प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार
बात 1917 की है। बापू चंपारन में थे। वे समय की बहुत पाबंदी रखते थे। वे अपना एक मिनट भी बरबाद नहीं होने देते थे और न दूसरे का बरबाद करते थे। उनको जो समय किसी से मुलाक़ात के लिए दिया जाता, ठीक उसी समय – अगर उनको जाना होता तो – वे पहुंच जाते। यदि दूसरे को उनसे मिलने आना होता, तो उसको भी ऐन वक़्त पर उनके पास पहुंच जाना पड़ता। जब कभी नियत समय से कोई एक-दो मिनट बाद भी पहुंचा तो किसी तरह से वे याद दिला देते कि देर करके आए हो। इसी तरह, अगर किसी ने समय मांगा और कह दिया कि केवल पांच ही मिनट चाहिए तथा उन्होंने भी उस पांच मिनट को मंज़ूर कर लिया, तो उन पांच मिनटों में काम पूरा न होने पर भी वे काम को अधूरा ही छोड़ देते थे – कह देते कि आपका समय पूरा हो गया, अगर आपको और समय चाहिए तो फिर लीजिए।
चंपारन में रजेन्द्र बाबू और अन्य लोग इन बातों को अच्छी तरह जानते नहीं थे। इसलिए कभी-कभी ढिलाई हो जाती थी। एक दिन मजिस्ट्रेट से उनको दो बजे मिलना था। मजिस्ट्रेट का घर कुछ दूर था, इसलिए भाड़े की घोड़ा-गाड़ी मंगा देने का प्रबंध किया गया था। उन्होंने पूछा था कि पैदल जाने में कितना समय लगेगा? कहा गया कि आधा घंटा। इस पर बापू ने कहा कि डेढ़ बजे से पांच मिनट पहले ही यहां गाड़ी तैयार रहनी चाहिए। राजेन्द्र बाबू और अन्य लोगों ने समझा कि पैदल जाने में जब आधा घंटा लगेगा तो घोड़ा-गाड़ी के लिए आठ-दस मिनट काफ़ी होना चाहिए। इसलिए गाड़ी वाले को हालाकि डेढ़ बजे से पहले ही आने को कहा गया लेकिन ऐसा प्रबंध नहीं हो सका कि कोई जाकर उसे ठीक समय पर लाकर तैयार रखे। पहुंचने में उसने कुछ देर कर दी। ठीक डेढ़ बजे बापू ने पूछा – गाड़ी तैयार है? और, यह सुनकर कि अभी गाड़ी नहीं आई, वे निकल पड़े। राजेन्द्र बाबू ने बहुत कहा कि गाड़ी अभी आ जाती है, वह दो बजे के पहले ही वहां पहुंच जाएगी, अभी थोड़ी देर ठहरकर जाने पर भी समय से पहुंच जाएगी। पर बापू ने नहीं माना। उस कड़ी धूप में ही पैदल चल पड़े। बाद में पूछने पर बापू ने बताया कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि वे ठीक समय पर पैदल पहुंच जाएं, क्योंकि किसी कारण अगर गाड़ी न आती तो वे देर करके चलते और वहां ठीक समय पर नहीं पहुंच सकते।
इस घटना से पता चलता है कि बापू वक़्त की कितनी पाबंदी रखते थे – यह केवल सार्वजनिक काम के लिए ही नहीं, शारीरिक नित्य-क्रिया के लिए भी।
(स्रोत : बापू के कदमों में- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद)
राजेन्द्र बाबू ने बहुत कहा कि गाड़ी अभी आ जाती है, वह दो बजे के पहले ही वहां पहुंच जाएगी, अभी थोड़ी देर ठहरकर जाने पर भी समय से पहुंच जाएगी। पर बापू ने नहीं माना। उस कड़ी धूप में ही पैदल चल पड़े।achchi prastuti .
जवाब देंहटाएंकुछ संस्कृतियों में एक अव्यक्त समझ होती है कि वास्तविक समय सीमाएं बतायी गयी समय सीमाओं से अलग हैं; उदाहरण के लिए किसी विशेष संस्कृति में यह समझा जा सकता है कि लोग विज्ञापित समय के एक घंटे बाद तैयार हो जाएंगें । इस मामले में चूंकि प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि 9:00 बजे सुबह की बैठक वास्तव में 10:00 बजे के आसपास शुरू होगी। ऐसे में जब हर कोई 10:00 बजे आता है तो किसी को कोई असुविधा महसूस नहीं होती है । पर बापू इनसे अलग थे एवं समय के महत्व को समझते थे ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रेरक प्रसंग .समय की पाबंदी एक सार्वकालिक मूल्य है .सार्वत्रिक भी कोई माने समझे तब .
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग ... पर आज कल लोग इन्डियन टाईम कह कर जब देर से पहुंचते हैं तो बहुत कोफ़्त होती है ..
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जवाब देंहटाएंप्रेरक।
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग ...
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