माल्यवान (गुणाढ्य) की कथा
आप सभी पाठकों को नमन करते हुए अनामिका एक बार फिर हाज़िर है आपके समक्ष कथासरित्सागर की एक और कथा लेकर. कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चारित्र भी हैं और इतिहास प्रसिद्द नायकों की कथाएं भी हैं.मूल कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति रोचक भी है और जटिल भी. ये कथाएं आप सब के लिए हमारी भारतीय परंपरा को नए सिरे से समझने में सहायक होंगी.
इस कथासरित्सागर को गुणाढय की बृहत्कथा भी कहा जाता है. गुणाढय को वाल्मीकि और व्यास के समान ही आदरणीय भी माना है.
पिछली कड़ियों को जोड़ते हुए.... पिछले सात अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, उपकोषा की बुद्धिमत्ता, योगनंद की कथा पढ़ी.....प्रथम अंक में शिव-पार्वती प्रसंग में शिव जी पार्वती जी को कथा सुनाते हैं जिसे शिवजी के गण पुष्पदंत योगशक्ति से अदृश्य हो वह कथा सुन लेते हैं और पार्वती क्रोधवश पुष्पदंत को श्राप देती हैं ...पुष्पदंत का मित्र माल्यवान साहस कर उमा भगवती के चरणों पर माथा रख कहता है - इस मूर्ख ने कौतूहलवश यह घृष्टता कर डाली है माँ ! इसका पहला अपराध क्षमा करें, लेकिन पार्वती क्रोधवश माल्यवान को भी शाप देती हैं जिससे पुष्पदंत और माल्यवान मनुष्य योनी पाकर धरती पर आये हैं, जहाँ पुष्पदंत को शाप-मुक्ति के उपाय हेतु काणभूति(सुप्रतीक नामक यक्ष)को वही कहानी सुनानी है और माल्यवान को काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्य योनी में इसका प्रचार करना है तभी इनकी मुक्ति संभव है. अब माल्यवान (गुणाढ्य) की कथा ...
गुणाढ्य राजा सातवाहन का मंत्री था. भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विंध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन में आ गया था.
विंध्यवासिनी ने उसे काणभूति के दर्शन करने का आदेश दिया. उसके साथ ही गुणाढ्य को भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और वह काणभूति के पास आकर बोला - पुष्पदंत ने जो बृहत्कथा तुम्हें सुनाई है, उसे मुझे भी सुना दो, जिससे मैं भी इस शाप से मुक्त होऊं और तुम भी.
उसकी बात सुन कर काणभूति ने प्रसन्न हो कर कहा - मैं तुम्हें बृहत्कथा तो अवश्य सुनाऊंगा पर पहले मैं तुम्हारे इस जन्म का वृतांत सुनना चाहता हूँ. काणभूति के अनुरोध पर गुणाढ्य ने अपनी कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी -
प्रतिष्ठान प्रदेश में सुप्रतिष्ठित नाम का नगर है. वहां सोमशर्मा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहा करता था. उसके वत्स और गुल्म नामक दो पुत्र तथा श्रुतार्था नाम की एक कन्या थी. कालक्रम से सोमशर्मा और उसकी पत्नी दोनों का निधन हो गया. वत्स तथा गुल्म अपनी छोटी बहन का लालन-पालन करते थे.
एक बार उन्हें पता चला कि उनकी बहन गर्भवती है. पूछने पर श्रुतार्था ने बताया कि नागराज वासुकी के भाई कीर्तिसेन ने एक बार उसे स्नान के लिए जाते देखा था और उन्होंने उसके ऊपर मुग्ध हो कर उससे गान्धर्व विवाह कर लिया था.
दोनों भाइयों ने कहा - इसका क्या प्रमाण है ?
श्रुतार्था ने नागकुमार का स्मरण किया. तुरंत नागकुमार वहां प्रकट हो गए . उसने दोनों भाइयों से कहा - तुम्हारी यह बहन शापभ्रष्ट अप्सरा है और मैंने इस से विवाह किया है. इससे पुत्र उत्पन्न होगा, तब तुम दोनों की और इसकी शाप से मुक्ति हो जाएगी.
समय आने पर श्रुतार्था को पुत्र की प्राप्ति हुई. मैं (गुणाढ्य ) वही पुत्र हूँ.
मेरे जन्म के कुछ समय पश्चात ही शाप से मुक्त हो जाने के कारण मेरी माता और फिर मेरे दोनों मामा चल बसे. मैं बच्चा ही था. फिर भी किसी तरह अपने शोक से उबर कर मैं विद्या की प्राप्ति के लिए दक्षिण की ओर चल दिया. दक्षिणापथ में रह कर मैंने सारी विद्याएँ प्राप्त कीं . बहुत समय के बाद अपने शिष्यों के साथ उस सुप्रतिष्ठित नगर में मैं लौटा तो मेरे गुणों के कारण वहां मेरी बड़ी प्रतिष्ठा हुई. राजा सातवाहन ने मुझे अपनी सभा में आमंत्रित किया. मैं अपनी शिष्य मंडली के साथ वहां गया. वहां भी मेरी बड़ी आवभगत हुई. राजा ने अपने मंत्रियों से मेरी प्रशंसा सुनी तो उसने प्रसन्न हो कर मुझे अपना एक मत्री नियुक्त कर दिया.
बसंत का समय था. राजा सातवाहन अपनी सुंदर रानियों के साथ राजमहल की वापी (बावड़ी) में जलक्रीड़ा कर रहे थे. जिस तरह जल में उतरे श्रेष्ठ और मतवाले हाथी पर उसकी प्रेयसी हथनियां अपनी सूंडों में जल भर कर पानी की फुहारें छोडती हैं, वैसे ही वे रानियाँ राजा के ऊपर पानी छींट रही थीं और राजा भी प्रसन्न हो कर उन पर पानी के छींटे उछाल रहा था. एक रानी ने बार बार अपने ऊपर पानी के तेज छींटे पड़ने से परेशान होकर राजा से कहा - मोद्कैस्ताड्य [( मा (मत ) उद्कै: (जल से ) ताडय (मारो) - यह संधि तोड़ने पर वाक्य का अर्थ होगा और संधि सहित अर्थ होगा मोद्कै: (लड्डुओं से ) ताडय (मारो ) ] राजा ने इस संस्कृत वाक्य का अर्थ समझा कि मुझे मोदकों (लड्डुओं ) से मारो और उसने तुरंत अपने सेवकों को ढेर सारे लड्डू लाने का आदेश दिया. यह देख कर वह रानी हंस पड़ी और बोली - हे राजन, यहाँ जलक्रीड़ा के समय लड्डुओं का क्या काम. मैंने तो यह कहा था कि मुझे उदक (जल ) से मत मारो. आपको तो संस्कृत व्याकरण
के संधि के नियम भी नहीं आते हैं, न आप किसी वाक्य का प्रकरण के अनुसार अर्थ ही लगा पाते हैं. मोद्कैस्ताड्य [( मा (मत ) उद्कै: (जल से ) ताडय (मारो) - यह संधि तोड़ने पर वाक्य का अर्थ होगा और संधि सहित अर्थ होगा मोद्कै: (लड्डुओं से ) ताडय (मारो ) ]
वह रानी व्याकरण की पंडित थी. उसने राजा को ऐसी ही खरी खोटी सुना दी और बाकी लोग मुह छिपा कर हंसने लगे. राजा तो लाज से गड़ गया. वह जल से चुपचाप बाहर निकला. तब से वह न किसी से बोले न हँसे. उसने तय कर लिया कि या तो पांडित्य प्राप्त कर लूँगा या मर जाऊंगा. उस दिन राजा न किसी से मिला, न भोजन किया, न सोया.
आदरणीय पाठक गण यह एक लम्बी कथा है अतः आगे का वृतांत अगले अंक में प्रस्तुत करने की कोशिश करुँगी तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार !
In kathaon me ek goodhta hotee hai,jo ant tak baandhe rakhtee hai!
जवाब देंहटाएंअमानिका जी , अपने पोस्ट के माध्यम से आप बहुत सी ऐसी धार्मिक कथाओं को हम सबके समक्ष प्रस्तुत कर रही हैं जिसके बारे में बहुत से लोग अब तक अनभिज्ञ हैं ,जिसमें मैं भी हूँ । .आशा है भविष्य में भी आप इस तरह की प्रविष्टियों को प्रस्तुत करती रहेंगी । इस पोस्ट से बहुत कुछ जानने को मिला । अगले अंक का इंतजार रहेगा । धन्यवाद .। मेरे पोस्ट पर भी आपका स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंक्या आपकी उत्कृष्ट-प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रवारीय चर्चामंच
में लिपटी पड़ी है ??
charchamanch.blogspot.com
बहुत सुंदर , अवर्णनीय वृतांत .
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण कथा है...
जवाब देंहटाएंबधाई...
बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय| धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa.
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर और रोचक कथा है ! आपके खजाने में तो बड़ा विपुल भण्डार है ! अगली कड़ी पढ़ने जा रही हूँ !
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