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बुधवार, 16 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई


अंक-9

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के दस्तावेजों के कारण आचार्य किशोरीदास वाजपेयी और नागरी प्रचारिणी सभा काशी के बीच हुई उठा-पटक पर चर्चा हुई थी। इस अंक में हिन्दी और हिन्दुस्तानी भाषाओं की सियासत और एक-दो और बातों पर चर्चा की जाएगी।

आचार्य वाजपेयी जी लिखते हैं कि 1930-34 के राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद महात्मा गाँधी हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थन में आगे बढ़ने लगे। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता काका कालेलकर जी थे। हिन्दुस्तानी का स्वरूप बताते हुए वे लिखते हैं कि यह उर्दू य़ा संस्कृत के प्रभाव से रहित एक तरह की सरल हिन्दी भाषा है, जिसमें फ़ारसी आदि के ऐसे शब्द प्रयोग किए जाते थे, जिन्हें हिन्दी ने ग्रहण नहीं किया था। साथ ही देवनागरी और अरबी दोनों लिपियों को राष्ट्रीय लिपि का स्थान दिया जा रहा था। गाँधी जी के समर्थन के कारण हिन्दुस्तानी भाषा की चर्चा अधिक थी। जैनेन्द्र कुमार जैसे लोग, जिनकी पुस्तकों की भाषा काफी संस्कृतनिष्ठ थी, हिन्दुस्तानी के पक्षधर हो गए थे। कुल मिलाकर यह स्थिति हो गयी थी कि जिन्होंने जीवन भर हिन्दी की सेवा करने का व्रत लिया था, वे भी हिन्दुस्तानी पर जोर देने लग गए थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लोगों ने साम्प्रदायिक की संज्ञा दे दी थी। प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रमुख प्राध्यापक डॉ. ताराचन्द प्रतिदिन उर्दू और अंग्रेजी समाचार पत्रों में नियमित रूप से हिन्दुस्तानी के समर्थन में लेख लिख रहे थे।

अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर हिन्दी का जोरदार पक्ष लेनेवालों में राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिमालय की तरह खड़े रहे और डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने तो अपने मंत्री पद की भी चिन्ता न की। श्री कन्हैयालाल माणिक मुंशी जी भी दिल खोलकर हिन्दी के पक्ष में उतर पड़े थे। इधर प्रयाग विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉ. अमरनाथ झा भी हिन्दी के पक्ष में लगातार लेख प्रकाशित करवाने लगे। ये हिन्दुस्तानी के पक्ष में डॉ. ताराचन्द के नहले पर दहला सिद्ध हुए। इससे एक लाभ यह हुआ कि विश्वविद्यालयों की बिगड़ती दशा में सुधार होने लगा।

विद्वानों का एक दल ऐसा भी था, जो बिलकुल मौन रहा। इनमें प्रमुख थे प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, संस्कृत विभागाध्यक्ष और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. बाबूराम सक्सेना आदि। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी के पक्षधर होते हुए भी महात्मा गाँधी के प्रभाव के कारण हिन्दुस्तानी का समर्थन कर रहे थे। वैसे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रह चुके थे। लेकिन इस हिन्दुस्तानी के चलते चुनाव में आचार्य वाजपेजी एवं अन्य सदस्यों ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति सम्मान होते हुए भी उनके विरुद्ध अपना मत देकर डॉ. अमरनाथ झा को विजयी बनाया। आचार्य वाजपेयी जी ने इसे हिन्दुस्तानी पर हिन्दी की विजय की संज्ञा दी है।

इसके बाद अहोबर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन डॉ. अमरनाथ झा के सभापतित्व में बड़े धूमधाम से आयोजित किया गया। इसमें बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भाग लीं। काका कालेलकर जी भी थे। लेकिन खुश नहीं थे। यह हिन्दी की विजय थी। अधिवेशन में उनके भाषण से एक बात तय सी लगी कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अभी एक और टक्कर होगी। इन दो के अलावा इस प्रकार की एक और संस्था थी अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू। आचार्य वाजपेयी लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी के पक्षधरों को इसके साथ मिलकर काम करना चाहिए था या उन्हें स्वयं एक हिन्दुस्तानी मंच बना लेना चाहिए था। क्योंकि सम्मेलन में यह रोज-रोज की झंझट ठीक नहीं थी।

इसी उधेड़-बुन में आचार्य जी घर लौटे और उनके मन में एक कुराफात सूझी। उन्होंने एक समाचार बनाकर छपवा दिया कि हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना, वर्धा की एक चिट्ठी - वर्धा के एक मित्र ने चिट्ठी लिखकर सूचना दी है कि काका कालेलकर आदि राष्ट्रवादी विद्वान हिन्दुस्तानी का प्रचार-प्रसार के लिए शीघ्र ही एक अखिल भारतीय स्तर की हिन्दुस्तानी प्रचार सभा नाम की संस्था बनानेवाले हैं, जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन और अंजुमन दोनों को भविष्य में आत्मसात कर लेगी।

इस समाचार को हिन्दुस्तानी के समर्थकों ने पता नहीं पढ़ा या नहीं, या हो सकता है कि उन लोगों के मन में भी इस प्रकार दंद्व चल रहा हो, कुछ दिनों बाद यह समाचार छपा कि वर्धा में हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना की जा चुकी है। इस समाचार से आचार्य वाजपेयी जी बड़े प्रसन्न हुए कि कम से कम हिन्दी साहित्य सम्मेलन इस झमेले से बच गया।

आचार्य जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कांग्रेस की गुटबन्दी से काफी दुखी रहा करते थे। वे लिखते हैं- सम्मेलन में सदा ही गुटबन्दी रही है और कांग्रेस में तो गुटबन्दी ने घृणित-से-घृणित रूप समय-समय पर प्रकट किया है; परन्तु यह सब गन्दगी नाक दबाए सहता रहा, वहाँ काम करता रहा। राष्ट्रभाषा और राष्ट्र-स्वातंत्र्य के लिए खुल कर सबसे आगे काम करनेवाली संस्थाएं इनके अतिरिक्त और थीं ही नहीं कि चला जाता! परन्तु स्वराज्य मिलते ही कांग्रेस को और हिन्दी राष्ट्रभाषा बनते ही सम्मेलन को नमस्कार कर लिया।

आचार्य वाजपेयी ने अपने जीवन के इस द्वितीय उन्मेष की एक और महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि दिल्ली से निकलनेवाले हिन्दुस्तान समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय में देशद्रोही सुभाष !’ (आचार्य जी ने ऐसा ही लिखा है) शीर्षक से नेताजी सुभास चन्द्र बोस को देशद्रोही करार दिया था। इसे पढ़कर आचार्य जी के तन-मन में आग लग गई और उन्होंने इस पत्र की पाँच प्रतियाँ खरीदकर जला डालीं और पैर से कुचलकर उसपर थूक दिया। यह वह समय था जब नेताजी ने कांग्रेस से अलग होकर फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की थी। इसको लेकर कांग्रेस में उनका काफी अपमान किया गया। आचार्य जी पुनः लिखते हैं कि इसके पहले भी यह संगठन लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय आदि की उपेक्षा और दुर्दशा कर चुका था।

इसके बाद आचार्य जी ने स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति-श्री सुभाष चन्द्र बोस तथा कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास नामक दो पुस्तकें लिखीं। अपने जीवन के द्वितीय उन्मेष को आचार्य जी ने यहीं विराम दिया है।

इस अंक में बस इतना ही।

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9 टिप्‍पणियां:

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  2. यहाँ हिन्दुस्तानी भाषा पर कुछ कहूंगा। अबुल कलाम हिन्दुस्तानी के नाम पर संविधान सभा में सिर्फ़ अरबी-फ़ारसी के शब्द बोलते नजर आये थे। हिन्दुस्तानी का विचार तो अच्छा था लेकिन शैतानी खूब हुई…राजेन्द्र प्रसाद को हिन्दी का अच्छा पक्षधर मैं भी मानता था लेकिन संविधान सभा में उनकी बातों को सुनकर साफ लगने लगा कि बातें कुछ और काम कुछ हो रहे थे…

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  3. भाषा को सरल और व्यावहारिक बनाने के नाम पर हिन्दुस्तानी के रूप में हिन्दी भाषा के साथ खिलवाड़ करने वाली विचारधारा पहले भी थी, आज भी जारी है। गनीमत थी कि उस समय इसको प्रश्रय नहीं दिया गया, बल्कि पुरजोर विरोध किया गया था, वर्ना आज हिन्दी को पहचानना कठिन होता। अब तो देवनागरी लिपि को रोमन में लिखने की परम्परा के साथ उसके प्रति भी अमर्यादित आचरण हो रहा है। आचार्य वाजपेयी ने हिन्दी का केवल झण्डा ही नहीं उठाया, बल्कि सरल और आम जन-मानस की समझ वाली हिन्दी कैसे लिखी जाती है यह लिखकर दिखाया भी और उसे मान्यता भी दिलवाई। गूढ़ विषयों पर लिखी गई उनकी पुस्तकें दर्शाती हैं कि सरल भाषा में अभिव्यक्ति कितनी मुश्किल होती है। हममें से ज्यादातर लोग उसी कठिनाई से बचने के लिए आसान तरीके शार्टकट (अव्यावहारिक तरीके) के रूप में खोज लेते हैं।

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  4. परन्तु स्वराज्य मिलते ही कांग्रेस को और हिन्दी राष्ट्रभाषा बनते ही ‘सम्मेलन’ को नमस्कार कर लिया

    पर हिंदी तो अभी तक राष्ट्र भाषा नहीं बन पायी ...
    बहुत जानकारीपरक लेख

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  5. बहुत ही सूचनापरक जानकारी । मेर नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  6. मेरे लिए तो यह सब नई जानकारी है।
    मैं तो भाषा में सरलीकरण हो यही चाहता हूं।

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  7. आपने आचार्य जी के बहाने भाषा की राजनीति का एक युग दर्शन ही करा दिया

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  8. नकेनवाद विस्मृत सा हो गया है.... बिहार से बाहर उपजा होता तो शायद और लोग जुड़ते ...

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