‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का प्रथम पाठ पढाने वाले महाकवि विद्यापति
मनोज कुमार
प्रकृति के उपासक एवं जनकवि विद्यापति का बिहार राज्य के मधुबनी ज़िला के विष्फी गांव में जन्म हुआ था। उन्होंने अपनी सरस, अनुपम रचनाओं के बल पर महाकवि के रूप में अमरत्व प्राप्त किया। महाकवि विद्यापति का काल १३६० से १४४८ के बीच का माना जाता है। पूर्वोत्तर भारत के लोकभाषा काव्य के आकाश में महाकवि विद्यापति प्रथम महान नक्षत्र हैं। जिस समय विद्यापति का जन्म हुआ था (लगभग १३४०) उस समय अंगरेजी साहित्य शैशवकाल में था। विद्यापति का प्रादुर्भाव असमिया कवि शंकर देव, जन्म १४४९, बांग्ला कवि चंडी दास जन्म १४१८, ओड़िया कवि रामनंद राय, जन्म १५वीं शताब्दी के मध्य, हिन्दी के कवि कबीर, जन्म १४४७ और सूर दास जन्म १४३५ से बहुत पहले हो गया था। उनके जन्म तिथि पर विवाद है पर पुण्य तिथि के बारे में चर्चित है ‘विद्यापति आयु अवसान कार्तिक धवल त्रयोदशी जान’ यानी कार्तिक धवल त्रयोदशी – महाकवि विद्यापति का अवसान दिवस है (लगभग १४४०)।
मूलतः मैथिली भाषा में लिखने वाले महाकवि ने ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा। ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।’ का प्रथम पाठ लोगों को पढा कर मातृभाषा के प्रति अनुराग की महता को बताया। अगर हम ग़ौर से देखें तो मैथिली साहित्य में विद्यापति के युग को अंगरेज़ी साहित्य के शेक्सपीयर के युग से तुलना की जा सकती है।
कान्ह हेरल छल मन बड़ साध।
कान्ह हेरइत भेलएत परमाद।।
तबधरि अबुधि सुगुधि हो नारि।
कि कहि कि सुनि किछु बुझय न पारि।।
मैथिली भाषा के माध्यम से प्रबंध काव्य एवं गीत रचना के कारण विद्यापति अपने समकालीन विद्वानों के बीच एक नक्षत्र की तरह चमके। विद्यापति ठाकुर की रचनाओं ने उन्हें मिथिलांचल से भी आगे एक बड़े क्षेत्रफल में पहचान दिलाई। बंगाल, ओड़िसा और असम में उन्हें एक महान वैष्णव माना गया। बंगाल में विद्यापति की चर्चा कवि चंडीदास के समकक्ष होती है। बंगाल के महान वैष्णव संत चैतन्य देव महाप्रभू पर भी विद्यापति के गीतों का प्रभाव साफ दिखा। कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के आदर्श भी विद्यापति ही थे। उनकी कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ की कविताओं पर भी महाकवि की छाया साफ दिखती है।
सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास।
मुकुर हाथ लए करए सिङ्गार। सखि पूछए कैसे सुरत-बिहार।
निरजन उरज हेरइ कत बेरि। बिहुसए अपन पयोधर हेरि।
उन्होंने गीत या पद, में अपने बात मैथिली भाषा में लोगों के सामने रखी। ‘लिरिक’ में मानव मन की सहज और मौलिक अभिव्यक्ति होती है। अगर वास्तविकता में देखा जाए तो मानव मन के समर्थतम स्रष्टा थे महाकवि विद्यापति। उनके गीतों की लोकप्रियता का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि बिहार के मिथिलांचल में चले जाइए और देखिए कि इसे पंडितों से लेकर निरक्षरों तक मुक्त कंठ और राग से प्रतिदिन और हर दैनिक कार्य के साथ गाते रहते हैं
माधव ई नहि उचित विचार।
जनिक एहनि धनि काम-कला सनि से किअ करु बेभिचार।।
ऐसा नहीं है कि महाकवि विद्यापति ने सिर्फ़ मैथिली भाषा में रचना की। वो शायद विश्व के एकमात्र रचैता होंगे जो दो-दो भाषाओं के द्वारा कवि एवं साहित्यकार माने गए हैं। उनके साहित्यिक उत्कर्ष का पता तो इसी से लगता है कि इस युग की दो प्रधान भाषा हिन्दी और बांग्ला ने उन्हें अपनी भाषा का साहित्यकार होने का दावा किया है। सर जान वीम्स ने स्पष्ट कहा है कि कवि विद्यापति ही एक ऐसे कवि थे जिन्हें जिन्हें दो भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाली जनता ने अपनी भाषा का कवि माना है। सर जार्ज अब्राहम ग्रेयर्सन ने इस बात को साहित्यिक इतिहास की अद्वितीय घटना करार दिया है। उन्होंने कहा है कि यह संभव है कि हिन्दू धर्म का सूर्य अस्त हो जाए या कृष्ण तथा कृष्ण भक्ति काव्य लुप्त हो जाएं लेकिन महाकवि द्वारा रचित राधा-कृश्ण लीला विषयक गीत के प्रति लोगों का अनुराग बना ही रहेगा।
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।
महाकवि विद्यापति एक तरफ़ प्राकृतिक सौन्दर्य, राधा-कृष्ण, भगवान भोले नाथे केन्द्रीत रचनाएं की, वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार करते हुए पदावलि लिखी। उनका पहला प्रबंध काव्य ‘कीर्तिलता’ है। उनकी लेखनी का विस्तार तो संस्कृत में शैवर्सव-स्वसार, गंग, गावाक्यावलि और दुर्गाभक्तिरंगिणी जैसी रचनाओं तक पहुंची। आम जनता की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए महाकवि ने गया श्राद्ध में अनुष्ठेय कर्म से संबंधित ‘गया पत्रलक’ जनसामान्य के उपयोग हेतु पत्र लिखने का नमूना ‘लिखनावलि’ का निर्माण किया। मनुष्यों की पहचान कराती उनकी रचना ‘पुरुष परीक्षा’ आज भी प्रासंगिक है। समाज में बंटते परिवार जैसी समस्या पर ‘विभासागर’ जैसी रचना कर महाकवि ने सूक्ष्म दूरदृष्टि का परिचय दिया।
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे। छाड़इते निकट नयन बह नीरे।
कर जोड़ि बिनमञो विमलतरङ्गे । पुन दरसन होअ पुनिमति गङ्गे ।
एक अपराध छेँओब मोर जानी । परसल माए पाए तुअ पानी।
कि करब जप तप जोग धेआने । जनम सुफल भेल एकहि सनाने।
भनइ विद्यापति समन्दञो तोही । अंत काल जनु बिसरह मोही।
जहां एक ओर मिथिला में उन्हें श्रृंगार रस के गीतकार व शिव भक्त के रूप में ख्याति मिली, वहीं दूसरी ओर वे सामाजिक बुराइयों पर भी प्रहार करते रहे। सामाजिक दुस्थिति और राजनीतिक अराजकता जैसे विषयों पर महाकवि विद्यापति ने वर्षों पूर्व अपनी लेखनी से भारतवासियों को आगाह कर दिया था। देखिए उनकी पंक्तियां
ठाकुर ठग भए गेल चोरे छप्परिधर सिज्जिअं
दास गोसाउंनि गहि अधम्म गये धंध निमज्जिअं
खेल सज्जन परिभविअ कोइ नहिं होय विचारक
जाति अजाति विवाह अधम उत्तम कां पारक
अक्खर रस बुझनिहार नहीं कइकुलभर्भ भिक्खारि भऊं
तिरहुति तिरो हितसव्वगुणे रा गणेश जवे सग्गगऊं
महाकवि विद्यापति की रचना में विरह वर्णन प्रेम तन्मयता का यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति अद्वितीय है। देखिए
सखी हे हमर दुखक नहीं ओर
लोचन नीर तटनि निर्माण
के पतियालए जायत रे
माधव कठिन हृदय परवासी
विरह व्याकुल बकुलतरू पर
नयनक नीर चरण तल गेल
महाकवि शिव के उपासक थे। मान्यता यह है कि उनके भक्तिभाव से रीझकर साक्षात महादेव उनके यहां नौकर उगना के रूप में आ गये। विद्यापति को शिवजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। और जब उगना रूठ कर चले जाते हैं तो उनकी लेखनी से निकला गीत ‘उगना रे मोर कत गेल’ आज तक घर-घर में गाया जाता है। इसी तरह विद्यापति रचित ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानथ’ अथवा ‘तो हे प्रभु त्रिभुवन नाथ हे हर’, हमसे रूसल महेसे, गौरी विकल मन करथि उदेसे आदि पद आज भी मिथिला के घर-घर में गाये जाते हैं।
कखन हरब दुःख मोर
हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल
सुख सपनहु नहि भेल हे भोला ।
एहि भव सागर थाह कतहु नहि
भैरव धरु करुआर ;हे भोलानाथ ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहु अभय बर मोहि, हे भोलानाथ।
उन्होंने कृष्ण-राधा विवाह बाल विवाह के विरोध में लिखा ‘पिया मोर बालक हम तरुणी गे, कोन तप चुकलौं मेलौ जननी गे’।
कवि विद्यापति ने शक्ति, गंगा व विष्णु विषयक पदों की रचना की। जय-जय भैरवि असुर भयाउनी, दुर्गा की स्तुति के रूप में कनक भूधर शिखर वासिनी, अर्धनारीश्वर का वर्णन करते हुए विद्यापति ने रचना की जय जय शंकर जय त्रिपुरारि जय अधपुरुष तयति अधनरी।
जय जय भैरवि असुरभयाउनि, पसुपति–भाबिनि माया ।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाञुनि, अनुगति गति तुअ पाया ।।
बासर–रइनि सवासने सोभित, चरन चन्द-मनि-चूड़ा ।
कतओक दैत मारि मुहे मेरल, कतन उगिलि करु कूड़ा ।।
सामर बदन, नयन अनुरञ्जित, जलद जोग फुल कोका ।
कट-कट विकट ओठ–पुट पाँड़रि, लिधुर–फेन उठ फोका ।।
घन घन घनन घुघुरु कटि बाजए, हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनु माता ।।
महाकवि विद्यापति का संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषाओं पर समान अधिकार रहा। तभी तो ग्रियरसन ने अंग्रेजी में लिखा ‘विद्यापति इज़ अनपैरेलल इन द हिस्ट्री ऑफ़ लिटरेचर’ । महाकवि विद्यापति कवि कोकिल के रूप में अमर रहेंगे।
महाकवि विद्यापति जी के बारे मे बहुत ही सुन्दर और विस्तृत जानकारी दी ……………इनके बारे मे तो हमे कोई जानकारी ही नही थी…………आभार्।
जवाब देंहटाएंविद्यापति को हिंदी साहित्य में जो स्थान मिलना चाहिए था वह मिल नहीं सका.. अपने समकालीन जयदेव के गीत गोविन्द से कही अधिक प्रभावशाली हैं उनकी रचनाएं.. बंगला और उड़िया साहित्य पर विद्यापति के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है.. सुन्दर आलेख मनोज जी...
जवाब देंहटाएं'उपमा कालीदासस्य.... ' कालीदास ने संस्कृत साहित्य को ऐसे उपमाओं से विभूषित किया कि यह उक्ति प्रचलित हो गयी. आदिकालीन हिंदी में विद्यापति की उपमाएं भी इसी सम्मान की अधिकारिणी हैं, "चानन भेल विषम सर रे.... भूषन भेल भारी.... !" कृष्ण वियोग में व्रज-वनिताओं को शीतलता का प्रतीक चन्दन भी विष में चुभे हुए तीर की तरह लगता है और आभूषण जिस से उनका जी कभी नहि भरता... कितना भी हो, कम ही लगता है, हरि के वियोग में वो आभूषण भी उन्हें भारी लगने लगते हैं. उस समय के साहित्य में यह शायद ऐसा पहला प्रयोग था. विद्यापति की कविता हिंदी की गंगोत्री से निकली छल-छल-कल-कल बहती जन-मन अभिरंजन करती हुई काल की आवरण को चीर आज भी मनोहारी बनी हुई है. अब विद्यापति के प्रभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आठ सौ सालों में उस लोकभाषा का कोई भी कवि/साहित्यकार उस आभामंडल के आस-पास भी नहीं पहुँच सका, जो विद्यापति की रचनाओं की वर्तिका रही थी.
जवाब देंहटाएंआदि-कवि से ब्लॉग-वासियों का पुनर्मिलन करवाने के लिए धन्यवाद. मैं थोड़ा नोस्टाल्जिया गया था.
महाकवि विद्यापति को हिंदी का प्रथम कवि माना जाना चाहिए... . क्योंकि जब यूरोप में साहित्य लैटिन से अंग्रेजी की तरफ आ रहा था उसी समय भारत में विद्यापति और उनके समकालीन कवि हिंदी को संस्कृत से लोक भाषा की ओर ला रहे थे.. विद्यापति की तुलना अंग्रेजी कवि चौसर से भी की जा सकती है... प्रायः समय काल भी एक सा था... इस विषय पर नई दृष्टि देते हुए विद्यापति पर अभी बहुत अध्यनन किया जाना है.
जवाब देंहटाएंमहाकवि विद्यापति के बारे में बहुत ही अच्छी और विस्तृत जानकारी मिली.
जवाब देंहटाएंविद्यापति गीत अत्यंत कर्णप्रिय और सुमधुर होते हैं...एक बार फिर से सुनने की इच्छा जाग गयी.
मैथिल कोकिल विद्यापति से आठवीं क्लास में पढी कविताओं के बाद आज परिचय हुआ. अभिभूत हूँ मैं.
जवाब देंहटाएं- सलिल
विद्यापति मूलतः संस्कृत के लेखक थे न कि मैथिली या हिंदी के। वे राजकवि थे मगर जनकंठ में बसने की आकांक्षा के कारण उन्होंने मैथिली(जो तब अवहट्ट भाषा के रूप में जानी जाती थी)में लिखना शुरू किया और जब उन गीतों को आम लोगों ने गाना शुरू किया,तब जाकर उन्हें भी मानना पड़ा कि देसी भाषा ही मीठी होती है। भाषाई अस्मिता के महत्व की ओर ध्यानाकर्षण करने वाले वे संभवतः पहले कवि थे।
जवाब देंहटाएंतू उनको गोद में खिलाया था।
हटाएंआपके आलेख ज्ञान का पिटारा होते हैं .कम से कम मेरे जैसों के लिए तो अमूल्य .जो जानकारी हमें इन आलेखों से मिलती है वह यहाँ बैठकर किसी भी और माध्यम से पाना असंभव है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका.
विद्यापति जी के बारे मे बहुत ही सुन्दर और विस्तृत जानकारी..आभार
जवाब देंहटाएंमनोज जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और विस्तृत जानकारी दी आपने।
आभार।
सुन्दर और विस्तृत जानकारी !
जवाब देंहटाएं१३ जनवरी को पौष माह का आखिरी दिन यानि ठंड का अंत !इसी दिन लोहरी होती है ।
आप हमारे संग लोहरी मनाने हमारे यहाँ आईएगा ।
आभार !
हरदीप
🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी
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