ा है।
जवाब देंहटाएंकाश फिजूलखर्ची पर आज किसी नेता की नज़र जाती ... अब तो अनशन पर ही करोड़ों रुपया खर्च कर दिया जाता है ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंसमय- समय पर मिले आपके स्नेह, शुभकामनाओं तथा समर्थन का आभारी हूँ.
प्रकाश पर्व( दीपावली ) की आप तथा आप के परिजनों को मंगल कामनाएं.
दीपावली की शुभकामनाएं ||
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति की बहुत बहुत बधाई ||
यह वाकया पढ़ा था पहले भी…इसमें एक और बात थी कि आयोजक से गाँधी जी पूछते हैं कि वह तो गाँधी जी का लिखा पढ़ता है, फिर ऐसा क्यों?…
जवाब देंहटाएंवे सबके बापू थे ..
जवाब देंहटाएं.. सपरिवार आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
बहुत अच्छा व संदेशपूर्ण लेख,आपने सही कहा बापू सदा दूसरोँ के लिए व हितकारी ही सोचते करते थे इसिलिये वो राष्ट्रपिता व महात्मा थे।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अनुकरणीय प्रसंग है।
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय!
जवाब देंहटाएंपर उनके नाम को तो आज बेचा जा रहा है|
दीवाली के समय पर दिवाला निकल रहा है और धन तेरस के दिन कई लोग धन को तरस रहे हैं|
आशा और उम्मीद है हम सभी देश में फैले इस अंधियारे को दूर भगायेंगे| इन्ही तरह की रचनाएँ और प्रेरक प्रसंग इस में सहयोगी होंगे|
दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
जहां जहां भी अन्धेरा है, वहाँ प्रकाश फैले इसी आशा के साथ!
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पर कभी आइयेगा| मार्गदर्शन की अपेक्षा है|