काव्य प्रयोजन (भाग-७)कला कला के लिए |
पिछली छह पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) और (६) स्वच्छंदतावाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। आइए अब पाश्चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं। |
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में “कला कला के लिए” सिद्धांन्त सामने आया। कुछ हद तक स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्ति ही कलावाद का रूप धारण कर सामने आई। इस सिद्धांत को फ्रांस के विक्टर कूजे ने प्रतिपादित किया था। बाद में आस्कर वाइल्ड, ए.सी. ब्रैडले, ए.सी. स्विनबर्न, एडगर ऐलन पो, वाल्टर पेटर आदि कलाकारों ने भी इस सिद्धांत का समर्थन किया। इस सिद्धांतकारों का मानना था कि काव्यकला की दुनिया स्वायत्त है, ऑटोनोमस है, अर्थात् जो किसी दूसरे के शासन या नियंत्रण में नहीं हो, बल्कि जिस पर अपना ही अधिकार हो। उनका यह भी मानना था कि कला का उद्देश्य धार्मिक या नैतिक नहीं है, बल्कि ख़ुद की पूर्णता की तलाश है। अपने इन विचारों को रखते हुए कलावादियों ने कहा कि कला या काव्यकला को किसी उपयोगितावाद, नैतिकतावाद, सौन्दर्यवाद आदि की कसौटी पर कसना उचित नहीं है। कलावादियों के अनुसार कला को अगर किसी कसौटी पर परखना ही है तो उसकी कसौटी होनी चाहिए सौंदर्य-चेतना की तृप्ति। उनके अनुसार कला सौंदर्यानुभूति का वाहक है और उसका अपना लक्ष्य आप ही है। कलावाद एक आंदोलन था। उन्नीसवीं शताब्दी में काव्य और कला की हालत दयनीय थी। इसी हालात की प्रतिक्रिया की उपज था यह आन्दोलन। इस आंदोलन के वाहकों का कहना था कि काव्य और कला की अपनी एक अलग सता है। इसका प्रयोजन आनंद की सृष्टि है। “POETRY FOR POETRY SAKE!” अर्थात् अनुभव की स्वतंत्र सत्ता। “This experience is an end in itself, is worth having on its own account, has an intrisic value.” अर्थात् काव्य से प्राप्त आनंद की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इस प्रकार स्वच्छंदतावाद, सौंदर्यवाद और कलावाद तीन अलग-अलग वैचारिक दृष्टिकोण थे। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। वाद्लेयर, रेम्बू, मलामें में यह झलक मिलती है। बिम्बवाद तथा प्रतीकवाद कलावाद के ही विस्तार थे। बाद में बाल्ज़ाक और गाटियार आदि ने रूप-विधान पर बल दिया। धीरे-धीरे “कला कला के लिए” सिद्धांत का विकास हुआ और रूपवाद के अलावा संरचनावाद, नयी समीक्षा, नव-संरचनावाद या उत्तर-संरचनावाद, विनिर्मितिवाद आया। |
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बहुत अच्छी जानकारी देती रचना |बधाई |
जवाब देंहटाएंआशा
जानकारी के लिए धन्यवाद ज्ञान वर्धक लेख के लिए बधाई
जवाब देंहटाएं... gyaanvardhak post !!!
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ज्ञानवर्धक आलेख्।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति ...अच्छी जानकारी मिल रही है इस श्रंखला से
जवाब देंहटाएंआरंभ से ही यह कडी मुझे बहुत अच्छी लग रही है. यह पोस्ट भी अच्छी लगी । धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआपके इस लेख में हिंदी का यह परिष्कृत रूप पढ़कर महसूस हुआ कि काफी मेहनत और लगन से लिखी गई रचना है । वास्तव में आपकी यह कृति उच्च कोटि के हिंदी के लेखकों के समकक्ष है ।
जवाब देंहटाएंआज की कक्षा में नई बात , नया पक्ष. बहुत ही सारगर्भित होती है ये साहित्य की कक्षा !
जवाब देंहटाएंउच्च कोटि की जानकारी देती हुई रचना ।
जवाब देंहटाएंशब्द भंडार बहुत पसंद आया और खासकर संदेश......... बहुत ही अच्छा message दे रहा है । राजभाषा हिंदी तो निश्चित रूप से जानकारियों का खजाना है ।
sundar evam gyanvardhak post.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी है .
जवाब देंहटाएंआभार .
nice post with emphatically dealt informations!
जवाब देंहटाएंsubhkamnayen:)
अच्छी जानकारी के साथ सार्थक आलेख ...धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी के साथ सार्थक आलेख ...धन्यवाद !!
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