इतिहासमध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल-भाग-१मनोज कुमार |
चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता और रूढ़िवादिता पर आधारित धर्मान्धता को चुनौती दी। हमारे देश में हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। सामाज में तरह-तरह के भेद-भाव विद्यमान थे। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं धर्मों के आधार पर बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा रूढ़िवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस तरह की व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएं जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएं रूढ़िवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता और रूढ़िवादिता पर आधारित धर्मान्धता को चुनौती दी। यह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध और क्रमिक रूप से चलने वाला आंदोलन नहीं था, बल्कि समय-समय पर संत, विचारक और समाज सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में सुधार उनका लक्ष्य था। इनमें से अधिकांश संत समाज की छोटी जातियों से आए थे। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार ढ़हाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ज्ञान और तप का मार्ग छोड़ कर भक्ति का मार्ग अपनाना इस आंदोलन का विशेष गुण था। यद्यपि भक्ति-मार्ग के विभिन्न संतों के विचारों में पूर्ण समानता नहीं थी, तथापि अधिकांश एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि ईश्वर एक है, उसके नाम अलग-अलग हैं। वे मानते थे कि यदि पूर्ण श्रद्धा से ईश्वर की भक्ति की जाए तो मोक्ष की प्राप्ति होगी। अत: मनुष्य को ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को जीत कर ईश्वर की भक्ति में रम जाना चाहिए। उनका मानना था कि ईश्वर मंदिरों में नहीं, बल्कि लोगों के हृदय में बसते हैं। अगर सच्ची भक्ति हो तो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। परन्तु इसके लिए सांसारिक इच्छाएँ एवं प्रलोभनों का त्याग करना होगा। इसके अलावा भक्त को एक गुरु की आवश्यकता पड़ेगी जो कि भक्ति के मार्ग पर उसे दिशा-निर्देश देगा। गुरु के बिना ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती क्योंकि वही अत्मा को सुषुप्तावस्था से जागृत कर सकता है। मध्यकाल में धार्मिक सुधार की भावना का विचारधारा के रूप में एक आंदोलन का रूप लेना कोई नई बात नहीं थी। एक धारणा के रूप में भक्ति मार्ग काफी पहले से प्रचलित था। संतों ने किसी नये धर्म की स्थापना के बजाए समाज में प्रचलित धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया साथ ही इन आंदोलनकारी संतों ने अन्य पंथों या धर्मों के प्रति आदर का भाव रखते हुए विश्व-प्रेम और विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया। इन संतों ने दोहा, गीत आदि छांदसिक कविताओं के माध्यम से सरल और स्थानीय भाषाओं में अपने-अपने मतों का प्रचार किया। फलत: भक्ति आंदोलन का काफी स्वागत हुआ। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद भारत में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच मतों, धारणाओं एवं आस्थाओं का आदान-प्रदान हुआ। परिणामस्वरूप कुछ ऐसे पंथ और अनेक ऐसे संत आए जो हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच के भेद-भाव को मिटाना चाहते थे। मध्यकाल में धार्मिक सुधार की भावना का विचारधारा के रूप में एक आंदोलन का रूप लेना कोई नई बात नहीं थी। एक धारणा के रूप में भक्ति मार्ग काफी पहले से प्रचलित था। भक्ति आंदोलन का आरंभ सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हो चुका था। हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गये थे : ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग एवं भक्ति मार्ग। मध्यकालीन भारत में ज्ञान मार्ग पर शंकराचार्य ने विशेष बल दिया था। उन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। उनके अनुसार संसार में एक ही सर्वोच्च सत्ता है अन्य सारी घटनाएं उसी सत्ता का प्रतिबिम्ब हैं। हमारा अस्तित्व एक मिथ्या है। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। आत्मा-परमात्मा ही है, अलग नहीं। सांसारिक माया के कारण मनुष्य आत्मा-परमात्मा के एकत्व को न पहचानने की भूल करता है। जीवात्मा का परमात्मा के मिलन से ही मोक्ष संभव है। इसकी प्राप्ति ज्ञान से संभव है। इस विचारधारा के साथ कठिनाई यह थी कि यह सामान्य लोगों की समझ से बाहर थी। इसके अलावा जातिप्रथा एवं रूढ़िवादिता के कारण पढ़ाई-लिखाई एवं अक्षरों का ज्ञान उस समय में समाज के ऊंचे तबके के लोगों तक ही सीमित था। अत: जनसाधरण इस दार्शनिक मार्ग को न तो अधिक समझ ही पाया और न ही यह आम जनता का लोकप्रिय समर्थन ही पा सका। |
ज़ारी … अगला अंक गुरुवार ७ सितंबर २०१० को। |
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
इतिहास-मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल(१)
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मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, शानदार, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंकिसी भी ज्ञान को जनसाधारण तक पहुंचना चाहिए .. इसी से कल्याण हो सकता है !!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी देता लेख ...
जवाब देंहटाएंbadiya jaankari wala lekh....
जवाब देंहटाएंसामयिक और बेहतरीन जानकारी के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख !
जवाब देंहटाएंब्लोग के जरिये इतिहास की जानकारी भी मिल रही है.. बहुत बढिया आलेख!
जवाब देंहटाएंआज का यह आलेख बहुत पसंद आया । मध्यकालीन भारत का बहुत सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है आपने । इसी कारण ही तो हिंदी साहित्य में मध्य काल को भक्ति काल के नाम से भी जाना जाता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सी बातें जानने को मिल रही हैं इस पोस्ट के माध्यम से ....
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक लेख आपको बधाई हो
जवाब देंहटाएंआप की रचना 01 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
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