नमस्कार , आज इस ब्लोग की यह 700 वीं पोस्ट है , तो मैंने इस ब्लॉग के संचालक मनोज जी से कहा कि दो साल से कम के समय में 700 पोस्ट का होना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। क्यों न इस अवसर को यादगार बनाने के लिए कुछ नया किया जाए ? उन्होंने कहा कि मन तो मेरा भी है। मैंने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम राष्ट्रीय कवि दिनकर की कृति कुरुक्षेत्र को प्रस्तुत करें ? उनको यह विचार पसंद आया तो
आप सभी गुणी पाठकों के समक्ष राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह “ दिनकर “ की काव्य – कृति ‘ कुरुक्षेत्र ‘ ले कर आई हूँ …आशा है आप इसे पसंद करेंगे …
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
क्रमश:…
अगला भाग
आप सभी गुणी पाठकों के समक्ष राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह “ दिनकर “ की काव्य – कृति ‘ कुरुक्षेत्र ‘ ले कर आई हूँ …आशा है आप इसे पसंद करेंगे …
कुरुक्षेत्र …. प्रथम सर्ग ( भाग – 1 )
1908 ----- 1974
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
-
- और तब सम्मान से जाते गिने
- नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
- है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
- देश की इज्जत बचाने के लिए
- या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
-
- विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
- मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
- चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
- फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
-
- लड़ना उसे पड़ता मगर।
- औ' जीतने के बाद भी,
- रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
- वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
- विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
-
- सहसा हृदय को तोड़कर
- कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
- 'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया
- लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
-
- यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
- नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
- पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
- वज्रांग पाण्डव भीम का मन हो चुका परिशान्त था।
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
-
- और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
- द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर
- हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
- पाँच नन्हें बालकों के मूल्य-सी।
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
क्रमश:…
अगला भाग
यह सचमुच एक बड़ी उपलब्धि है सार्थक और सरोकारी ब्लागिंग की दिशा में -मेरी बधाईयाँ और इस नए अध्याय का स्वागत भी !
जवाब देंहटाएंkurukshetr or saatsovin post or fir bhtrin andaaz mubark ho .akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंसात सौंवीं पोस्ट मुबारक ! दिनकर जी हमेशा से पठनीय रहे हैं ,आभार
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट देने के लिए इस ब्लाग को बधाई। कुरूक्षेत्र पढवाने का आभार।
जवाब देंहटाएंअच्छा। वैसे कुरुक्षेत्र मुफ़्त में पीडीएफ में उपलब्ध है।
जवाब देंहटाएंhttp://hindisamay.com/Download%20Sec/RamdhariSingh-Dinker-Kurukshetra.pdf
http://hindisamay.com/Download%20Sec/E%20book%20index.htm
ब्लॉग जगत में आपलोगों का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा जा रहा है.
जवाब देंहटाएं७०० वीं पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! बेहतरीन प्रस्तुती!
७०० वीं पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएं700 वी पोस्ट के लिए पूरे मन से शुभकामनाएं
७०० वीं पोस्ट की बहुत -बहुत बधाई
जवाब देंहटाएं700 वी पोस्ट के लिए हार्दिक शुभकामनायें साथ ही एस बढ़िया प्रस्तुति को यहाँ प्रस्तुत कर पढ़वाने के लिए आभार ....
जवाब देंहटाएंदिनकर मेरे पसंदीदा कवि हैं. उनकी उत्कृष्ट कृति को यहाँ पढवाने का बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन श्रृंखला की शुरुआत.
७०० वीं पोस्ट की बधाई!
जवाब देंहटाएंइस प्रस्तुति के लिए आभार!
संग्रहणीय होगी यह कुरुक्षेत्र की श्रृंखला!
shukriya is yadgar prastuti k liye.
जवाब देंहटाएंaage bhi intzar rahega.
aabhar.
बहुत अच्छी शुरुआत है। आपका यह प्रयास इस ब्लॉग के समृद्ध करेगा।
जवाब देंहटाएंकौरवों का श्राद्ध करने के लिए
जवाब देंहटाएंया कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
७०० वीं पोस्ट की बधाई! आभार!
साआआआआआआआत सौ!!!!!!!!!!!!!!!!!!! बधाईईईईई!
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के कुरुक्षेत्र को दुबारा पढ़ने का अवसर मिलेगा यही सुख देने वाला अनुभव है!! चलिए आशा करते हैं कि रश्मिरथी भी पढ़ पाउँगा!!
बहुत बधाई और शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसबसे पहले ७०० वीं पोस्ट के हार्दिक शुभकामना... कुरुक्षेत्र के महत्वपूर्ण रचना है हिंदी कविता की... इसे पुनः पढ़ना चाहता था... जो आपके माध्यम से पूरी होगी..
जवाब देंहटाएंद्रोहाग्नि arth koi btayga please
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