अरुण चन्द्र रॉय
भारत में मुद्दों की अपनी एक ऋतु होती है. जैसे मौसम के . ग्रीष्म, शीत, वर्षा, वसंत, शरद. मुद्दे भी ऐसे ही आते हैं. कभी अन्ना, कभी २ज़ी, कभी महंगाई. और अभी ऍफ़ ड़ी आई. संसंद में अभूतपूर्व गतिरोध चल रहा है. विपक्ष काम नहीं होने दे रही है. सत्ता पक्ष अपने फैसले पर अडिग. अभी अभी खबर आई है कि माननीय प्रणव दा ने सुष्माजी को फ़ोन किया है और जब तक सभी राजनीतिक दल सहमत नहीं हो जाते, ऍफ़ ड़ी आई के मुद्दे को आस्थगित रख दिया गया है. अर्थशाष्त्री नहीं हूं लेकिन समझ नहीं आ रहा है कि खुदरा बाज़ार में ५१% तक ऍफ़ ड़ी आई जब अभी किसान विरोधी है तो कल राजनीतिक पार्टियों के सहमत होने के साथ ही किसान के अनुकूल कैसे हो जाएगी. इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि सभी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे पर एक हो जाएँ तो देश को गिरवी रखा जा सकता है.
जितना समय ऍफ़ ड़ी आई के मुद्दे पर बयानबाजी पर लगाया जा रहा और संसद के गतिरोध पर घरियाली आंसू बहाए जा रहे हैं, एक भी कोशिश नहीं दिख रही है कि सरकार या विपक्ष देश की जानता के बीच जाके बताये कि किस तरह यह लाभकारी या हानिकारक होगी. आपने भी गौर किया होगा कि यदि कोई बलात्कार या हत्या की सनसनीखेज घटना हो जाती है हमारे समाचार पत्र उसका दृश्य फ्रेम वार प्रस्तुत करते हैं. टी वी चैनल उसका नाट्य रूपांतर करते हैं. लेकिन मुझे अभी तक इस मुद्दे पर ना तो कोई सार्थक अनुसन्धान परक रिपोर्ट दिखी है, न टी वी चैनलों पर सार्थक बहस. हाँ ! एन ड़ी टी वी पर पंकज पचौरी कुछ बच्चो और मणि शंकर अय्यर, हर्षवर्धन आदि के साथ "हमलोग" पर ऍफ़ ड़ी आई पर चर्चा कर रहे थे. लेकिन उनकी बात में न तो तथ्य थे न कोई दिशा. बस ऐसा लग रहा था मानो कांग्रेस द्वारा प्रायोजित कार्यकर्म हो यह.
खैर. जब भारत सरकार ने अमेरिकी दवाब में आनन फानन में खुदरा क्षेत्र में ऍफ़ ड़ी आई को अनुमति दे दी है, हमारे लिए जानना जरुरी है कि स्वयं अमेरिका के हालात कैसे हैं. इस मुद्दे पर मीडिया खामोश है. जब हजारो लोग अमेरिका में "आक्युपाई वाल स्ट्रीट" अभियान के तहत सडको पर हैं, अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है, बेरोज़गारी चरम पर है, ऐसे में हमारी मीडया चुप क्यों है. सरकार जैसा कह रही है, जो कंपनिया अपने देश की अर्थव्यवस्था को सवारने में असफल है उनसे कैसी उम्मीद है अपने देश के बारे में.
खैर. जब भारत सरकार ने अमेरिकी दवाब में आनन फानन में खुदरा क्षेत्र में ऍफ़ ड़ी आई को अनुमति दे दी है, हमारे लिए जानना जरुरी है कि स्वयं अमेरिका के हालात कैसे हैं. इस मुद्दे पर मीडिया खामोश है. जब हजारो लोग अमेरिका में "आक्युपाई वाल स्ट्रीट" अभियान के तहत सडको पर हैं, अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है, बेरोज़गारी चरम पर है, ऐसे में हमारी मीडया चुप क्यों है. सरकार जैसा कह रही है, जो कंपनिया अपने देश की अर्थव्यवस्था को सवारने में असफल है उनसे कैसी उम्मीद है अपने देश के बारे में.
बताना चाहूँगा कि अमेरिका में बेरोज़गारी की दर अक्तूबर २०११ में ९% था जो कि अमेरिकी इतिहास में अब तक का सर्वाधिक है. २००८ के वैश्विक मंदी के बाद स्थिति और बिगड़ी है. आज १४ मिलियन अमेरिकी युवा नौकरी की तलाश में है. वैश्विक मंदी के बाद अमरीकन कंपनियों ने ८.४ मिलियन लोगो को बेरोजगार किया. मेकिंसे की एक रिपोर्ट के अनुसार गत तीन वर्षों में अमरीकी कंपनियों ने अपनी लाभप्रदता बनाये रखने के सबसे पहले मजदूरों और कामगारों को बाहर का रास्ता दिखाया . बेरोज़गारी का स्तर अमेरिका में पिछले छः दशको में सबसे निचले स्तर पर है. सबसे ताकतवर देश अमेरिका में १.६ मिलियन बेरोजगार वे हैं जिनका शैक्षिक स्तर हाई स्कूल से कम है जबकि ग्रैज़ुयेट बेरोजगारों की संख्या २.१ मिलियन है. सबसे अधिक बेरोजगार हाई स्कूल पास हैं जिनकी संख्या ३.६ मिलियन है. अमेरिका में बेरोज़गारी के हालात बहुत ख़राब है और जिन उद्योगों में अकुशल और कम कुशल श्रमिको की ज़रूरत अधिक है वैश्विक मंदी के कारण उन्ही उद्योगों में बेरोज़गारी और छटनी अधिक हुई है. विनिर्माण क्षेत्र किसी भी देश की रीढ़ की हड्डी होती है और रोज़गार के अवसर सबसे अधिक वही होता है लेकिन चिंता की बात है कि अमेरिका में सबसे अधिक छटनी और नकारात्मक रुझान विनिर्माण क्षेत्र में ही हुआ है. इसके अतिरिक्त जो पांच उद्योग जहाँ छंटनी अधिक हुई है उनमे विनिर्माण (मनुफेक्चारिंग) के बाद प्रशासन, रिटेल, निर्माण, फाइनांस क्षेत्र आते हैं. दुनिया में सर्वजन समाज का पक्षधर अमेरिका की पोल वहां भी खुलती है जब सबसे अधिक बेरोजगार ब्लैक हैं और उसके बाद हिस्पैनिक और एशियन का है.
मज़े की बात यह है कि गत तीन वर्षों में बेरोज़गारी से जूझ रहे अमेरिका में इस दौरान कार्पोरेट लाभ रिकार्ड स्तर को छू रहा है. एस एंड पी के अनुसार २०११ के तीसरी तिमाही में कार्पोरेट प्रोफिट आफ्टर टैक्स (सी पी) शाद्नदार रहा है और सरकार को २०५ मिलियन यू एस डालर की प्राप्ति हुई है. वर्ष २००९ के मंदी के बाद रोज़गार में लगातार कमी हो रही है जबकि कार्पोरेट प्रोफिट आफ्टर टैक्स (सी पी) निरंतर बढ़ रहा है. लोगों में रोष का एक कारण यह भी है.
बिजनेस इनसाइडर पत्रिका के अध्यनन के इस रुझान को माने तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था का दम टूट रहा है. वहां विनिर्माण, रिटेल, ढांचागत विकास के क्षेत्र में प्रगति की सम्भावना क्षीण है. यही कारण है अमेरिका में बेरोज़गारी बढ़ रही है. आम लोगों में क्षोभ बढ़ रहा है और स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया का पक्षधर अमेरिका से ये ख़बरें दुनिया तक नहीं पहुच रही है. भारत में रिटेल के लिए ऍफ़ ड़ी आई का द्वार खोलना कांग्रेस की पुरानी प्रतिबद्धता का संकेत है. एक संप्रभु राष्ट्र को यह मंजूर नहीं होना चाहिए. क्या भारतीय मीडिया अपने देशवासियों को अमेरिका का सच बताएगी ?
(सभी आकडे बिजनेस इनसाइडर पत्रिका, व्यूरो आफ लेबर स्टैटिक्स, अमेरिका सरकार और अन्य वेबसाईट से)
भारत की मीडिया बिकाऊ है?
जवाब देंहटाएंDesh kee chinta kise hai?
जवाब देंहटाएंदेश इस देश की जनता का है। मीडिया बिकाऊ हो या किसी पार्टी को चिंता हो या न हो आम जनता को तो जागरूक रहना और देशद्रोही कृत्यों का विरोध करना ही चाहिए। आपने अपना कर्तव्य पूर्ण किया अब बाकी लोगों का कर्तव्य है की वे अपने दायित्व का पालन करें।
जवाब देंहटाएंअमेरिका की सही स्थिति कभी भी ना तो मीडिया बताता है और ना ही वहाँ रह रहे भारतीय। भारत की परम्परा में प्रत्येक व्यक्ति मालिक था। बस केवल कुछ प्रतिशत लोग ही चाकर थे। लेकिन कारखानों, बड़े उद्योग समूहों से नौकरों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज भारत में एक महिला सब्जी का टोकरा लेकर सड़क किनारे बैठ जाती है और दिन भर में सौ-दौ सो रूपए कमा लेती है। लेकिन बड़ी दुकानों के आने से इनका रोजगार छिन जाएगा। ये आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए नौकरी करेंगी और देश में एक नौकर और बढ़ जाएगा। आज बड़ी कम्पनियों में सोलह घण्टे तक काम लिया जाता है। यदि नहीं करना है तो घर बैठों। क्या इस परम्परा से भविष्य में गुलामों का जन्म नहीं होगा? कल तो जो युवा शक्ति गाँवों में कृषि कार्य में लगी थी अब वे मॉल में नौकर बन कर रह गयी है। ऐसे ढेर सारे परिवर्तन है, जो शायद सरकार को दिखायी नहीं दे रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसामी भाषा में एक संतुलित आर्थिक विश्लेषण!!
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट ..
जवाब देंहटाएंखबर है कि उत्तरप्रदेश के कोल्ड स्टोरेज मालिक नए सीजन का आलू रखने के लिए पुराने आलू को निकाल कर फेक रहे हैं. किसान ने अपना आलू ले जाने से इनकार कर दिया है, कारण है कोल्ड स्टोरेज से आलू उठाकर मंडी तक ले जाने का खर्चा भी आलू की कीमत से नहीं निकल रहा है. ऊपर से कोल्ड स्टोरेज मालिक को किराया भी किसान को अपनी जेब से भरना पडेगा. किसान के लिए आत्मह्त्या जैसी स्थिति निर्मित हो गयी है. एक-एक किसान का सैकड़ों बोरा आलू कोल्ड स्टोरेज के बाहर पडा है. अपनी पसीने की कमाई को सड़ते देखना किसानों का ही दमख़म है. दुखद बात यह है कि इसी भारत में आलू के चिप्स दो सौ रुपये किलो के भाव से बिक रहे हैं....और किसान का आलू सड़ रहा है. दूसरी और सरकार खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश लाना चाहती है ताकि भारत में आलू के चिप्स दो हज़ार रुपये किलो के भाव से बिक सकें. भारत की सरकार अभी तक अपने किसानों के उत्पाद के उचित मूल्य की सुरक्षा कर पाने में सफल नहीं हो सकी है. लखनऊ और आगरा मंडल आलू के गढ़ हैं, सरकार को इन किसानों के आलू से स्टार्च, चिप्स, ग्लूकोज, अल्कोहल या अन्य कोई उत्पाद बनाने के लिए किसी उद्योग की स्थापना के स्थान पर विदेशी निवेश की ही चिंता है.
जवाब देंहटाएंकलमा पढके हलाल करना और कहना कि हम तो खुदा से कह चुके…
जवाब देंहटाएंसंतुलित विवेचन ..... कई भ्रम दूर करती पोस्ट
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