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सोमवार, 23 अगस्त 2010

कविता के नए सोपान (भाग-5) – कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत

कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत

कविता के नए सोपान (भाग-5)

छायावादियों ने कविता की परिभाषा करते हुए “स्वानुभूति” पर बल दिया था। (यहां पढें) । वही दूसरी ओर नयी कविता के कवि-आलोचकों ने कहा कि परिवेश में बदलाव के कारण “अनुभूतिगत भिन्नता” है। इसे थोड़ा और स्पष्ट करने से पहले, कवि, आलोचक और चिंतक विजयदेवनारायण साही की पंक्तिया उद्धृत करें,

“न सिर्फ़ कविता का कलेवर बदला है बल्कि गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में भी फ़र्क़ आया है।”   (यहां पढें)

अनुभूति की बनावट का फ़र्क़ ही छायावादी “स्वानुभूति” और नयी कविता की “अनुभूतिगत भिन्नता” के अन्तर को स्पष्ट करता है। कविता के नये प्रतिमान में इसी बात को बताते हुए प्रो. नामवर सिंह ने कहा है,

अनुभूति की बनावट में फ़र्क़ के कारण नयी कविता छायावाद के समान ही अनुभूति पर बल देते हुए भी भावों की शाश्‍वतता के प्रति उतनी आश्‍वस्त नहीं है।”

नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं।

इसीलिए हम पाते हैं कि नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं। और यह भी स्पष्ट है कि उनका बल रागात्मक संबंधों पर है। कवि और चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍सयायन अज्ञेय का भी मानना था कि हमारे रागात्‍मक संबंधों में भी बदलाव आया है। इसके फलस्‍वरूप पुराने संस्‍कारगत रागात्‍मक संबंधो में बदलाव परिलक्षित है। (यहां पढें)  अज्ञेय ने बात को और स्पष्ट करते हुए “दूसरा सप्तक” की भूमिका में कहा है,

”यह कहा जा सकता है कि हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले, प्रेम अब भी प्रेम है और घृणा अब भी घृणा। पर यह भी ध्यान रखना होगा कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियां बदल गई हैं।”

कवि का क्षेत्र तो रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होता ही है। इसलिए ये जो बदलाव है, उसका आज के कवि कर्म पर बहुत ही गहरा असर पड़ा है। हमारे चारो तरफ़ जो बाहरी वातावरण है, जैसे-जैसे उसमें परिवर्तन आता जाता है, वैसे-वैसे हमारे रागात्मक संबंध को जोड़ने की पद्धति भी बदलती जाती है। अगर ऐसा न हुआ होता, अगर बदलाव न हुआ होता, तो उस बाहरी वास्तविकता से तो हमारा नाता ही टूट जाता। अज्ञेय को पश्चिम में चल रहे एंटी रोमांटिक चिंतन का पता था।

उस समय में पाश्चात्य सृजन की चिंतन धारा में एक नयी सोच शुरु हुई थी। उसका आधारभूत स्वर रोमांटिक भावबोध का विरोधी था। यहां पर टी.एस. एलिएट के विचार स्मरण हो रहे हैं। (यहा पढें) ..   उन्होंने “एण्टी-रोमांटिक” रवैया अपनाया था। उन्होंने एक नए विचार को सामने लाया। उनका मानना था,

“कविता व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है वरन्‌ व्यक्तित्व से पलायन है।”

यह परिभाषा रोमांटिकों के “आत्माभिव्यक्ति” सिद्धांत का विरोध ही नहीं निषेध भी करती है। इन विचारों के साथ जो सिद्धांत सामने आया उसे “निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत” कहा गया। व्यक्तित्व से पलायन का अर्थ है अपने और पराए की भेद-बुद्धि से मुक्त हो जाना। निर्वैयक्तिक हो जाना। इसी अवस्था को भारतीय काव्यशास्त्र में कहा गया है,

“निज मोह संकट निवारण”।

4 टिप्‍पणियां:

  1. कविता के नये सोपान........ विषयक पोस्ट बहुत अच्छा लग रहा है. आभार..

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  2. कविता का यह सोपान भी बहुत विश्लेषात्मक ...ज्ञानवर्धन में सहायक...

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  3. स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष में पढी थी. तभी तो बोझ लग रहा था.... आज पढ़ कर आनंद आया ! कविता के प्रति समझदारी भी विकसित हुई. धन्यवाद !!!

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  4. बेहद ज्ञानवर्धक विश्लेषण्।

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