|
काव्य प्रयोजन (भाग-3)पाश्चात्य विद्वानों के विचार |
पिछले दो पोस्टों मे हमने काव्य-सृजन का उद्देश्य और संस्कृत के आचार्यों के विचार की चर्चा की थी। संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, यही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है। आइए अब इसी विषय पर पाश्चात्य विद्वानों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें। पश्चिम के विद्वानों ने भी समय-समय पर काव्य प्रयोजन पर विचार किया। उन्होंने मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण शास्त्र की सहायता से कवि के मन की सृजन प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया। इस आधार पर जो दृष्टिकोण सामने आए वो दो प्रकार के थे। एक के अनुसार कला कला के लिए है, तो दूसरे के अनुसार कला जीवन के लिए है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो का काल ई.पू. 427-347 का है। यह समय एथेन्स के पतन का था। इस समय आध्यात्मिक और नैतिक ह्रास में काफ़ी बढोत्तरी हुई। अतः उनकी चिन्ता थी कि कैसे आदर्श राज्य की स्थापना हो और चरित्र निर्माण द्वारा नैतिक मूल्यों की रक्षा कैसे हो? उन्होंने भी लोकमंगल, अर्थात् सत्य और शिव, के आधार पर काव्य के प्रयोजन को देखा। प्लेटो का मानना था कि काव्य का उद्देश्य मानव-प्रकृति में जो महान और शुभ है, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उसका उद्घाटन होना चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्लेटो ने कला के आनंद सिद्धांत से आगे बढकर लोकमंगल सिद्धांत को महत्वपूर्ण बतया। अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे। वे भी यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य थे। उन्होंने भी प्लेटो के विचार को स्वीकारा और अपने “काव्यशास्त्र” में काव्य के प्रयोजन लोकमंगल, अर्थात् सत्य और शिव का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार काव्य का प्रयोजन शिक्षा या ज्ञानार्जन और आनंद है। उनका कहना था कि ज्ञान के अर्जन से अत्यंत प्रबल आनंद प्राप्त होता है। अरस्तु के अनुसार इस काव्यानंद का स्वरूप आध्यात्मिक न होकर भौतिक आनंद है। क्योंकि यह आनंद किसी देखी हुई वस्तु को पहचानने का आनंद है। यह वस्तु को देखने के आनंद से अलग है। यह अनुकरणजन्य आनंद है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ आलोचक ने इसे “कल्पना का आनंद” कहा। अरस्तु का कहना था कि काव्य में कलात्मक प्रभाव नैतिक भावना का पोषक हो। उनका यह मानना था कि व्यापक अर्थ में काव्य का प्रयोजन है विरेचन अर्थात् भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन। अरस्तु का यह विरेचन सिद्धांत आज भी मान्य है। पाश्चात्य विद्वानों मे जिन्होंने काव्य प्रयोजन पर चर्चा की एक और महत्वपूर्ण नाम है लांजाइनस का। इन्होंने अपने ग्रंथ ‘परिइप्सुस’ में कहा है कि काव्य वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य है, चरमोत्कर्ष है, जिससे महान कवियों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिलता है। कारण यह है कि उसका सृजन, पाठक को मात्र जागृत करने के लिए नहीं होता, बल्कि उसके मन में अह्लाद उत्पन्न करने में सक्षम होता है। उनका मानना था कि महान सृजन महान आत्मा की प्रतिध्वनि है। लांजाइनस ने काव्य में उदात्त-तत्व की बात की थी। उदात्त की शक्ति से पाठक कृति-प्रभाव को ‘आत्मातिक्रमण’ के रूप में ग्रहण करता है। इसमें भी भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन या विरेचन सिद्धांत शामिल है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाश्चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। महान काव्य वही है जो सभी को सब कालों मे आनंद प्रदान करे और समय जिसे पुराना न कर सके। इस प्रकार ‘आनंद’ या ‘आत्मातिक्रमण’ ही साहित्य का मुख्य प्रयोजन है। |
पेज
▼
सार्थक पोस्ट बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसाहित्य का एक मात्र उद्देश्य ही है "लोक-मंगल". किरति भनित भूति भल सोई ! सुरसरी सम सब कर हित होई !!" तभी तो रामचरित मानस काल्जायी हो गया.
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक जानकारी………………आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से विचारों को पिरोया...उत्तम प्रस्तुति..बधाई.
जवाब देंहटाएं__________________
'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)
aaj ki saahitya kasha me aapne kaavya ke prayojan ko pracheen kaal se utha kar achha kiya.. is se silsilewar kavita ke prayojam aur usme hue parivartan ke baare me samjhne me madam milegi.. bahut sankshipt me achhi jaankari mili
जवाब देंहटाएंकव्य्प्रयोजन के विषय में यह सिरीज़ बहुत अच्छी लगी ...
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक जानकारी!
जवाब देंहटाएंउत्तम जानकारी....
जवाब देंहटाएं