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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

पुस्तक परिचय-10 : एक कहानी यह भी

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08102009148_editedमनोज कुमार

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य |

मन्नू भंडारीरजनीगंधा जैसी साफ़-सुथरी सुपर हिट फ़िल्म की कहानी लिखने वाली और ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ जैसे अनेक बहुचर्चित-बहुपठित उपन्यासों की लेखिका मन्नू भंडारी की आत्मकथा “एक कहानी यह भी” इस सप्ताह का पुस्तक है जिससे आपका परिचय कराने जा रहा हूं। यह मन्नू जी के लेखकीय जीवन की कहानी है, उनकी आत्मकथा भी। अपने संघर्षों को जब लेखक तटस्थ होकर निर्भिकता के साथ समीक्षा करे, तो जो रचना बनती है उसे हम कह सकते हैं “एक कहानी यह भी”। इस पुस्तक में मन्नू जी ने अपने भावात्मक और सांसारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जो उनकी रचना-यात्रा में निर्णायक रहे। इस पुस्तक को पढ़ना एक ऐसी कथा-यात्रा है, जिसमें एक तरफ़ ख्यातिप्राप्त लेखक की जीवन-संगिनी होने का रोमांच शामिल है, तो दूसरी तरफ़ एक जिद्दी पति की पत्नी होने का संघर्ष भी है, और साथ ही है एक तरफ़ लेखकीय ज़रूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद, तो दूसरी तरफ़ घर संभालने का दायित्व भी है, एक तरफ़ आम आदमी की तरह जीने की चाह है, तो दूसरी तरफ़ उपलब्धियों की लालसा भी है। ऐसे विरोधाभासों के बीच गुज़रती ज़िन्दगी का लेखाजोखा, बहुत ही ईमानदारीपूर्वक मन्नू जी ने इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है।

IMG_1972ज़िन्दगी की इन स्थितियों के बीच जो आसपास का साहित्यिक वातावरण था, और जैसी राजनीतिक स्थितियां थी उसको भी बहुत ही साफ़गोई से उन्होंने सामने रखा है। हर कहानीकार अपनी रचनाओं में दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िन्दगी के, अपने अनुभव के टुकड़े ही तो बिखेरता रहता है। और जब वह अपनी कहानी लिखने बैठे तो उसे अपने को अपने से ही काटकर बिल्कुल अलग कर देना पड़ता है, ताकि वह तटस्थता से अपनी कहानी लिख सके। मन्नू जी ने इस पुस्तक में लिखनेवाली मन्नू और जीनेवाली मन्नू के बीच समुचित फासला बनाए रखा है। निजी जीवन की त्रासदियों, पति राजेन्द्र यादव से बनते-बिगड़े संबंध, शादी के बाद व्यक्तित्व का दो हिस्सों, लेखिका और पत्नी में बंट जाना, लेखिका के पत्नी-रूप पर पति द्वारा निरन्तर प्रहार के फलस्वरूप जो लेखक स्वरूप ने भोगा, इन सबको बिना तथ्यों को तोड़े-मरोड़े, बिना किसी दुर्भावना के, बिना किसी विकृति के एक आवेगहीन तटस्थता से इस पुस्तक में जिस प्रकार निर्वाह किया गया है, वह निश्चितरूप से प्रशंसनीय है, क्योंकि घटनाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करना और तथ्यों को छुपा जाना आत्मकथा के महत्व को कम कर देता है।

प्रत्येक व्यक्ति की ज़िन्दगी में अपने अंतरंग सम्बन्धों के कुछ निजी पन्ने होते हैं। उसे जग-ज़ाहिर करना बड़ा कठिन होता है। संकोच और सम्बन्धों की गरिमा उसे जग-ज़ाहिर करने से रोकती है। रजेन्द्र के साथ अपने सम्बन्धों को कहीं-कहीं सांकेतिक ढंग से ही सही, मन्नू जी ने समेटा ज़रूर है। लेखिका स्वीकार भी करती हैं,

“उन बेहद अपमानजनक स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत करना, सबके बीच अपने को नंगा करके खड़ा करने जैसा ही था और कम कठिन काम नहीं था यह मेरे लिए।”

कई बार आत्मकथा में लोग अतिउत्साह में कुछ ऐसी बातें लिख जाते हैं जिन्हें अश्लील और भौंडी कहा जा सकता है। मन्नू जी की आत्मकथा इस मायने में अलग है कि उन्होंने बिना किसी शाब्दिक चमत्कार के, बिना किसी साहित्यिक-सौष्ठव के साहित्यिक जगत की एक ऐसी हस्ती के उस पक्ष को उजागर किया है, जिससे पाठक बिलकुल अपरिचित रहे हैं। मन्नू जी कहती भी हैं,

“समय और स्थितियों ने जिन घावों पर पपड़ियां जमा दी थीं, उन्हें यदि कोई खुरचे, तो खुरचे घावों से तो केवल मवाद ही बहेगा!”

इस पुस्तक में तथाकथित प्रगतिशील कहे जाने वाले साहित्यिक जगत में फैले गुटबाज़ी, वर्गीय हित, चेलागिरी पर भी उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इन सब वर्णनों के बीच ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय समाज में स्त्री की नियति और उसके समक्ष की चुनौतियों को दर्शाते हुए लेखिका को कहीं-न- कहीं मानवीय़ संबंधों के बीच आदमीयत की तलाश है।

“एक कहानी यह भी” एक आम औरत की खास कथा है, जिसमें मध्यप्रदेश के भानपुरा में जन्मी, पाच भाई-बहनों में सबसे छोटी, काली, मरियल, दुबली-सी लेखिका अपनी ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को सामने रखा है। दो साल बड़ी बहन गोरी, स्वस्थ और हंसमुख है, और हर बात में उसकी तुलना और उसकी प्रशंसा ने मन्नू के भीतर गहरे हीनभाव की ग्रन्थि पैदा कर दी। मध्यप्रदेश से अजमेर और अजमेर से कलकत्ता तक के सफर के बीच एक पड़ाव “हिन्दी में एम.ए. करना है तो बनारस से करो” भी आता है जहां से उन्होंने बिना किसी साथी-सहयोगी और दिशा-निर्देश के भाषा-विज्ञान और काव्यशास्त्र जैसे ठस और ठोस विषय में डुबकी लगाते हुए जैसे-तैसे वह वैतरणी भी पार की। कलकत्ते में स्कूल से अपना कॉरियर शुरु किया, वहीं लेखन कार्य भी शुरु किया और राजेन्द्र से पहली औपचारिक मुलाक़ात भी उसी स्कूल में हुई, जो बाद में उनके पति बने, और जिसके बारे में लेखिका कहती हैं,

“जब तक मैंने राजेन्द्र को अपने से पूरी तरह मुक्त नहीं कर दिया, शायद वे मुझे एक नुकसान की तरह ढोते, भुगतते रहे।”

इन परिस्थितियों के बीच मन्नू के जीवन का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि उन्होंने सारी विपरीत परिस्थितियों के बावज़ूद अपनी रचनात्मकता को बनाए रखा।

लेखिका मन्नू भंडारी को लेखन-संस्कार पिता से पैतृक दाय में मिला। वर्षों तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में हिन्दी प्राध्यापिका के रूप में कार्य किया। मन्नू के रचनात्मकता के निर्माण में उनके अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले को विभिन्न पात्रों का हाथ है, और जिसे स्वीकार करते हुए कहती हैं, “मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरम्भिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं।” रचनात्मकता के विकास के क्रम में वे राजेन्द्र के योगदान को याद करते कहती हैं,

“वे मेरी कहानियों को सुनते, उन पर सलाह-सुझाव भी देते, … कुछ बातें मेरे गले उतरतीं, पर अधिकतर को पचा पाना मेरे बूते के बाहर होता … मेरी कहानियां होती थीं सीधी, सहज और पारदर्शी और राजेन्द्र के सुझाव होते थे पेचदार और गुट्ठल – उनके व्यक्तित्व की तरह ही।”

पर मन्नू को इतने से ही सन्तोष था कि एक स्थापित और यशस्वी लेखक उनके मित्र हैं और जिनके साथ हुई दोस्ती से उन्हें मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, अमरकान्त, नामवर सिंह से मुलाक़ात के अवसर और महादेवी वर्मा और हजारीप्रसाद के अद्भुत, अविस्मरणीय भाषण सुनने का संयोग मिल जाता था।

स्त्री के लिए परिवार एक शिकंजा है, जो एक तरफ़ सुरक्षा देता है तो दूसरी तरफ़ एक ऐसे जंज़ीर में जकड़ देता है, जिससे स्त्री आजीवन आज़ाद नहीं हो पाती। उसे तोड़ने का साहस नहीं जुटा पाती। जब राजेन्द्र से शादी की तो उस समय दिल्ली में राजेन्द्र का अपना कोई आर्थिक आधार नहीं था, और मन्नू के पास कलकत्ते में एक नौकरी थी, जिससे गृहस्थी की गाड़ी सरकती रही। मन्नू लिखती हैं,

“जब लोग पूछते, ‘पति क्या करते हैं?’ तो मैं बड़े गर्व से कहती कि लेखक हैं, यह सुनते ही पूछने वाले के तेवर ही बदल जाते !”

ऐसे शुरु हुए जीवन के शुरु-शुरु में राजेन्द्र द्वारा यह कहना,

“देखो, छत ज़रूर हमारी एक होगी लेकिन ज़िन्दगियां अपनी-अपनी होंगी – बिना एक-दूसरे की ज़िन्दगी में हस्तक्षेप किए बिल्कुल स्वतन्त्र, मुक्त और अलग”

– एक परम्परावादी समाज में पली-बढ़ी मन्नू के लिए आधुनिकतम जीवन के इस पैटर्न से दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं था। उनका सहजीवन समारम्भ एक बड़े ही अजीब क़िस्म के अलगाव के साथ हुआ। उस छत के नीचे ज़िन्दगी का जो बंटवारा हुआ उसमें सारी ज़िम्मेदारियां और समस्याएं मन्नू के हिस्से, और ‘निजी संबंध’, और ‘आज़ादी’ राजेन्द्र के हिस्से। इस पुस्तक में ऐसे-ऐसे कड़ुवे अनुभव का वर्णन है कि रूह कांप जाए। बीमार तड़पती पत्नी की उम्मीद कि पति डॉक्टर के पास ले जाए, इधर पति को कॉफ़ी हाउस की रासलीला में जाने की धुन, जो पत्नी को नौकर के हवाले इस आदेश के साथ छोड़ जाता है कि डॉक्टर को बुला देना। इसी तरह सात महीने की गर्भावस्था में पत्नी को अकेले छोड़ कर चला जाना और जब प्रसव हो रहा था तो परिवार के अन्य सदस्य चिन्ता से आकुल थे कि इस कम्प्लीकेटेड प्रसव का क्या अंजाम होगा, और राजेन्द्र का खर्राटे लेकर सोना। लिखती हैं,

“बार-बार मन में यही उठता कि क्यों नहीं मैं ही इन समानान्तर ज़िन्दगियों की छतें भी समानान्तर करके पहले वाली ज़िन्दगी में लौट जाऊं? अपने प्रति हज़ार-हज़ार धिक्कार उठने के बावज़ूद मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं ले पाती।”

अपने लिखने का कारण, रचनात्मक चुनौती और रचना प्रक्रिया का खुलासा करते मन्नू कहती हैं,

“अपने अहं और सामन्ती संस्कारों से लाचार राजेन्द्र कुंठाएं पालकर मेरा और अपना जीवन असहज और तकलीफ़देह बना चुके थे। बस, मैं ही अपनी दुखती रगों और ख़ाली कोनों को अपने लेखन से पूरा करने की कोशिश करती रहती थी। कहानी के छपने पर पाठकों की जैसी प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं मिलतीं, मेरी हौसला-आफ़ज़ाई के लिए वही काफ़ी था।”

आदमी यदि निरन्तर लिखता रहे तो कितनी आपदाओं-विपदाओं को सहज ही दरकिनार कर सकता है। और यदि उसका लिखा बराबर चर्चित भी होता रहे तो एक ऊर्जा का संचार होता रहता है उसके भीतर, जो उसके जीवन को सार्थक बनाता है, वरना निष्क्रिय मन के चलते तो छोटी-छोटी बातें भी असह्य हो जाती हैं।

जब एक कहानीकार आत्मकथा लिखे तो उसमें एक कहानी-सा रोमांच, नाटकीयता, क्लाइमेक्स, संवेना, भवुकता आना लाजमी है। एक सांस में पठनीय इस पुस्तक में रोचकता और उत्सुकता शुरु से अंत तक बनी रहती है। “एक कहानी यह भी” अपनी अस्मिता की तलाश में जुटी एक ऐसी स्त्री की कहानी है, जिसका जीवन संघर्ष, द्वन्द्व, पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ रचनात्मक पहचान बनाने, वह भी एक साहित्यिक दिग्गज पति के सामने, का संघर्ष है। यह उस जद्दोजहद की भी कहानी है जहां पुरुष से संघर्ष भी है, समझौता भी। किन्तु यह समझौता भी अनोखा था। ‘हंस’ से राजेन्द्र को यश मिला, संकट दूर हुआ तो मन्नू स्वन्त्र होकर जीने के लिए उज्जैन चली गईं। जब तक मन्नू के व्यक्तित्व का लेखक-पक्ष सजीव, सक्रिय रहा वे चाहकर भी राजेन्द्र से अलग नहीं हुईं, जब लिखना छोड़ा तो राजेन्द्र को भी छोड़ दिया। राजेन्द्र की हरक़तें मन्नू को तोड़ती थीं, तो मन्नू का खुद का लेखन, उससे मिलने वाला यश उन्हें राजेन्द्र से जोड़ देता था। जैसे-जैसे उनका लेखक निर्जीव और निष्क्रिय होता गया, उनके भीतर की स्त्री सजीव होती चली गई। जब उन्होंने अपना पूरा वज़ूद पा लिया, तब उनका राजेन्द्र के न साथ रहना सम्भव था, न उस सम्बन्ध को निभा पाना – सो वह साथ छूटा – संबन्ध छूटा। वह राजेन्द्र से अलग हुईं अपनी मुक्ति के लिए। यह एक तरफ़ देह से गेह की यात्रा-कथा है, तो वहीं दूसरी तरफ़ देह से देवी की! एक समिधा की तरह होम होती रहीं तो दूसरा हवन से निकले धुंए का सुगंध लेता रहा।

IMG_1971पुस्‍तक का नाम  एक कहानी यह भी (आत्मकथा)

रचनाकार : मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्‍करण : 2007

दूसरी आवृत्ति : 2009

मूल्‍य : 250 रु. 

पृष्ठ : 227

17 टिप्‍पणियां:

  1. 'एक कहानी यह भी' का संक्षिप्त रूप हम दसवीं के पाठ्यक्रम में बच्चों को पढाते हैं.आपकी यह समीक्षा भी अब बच्चों के हवाले होगी !
    आभार !

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  2. आप द्वारा प्रस्तुत पुस्तक परिचय से मन्नू जी के नितांत निजी जीवन के बारे में झाँकने का कुछ अवसर मिला। कुछ घटनाओं का आपने उल्लेख किया जिनसे मन्नू जी के प्रति संवेदना उपजी और पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व का यह पहलू बेहद अफसोसजनक है। व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा और प्रतिष्ठित क्यों न बन जाए, मनुष्यता के धर्म तथा परिवार के प्रति उत्तरदायित्व के भार से विमुख नहीं हो सकता। यदि वह ऐसा करता है तो वह अपराध करता है।

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  3. इस पुस्तक में लेखिका ने आत्मविश्लेषण की जटिलता से जूझते हुए अपने जीवन के कुछ धक्के भी बयान किए हैं । ज़ाहिर है इनकी धमक से रचनाकार का आत्मविश्वास काफी ध्वस्त हुआ । कहाँ तो उसके मन में प्रणय और परिणय के रूमानी सपने थे, किसी भी लड़की की तरह, कहाँ उसका सामना हुआ पति के जीवन में समानांतर प्रेम संबंधों से । हाँ, उसने खुली आँख से प्रेम किया था, स्वावलंबी थी, पति से कभी धन दौलत की लालसा नहीं रखी थी । 'चाहा था तो एक अटूट विश्वास, एक निर्द्वंद्व आत्मीयता और गहरी संवेदनशीलता । राजेंद्र जी एवं मन्नू भंडारी जी की खासियत रही है कि इन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन को भी साहित्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति के माध्यम से हम सबके सामने प्रस्तुत किया है । मैं मन्नू भंडारी एवं शिवानी जी की रचनाओं को बहुत पसंद करता बूँ । इस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।

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    1. kyaa aap mjhe mannu bhandari ke 'vyaktitva' k bre me 100 shabdo me bta skte h??

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  4. रचनाकार एक आदर्श समाज की कल्पना तो करता है किन्तु उनसे अपने जीवन में ही ट्रांसलेट नहीं कर पाता... पढ़ चुका हूं यह पुस्तक.. आपकी समीक्षा उम्दा है...

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  5. बेहद संवेदनशील व्यक्तित्व और उतनी ही संवेदनशीलता से आपने समीक्षा लिखी है।

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  6. एक कहानी यह भी, मन्नू भंडारी की आत्मकथा से रुबरु कराने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!!! समीक्षा रचना की आत्मा को छूती है।
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    समीक्षा पढ़ कर पुस्तक पढ़ने की चाह उमगी है।

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  7. aapke is parichay ne is pustak ko padhne k liye itna utsaahit kar diya hai har sambandhit vyakti se is pustak ki availability k bare me jaanNe ki koshish kar rahi hun.

    bahut sunder parichay. aur bahut bahut dhanywad iski jankari dene k liye.

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  8. मन्नू भंडारी की. एक कहानी यह भी,समीक्षा पढ़ कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो आई..

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  9. पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करता सुन्दर परिचय!

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  10. आपके द्वारा दिया पुस्तक परिचय मन को झकझोर गया ... मनु भंडारी की बहुत सी कहानियाँ पढ़ीं हैं ..पर उनका जीवन दोधारी तलवार पर चला यह ज्ञात नहीं था ... इस पुस्तक को पढ़ने की पूरी कोशिश करुँगी ... आभार

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  11. चलिए पुष्पा मैत्रेई के बाद एक कहानी यह भी बांची .बैसाखी वाले राजेंद्रजी को कई बार अपने पास बैठे देखा इत्तेफाकन .उनसे दीक्षित पीडिताओं के लेखन और कृतित्व को कुछ सीधे सीधे और कुछ आपकी समालोचना द्वारा बांचा .बहुत हमदर्द सी है यह समीक्षा जो मन के तारों को झंकृत करती है .

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  12. “जब लोग पूछते, ‘पति क्या करते हैं?’ तो मैं बड़े गर्व से कहती कि लेखक हैं, यह सुनते ही पूछने वाले के तेवर ही बदल जाते !”

    Mannu ke es vicharon ko jankar bahut achha laga .
    ak achhi pratuti ....abhar

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  13. मन्नू कि आपका बंटी पढ़ चुका हूँ। यह किताब तो विवादास्पद लग रही है। लेकिन गाँधी पर तो उनके पक्ष और विपक्ष में भी सैकड़ों किताबें आईं।ऐसी समस्याएँ हर किसी के जीवन में होती हैं।...समीक्षा भी अच्छी हुई है।

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