आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएं-5
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा ।
और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥
विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,
चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,
भेद, यों, मालूम है पर पार का
धार से कटता किनारा जायेगा ।
चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या
श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?
लोल लहरों से ठने न बदाबदी,
पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।
मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन
फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।
मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
जवाब देंहटाएंऔ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
क्या कहने !
वाह क्या बात है...बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंआहा..!
जवाब देंहटाएंइस प्रस्तुति के लिए कोटिशः आभार!
कितने आत्मविश्वास का परिचायक और आत्माभिमान का प्रतिनिधित्व करता है अंतिम छंद.. बिलकुल शास्त्री जी के जीवन जैसा!! प्रेरक!!
जवाब देंहटाएंबेहद गहन्।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ||
terahsatrah.blogspot.com
कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति है. आभार.
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिए ...!!
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति !
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