कहानी ऐसे बनी – 18
सास को खांसी बहू को दमा
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।
रूपांतर :: मनोज कुमार
हैलो जी ! लीजिये, आ गया रविवार ! मन लीजिये संवार !! और सुनिए एक ताज़ी कहानी !!! अब क्या बताएं .... यह तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही ३१ दिसंबर की रात को बारह का घंटा बजता है, बस सारा संसार हर्ष और उल्लास से भर जाता है। हम तो एक ही बात जानते हैं भैय्या ! जब बसंती बयार बहेगी तो मनवा में हिलोर तो मारेगा ही। पर्व-त्यौहार का बहाना करके लोग मन का उल्लास बाहर करते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-क़स्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली परवे-त्यौहार हो रहा है।
शहर में तो आज-कल HAPPY NEW YEAR की धूम मची है। सभी नुक्कड़-चौराहे पर जगमग-जगमग, चकमक-चकमक!! ताजा-ताजा रंग-बिरंगे फूलों की सजावट! तरह-तरह के प्रकाशों की सजावट। अरे भाई, अँगरेज़ मुल्क में जो नया साल आता रहा होगा वो अपने यहां भी पहुंच ही गया है, तो लगे हाथ हम भी आपको HAPPY NEW YEAR बोल ही दें। वरना अपने यहां तो जब नयी फसल आएगी तो HAPPY NEW YEAR मनाया जाएगा। सबसे ज़्यादा मन तो खेत-खलिहान में लहराती फसल को ही देख कर न हुलसता है। पर इधर शहर में जवान-व्यस्क, लड़का-लड़की सब हर्षोल्लास के साथ नए साल की उमंग में रमे हैं। अब पार्क-वार्क में गला-वला मिलते तो दिखते ही हैं, डिस्को-विस्को में नाच-गान भी होता है। हम तो ठहरे भुच्च देहाती, हमको इस तरह के HAPPY NEW YEAR का ज्यादा विध-विधान का पता नहीं है। सब इधर 'HAPPY NEW YEAR' मनायेगा और हम इहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुछ भी है तो अपना गाँव, स्वर्ग से भी सुन्दर है।
गाँव में तो हमारे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही HAPPY NEW YEAR का नाम जानते हैं। बांकी को तो पता भी नहीं है। लेकिन यह मत समझिये कि गाँव में सुन्ना उपवास है। भाई, HAPPY NEW YEAR तो गांव में भी हो रहा है। ... पर अपने अंदाज़ में। विशुद्ध और खालिस देहाती। सत्यनाराण भगवान की पूजा का इंतज़ाम किया जा रहा है। अब सत्यनाराण भगवान की पूजा क्या होता है, यह भी बताना पड़ेगा क्या ? अंगरेज़ मुल्क में नए साल के आगमन का उत्साह नाच-गा कर मनाते हैं और अपने यहाँ पूजा-पाठ करा देते हैं। लेकिन यह मत समझिये कि यहाँ भी तैय्यारी में कोई कमी है। यहाँ लाइट की लड़ियों के बदले ध्वजा-पताका लहरा रहा है और गुलाब नहीं तो गेंदा ही खिल रहा है। अब तो फिल्म में भी तो गीत में कहता है 'ससुराल गेंदा फूल....' सो नया साल आया हैं तो सजावट गेंदे फूल से होगा ना... !!
सारा गाँव हर्ष-उल्लास से खल-खल कर रहा था। सबका अंगना-द्वार गाय के गोबर से लीपा-पोता गया है। लगता है जैसे इसी गाँव में शिवजी की बरात आयेगी। हम तो भोरे-भोर चले जा रहे थे, ओझटोली। भौजी ने कहा था पंडितजी को सत्यनाराण भगवान की कथा कहने के लिए बुला लाने। गाँव-घर की शोभा निरख-निरख हमरा हृदय बिहस रहा था। बनइ न बरनत नगर निकाई.... ओह! इस सुन्दरता पर तो हम स्वर्ग को भी लात मार दें।
लेकिन यह क्या !!! मुसाई झा के दालान पर अभी भी धूल उड़ रही है। पूरा गाँव जवानी से छम-छम कर रहा है और सबका बुढ़ापा इन्ही के द्वार पर समा गया है। हम आवाज लगाए, 'पंडी जी ! ओ पंडी जी !!'
अन्दर से खिलखिलाती हुई पतली आवाज आई, 'पंडी जी काम से गए हैं.... बाद में आइयेगा।'
हम जैसे ही उनके दरवाजे से मुड़े कि देखते है, बेचारे बूढ़े मुसाई झा माथे पर गोबर का छिट्टा उठाए हांफते चले आ रहे हैं। हम बोले, 'प्रणाम पंडीजी !'
पंडितजी आशीर्वाद क्या देंगे, धरफरा कर बोले, 'ऐ ज़रा छिट्टा पकड़ो ... !'
हमने छिट्टा पकड़वा कर नीचे रखवाया फिर पंडितजी गमछी से मुँह पोछते हुए बोले, 'अब कहिये बौआ ! क्या बात है ?'
हमने कहा पंडितजी ! भौजी ने बुलाया था, कथा बांचने के लिए। मुसाई झा बोले, 'दोपहर में आयेंगे।'
हम बोले, 'ना पंडीजी ! भौजी तब तक उपवास में कैसे रहेंगी? अभी ही बुलाई है। कहा है सबसे पहले हमरे यहाँ कह दीजिये फिर कहीं जाइयेगा।’
मुसाई झा बोले, 'हाँ ! सो तो सबसे पहिले आपही के यहाँ आयेंगे। लेकिन दोपहर से पहिले नहीं होगा।'
हम बोले, 'पंडीजी ! इतना लेट क्यों ? अभी ही चलिए न।'
मुसाई झा थोड़ा गर्माते हुए बोले, 'हम बोले न दोपहर में आयेंगे। अभी हमको फुरसत नहीं है। घर का इतना सारा काम है। सारा गाँव पवित्र हो गया। हमरे घर-द्वार में अभी झाड़ू भी नहीं लगा है। लीपा-पोती फिर रसोई.... !'
हम बोले, 'तो ये सब आप कीजियेगा... ?'
मुसाई झा रिसियाके बोले, 'नहीं तो तुम्हारा ससुर करेगा... शैतान कहीं का !'
हम बोले, 'अरे पंडीजी वह नहीं, कहने का मतलब अन्दर पंडिताइन है, बहू भी है। फिर आप लीपा - पोती.... ?'
मुसाई झा तमक के बोले, 'यहाँ हमको जो सीख दे रहे हो सो ज़रा उनसे ही जा कर बतिया लो ना... !!'
हम भी पूरे जोश में मुसाई झा के आँगन में घुसे। पंडिताइन खटिया पर बैठी पान लगा रही थी। हमने कहा, 'गोर लागी पंडिताइन !'
पंडिताइन प्रेम से अशीसती हुई बोली, 'जुग-जुग जीयो बाबू। शहर से कब आये?'
हमने कहा ‘कल्ह ही आये हैं पंडिताइन।’ पंडितजी के ललकारे से चले तो आये थे मगर मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। क्या कहें ? कैसे कहें ? किसी तरह हिम्मत कर के पर्दे में बोले, 'पंडिताइन ! सारा गाँव खल-खल कर रहा है। और आपका घर-आँगन अभी तक बासी ही है।'
पंडिताइन अभी गाल में पान रखी ही थी कि हमरी बात सुन कर खांस पड़ीं। ज़ोर की खांसी उठ गयी बेचारी को। 'खों....खों....अक्खों..... होआक...... थू..........!' आंगन में बलगम फेंकते हुए बोली, 'बौआ ! अब ऐसे ही ही रहेगा अंगना-घर। अब पहिले वाला स्वास्थ है हमारा जो लीपा-पोती करें ? खांसी से दम नहीं धरा जा रहा है। अभी जरा सा धूप सेंकने बैठे हैं बाहर.....!'
हमने कहा, 'हाँ ! वह तो है ! आपकी उम्र भी तो हो गई। मगर भौजी मतलब चुहलदेव भैय्या की ..... ?'
पंडिताइन फिर से दूसरा पान लगाते हुए बोली, 'अब भौजी की बात भौजी से ही पूछो। उस उम्र में तो हम लोग पहार ढा देते थे।'
हम कुछ पूछते, इस से पहले ही पलंग पर बैठी पैर रंग रही चुहलदेव झा की लुगाई बोलीं, 'बौआ ! यहाँ हमारा दुःख कौन समझे वाला है ? बचपन से ही ... बौआ दमा पकड़ लिया। वह तो वैसा घर था .... हमारे पप्पा ख्याल-बात रखे, डाक्टरी इलाज हुआ .... जो हम हैं।'
भौजी बीच में जोर-जोर से दो बार सांस छोड़ती हुई बोली, 'यहाँ कौन देखने वाला है ? बौआ ! शरीर जवान लगता है, बांकी भीतर-भीतर कितना कष्ट है सो कौन समझेगा... ? इतना दम फूलता है कि रात भर जाग-जाग कर परात करते हैं। हंपसते-हंपसते पंजरी में दर्द हो गया है। कभी-कभी तो लगता है अब सांस छूटा कि तब... ! ओहों... सों..... सोएँ.....साईं........!!'
बाप रे बाप ! भौजी की सांस सच में तेजी से चलने लगी थी।
आँगन में खड़े मुसाई झा सब सुन रहे थे। हम अपना जैसा मुँह लेके जैसे ही उनके सामने से गुजरे, पंडितजी तुरत वेदमंत्र पढ़ दिए, 'सुन लिए न बाबू साहेब ! "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा ?" सास खो-खो कर रही है और पतोहू का सोएँ साईं दम फूल रहा है तो घर का काम कौन करेगा ? बचे मुसाइए झा न सब से स्वस्थ .... इसीलिए ही कहे कि बौआ बहुत काम है अभी, बाद में आयेंगे !'
मुसाई झा के व्यंग्य में भी व्यथा साफ़ झलक रही थी। इसीलिए इस कहावतो पर हंसी नहीं आयी।
लेकिन उ दिन से हमने भी सीख लिया। जब भी कोई अपने निहायत कर्त्तव्य में भी सच या झूठ बहाना करता है और मजबूरी में वह काम किसी और के सिर बंधता है या नहीं होता है तो हमें बस मुसाई झा की बात याद आती है। "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा !!"
राजभाषा हिंदी ब्लॉग यूँ ही फले फूले और नित नवीन विधा से हमारा परिचय होता रहे यही कामना है..
जवाब देंहटाएंयह कहानी कैसे बनी सुनकर मज़ा आ गया.. करण जी की लेखनी के तो हम कायल हैं,यह स्तम्भ भी आनंद प्रदान करता है.
नए साल की पहली पोस्ट.प्यारी रचना....अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंनव वर्ष पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ.
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'पाखी की दुनिया' में नए साल का पहला दिन.
स्थानिये कहावतों के माध्यम से सुन्दर कहानी। आपको सपरिवार नये साल की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंअति सुंदर, नव वर्ष की मंगलकामनाएँ।
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