कभी-कभी ऐसा लगता है कि कविता का युग समाप्त हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है बौद्धिक सन्निपात से ग्रसित कविताओं की बहुतायात। यह बात तय है कि जहां कविताएँ बौद्धिक होगी, वहां वे शिथिल होगी। कविता की निर्मिति इसी जीव जगत से होती है। यदि कविता कुछ ही परिष्कृत बौद्धिक लोगों को प्रभावित या आकृष्ट करती है तो कही-न-कही कविता कमजोर अवश्य है। कविता की व्याप्ति इतनी बड़ी हो कि वे जन सामान्य को समेट सकें। आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में संप्रेषण की समस्या पर विचार करने के लिए हमने डॉ० रमेश मोहन झा से निवेदन किया था। उन्होंने हमारे निवेदन पर यह आलेख दिया है। उसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
संप्रेषण की समस्या
काव्य की प्रारम्भिक अवस्था से ही कवियों के समक्ष अनुभूत सत्य को मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने की समस्या बड़ी प्रमुख रही है। प्रत्येक युग का कवि कुछ विशिष्ट अनुभूतियाँ उपलब्ध कर उन्हें संपूर्णता में व्यक्त कर अपनी कला को सफल मानता है। काव्य की असफलता का कारण इन्हीं दो पक्षों – अनुभूति और अभिव्यक्ति में से किसी किसी एक का त्रुटिपूर्ण होना है।
यदि अनुभूति अपरिपक्व है तो उसके महत्व का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रेष्ठ साहित्य के लिए अनुभूति की परिपक्वता का ही महत्व है उसके बिना न तो वस्तु का महत्व होगा और न शिल्प-साधना का प्रश्न सामने आएगा। अनुभूति की परिपक्वता पहली शर्त है। इसके बाद ही शिल्प का प्रश्न आता है, अतः शिल्प की पूर्णता श्रेष्ठ काव्य की दूसरी अनिवार्य शर्त्त है।
अनुभूति का उल्लेख होते ही उसमें बिना सोचे-समझे एक विशेषण “तीव्र” जोड़ दिया जाता है। लेकिन अनुभूति की तीव्रता का आशय क्या है, इसे कम लोग जानते हैं। अनुभूति की तीव्रता एक्साइटमेंट नहीं है। अज्ञेय ने ठीक ही कहा है –
भावनाएं नहीं है सोता
भावनाएँ खाद है केवल
जरा इनको दबा रखो
जरा सा और पकने दो
तले और तपने दो
अँधेरी तहों की पुट में
पिघलने और पकने दो
रिसने और रचने दो
कि उनका सार बनकर
चेतना की धरा को
कुछ उर्वर कर दे
- “हरी घास पर क्षण भर”
काव्य के लिए अनुभूतियों के शोध का बड़ा महत्व है। इसी से शैली में प्रभावोत्पादकता आती है। आवेश में सृजन संभव नहीं है। सृजन की स्थिति आवेश की स्थिति से नितांत भिन्न है।
सृजन के लिए धैर्य की नितांत आवश्यकता है। हड़बड़ाहट में सबकुछ कहने की चेष्टा में काव्य सूचना का जखीरा बन जाता है और काव्यात्मकता गुम हो जाती है। साथ ही धैर्य का अभाव और आवेश की अधिकता के कारण उनका अनुभूत सत्य कलात्मक ढंग से संप्रेषित होने से रह जाता है, भाषा भी फीलपाँवो वाली हो जाती है। अतः अनुभूत सत्य को संप्रेषित करने के लिए संयम अनिवार्य है। एक-एक शब्द तौल-मोलकर रखना है। अतः कवियों को चाहिए कि वे शब्दों का संधान, शोध और परिमार्जन करते रहें। इसके बिना वे श्रेष्ठ रचना रच नहीं सकते। उर्दू के शायर एक एक शब्द गढ़ने में पूरी ताकत या यों कहें कि भावों को सकेन्द्रित कर देते हैं तब जाकर एक शे’र कहते हैं, और उसकी गहराई देखकर लोग दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं। उनके यहां इसे वज़न कहते हैं। हमारे यहां भी यह वज़न वाली शैली अपनानी चाहिए तभी कविता में जान आ पाएगी। अज्ञेय इस विषय में कहते हैं –
किसी को
शब्द हैं कंकड़
कूट लो पीस लो
छान लो डिबिया में डाल दो
किसी को
शब्द है सीपियाँ
लाखों का उलट फेर
कभी एक मोती मिल जाएगा।
-- “इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये”
शब्दों के साथ-साथ बिम्बों का भी ज़िक्र जरूरी है। आज कविता में विम्बों की जो प्रधानता है उसका संबंध भी अनुभूत सत्य के संप्रेषण से है। बिम्बों की योजना अभिव्यक्ति को समर्थ और सार्थक बनाने का साधन या निमित्त है। यदि बिम्बों में सजीवता है तो उसका कारण अनुभूति की सत्यता और ईमानदारी है।
अभिव्यक्ति की प्रौढ़ता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की “एकुरेसी” कविता को पुष्ट और पूर्ण बनाती है। “एकुरेसी” को केंद्र में रखते हुए कविता के शब्दकोश में अत्यधिक व्याप्ति आ गई है। लोक से लेकर अनेक शास्त्रों की परिभाषिक शब्दावली को आयात किया गया है।
अब इसके प्रयोग की जिम्मेदारी कवियों पर है। इसे सहज ढंग से गूंथने से भाषा में स्पष्टता, बेधकता, अचूकता और सार्थकता को गुंफित किया जा सकता है। और वही काव्य श्रेष्ठ माना जाएगा जिसमें शब्द-शब्द धुला पूछा हो, उसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों का सम्मिश्रण हो।
काव्य की असफलता का कारण इन्हीं दो पक्षों – अनुभूति और अभिव्यक्ति में से किसी किसी एक का त्रुटिपूर्ण होना है।
जवाब देंहटाएंयहाँ प्रस्तुत हर लेख ज्ञान बढ़ाने में सहायक है ..
अनुभूति की अभिव्यक्ति बोधगम्य होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंसटीक बात कही है
जवाब देंहटाएं"हड़बड़ाहट में सबकुछ कहने की चेष्टा में काव्य सूचना का जखीरा बन जाता है और काव्यात्मकता गुम हो जाती है।"
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित और मार्गदर्शक आलेख है। नयी कविता का सबसे बड़ा दोष सम्प्रेषण का संकट ही है। हिंदी में इस युग के पुरोधाओं ने ऐसे आयातित प्रतीक और बिम्बों का प्रयोग किया जिसका लोक-जीवन से कोई सरोकार नहीं था। पाठकों के लिए उन अश्रुतपूर्व बिम्बों के द्वारा रचना की अनुभूति का साक्षात्कार करना नितांत कठिन हो गया। परिणामस्वरुप कविता एक जटिल बौद्धिक सम्पदा बन कर रह गयी।
आदरणीय झा जी,आपने अपने आलेख में दो तीन बातें कहीं है.. जिसमे "शोध", "धैर्य" और "विम्ब" पर विशेष आग्रह किया है.. थोड़ी बहुत कविता लिखने में जो सृजनात्मक कठिनाइयां आती हैं उनपर आपके इस योगसूत्र से समाधान किया जा सकता है... ऐसा लग रहा कि आपने इस संक्षिप्त आलेख के माध्यम से मुझे कसौटी मिल गयी हो कविता को लिखने, कसने की... बहुत ही सारगर्भित आलेख है और मुझे व्यक्तिगत तौर पर लग रहा है कि मेरी कवितों में सम्प्रेषण की समस्या का हल मिल गया है. मनोज जी ने जिस प्रकार आपका परिचय करवाया है.. आपके इस आलेख का वजन और भी बढ़ गया है. ...
जवाब देंहटाएं"प्रत्येक युग का कवि कुछ विशिष्ट अनुभूतियाँ उपलब्ध कर उन्हें संपूर्णता में व्यक्त कर अपनी कला को सफल मानता है। काव्य की असफलता का कारण इन्हीं दो पक्षों – अनुभूति और अभिव्यक्ति में से किसी किसी एक का त्रुटिपूर्ण होना है। यदि अनुभूति अपरिपक्व है तो उसके महत्व का प्रश्न ही नहीं उठता।"
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा है आपने ! आपका यह आलेख ज्ञानवर्धक है और नए कवियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगा !
बिल्कुल सच है की काव्य के लिए अनुभूति और अभिव्यक्ति ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्व हैं.
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिंदी - अपने नाम के अनुरुप बहुत सही कार्य सम्पादित कर रही है. हिंदी को आगे ले जाना और सम्पूर्ण विश्व में इसको उचित स्थान पर पहुँचने के प्रयास की दिशा में एक उत्तम कदमहै.
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Badi mahatavpurn baaten likhi hain. Mujhe to bahut achhi lagi.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा सधा हुआ आलेख.
जवाब देंहटाएंबहुत महत्वपूर्ण बातें कही हैं आपने। आपका आभार। भविष्य में भी आपसे सहयोग और योगदान की कामना है।
जवाब देंहटाएंaapke chune huye artical chhattisgha mitra masik me prakashit karna chahte hain. anumati dijiyesi
जवाब देंहटाएंDr Sudhir Sharma 9039058748