सबकी भाषा ऱाजभाषा
प्रेम सागर सिंह
भारतवर्ष में हिंदी की स्थिति को ध्यान में ऱखकर अनेक नाम सुझाए गए हैं,जैसे राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संघभाषा संबंधभाषा, व्यवहारभाषा आदि। इन नामों पर कई प्रकार की आपत्तियां भी उठायी गयी हैं। इसलिए इन नामों के वास्तिवक अभिप्राय एवं प्रयोग पर ध्यान देना अच्छा होगा।
हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने पर यह दलील देकर आपत्ति उठायी गयी है कि भारत की अनेक भाषाओं की तुलना में उसे अधिक गौरव दिया जा रहा है। यदि हिंदी राष्ट्रभाषा कहलाने की अधिकारिणी है तो वह अधिकार भारत की अन्य भाषाओं को भी है क्योंकि वे भी राष्ट्र की ही भाषाएं हैं। राष्ट्रभाषा का सीधा-सादा अर्थ होता भी है राष्ट्र की भाषा और इस दृष्टि से राष्ट्र में जितनी भी भाषाएं व्यवहृत होती हों, उन सबको राष्ट्रभाषा कहना उचित है। किसी एक भाषा के राष्ट्रभाषा कहने से अन्य भाषा-भाषियों के हृदय में आशंका उत्पन्न हो सकती है। इस संबंध में एक–दो बातें ध्यान में रखने की हैं.पहली बात तो यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले उसे गौरव प्रदान करने की भावना से ऐसा नही करते और न अन्य भाषाओं की तुलना में हीन बताने की भावना से। वस्तुत: राष्ट्रभाषा के प्रयोग का ऐतिहासिक कारण है।हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए नही कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र या प्रमुख भाषा है,बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में ऱखकर किया गया।अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंग्रेजी शासन-सूत्र का विरोध करते समय उससे संबंधित और भी जो वस्तुए थीं उनका भी विरोध आवश्यक हो गया था। यदि सही संदर्भों में देखा जाए तो विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नही रहता, वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता-संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन, या राष्ट्रीयता की भावना को जगाने की कोशिश की। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को छोड़ कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए एवं यह उस आंदोलन का अनिवार्य लक्ष्य था।हिंदी की इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया।अत: जो भाषा समग्र राष्ट्र के लिए संपर्क स्थापित कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में कोई आपत्ति नही है। इसके ही कारण हिंदी को ऱाष्ट्रभाषा की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
इस आपत्ति को मिटाने के लिए कई दूसरे नाम सुझाए गए हैं। भारतीय संविधान में हिंदी के लिए कही भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नही हुआ है। इसे या तो संघभाषा य़ा संघ की राजभाषा कहा गया है। संघभाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य वही है जो राष्ट्र भाषा के पीछे।जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है। आपत्ति करने वाले यहां भी आपत्ति कर सकते हैं कि शेष भाषाएं भी तो संघ की ही भाषा है,फिर हिंदी को ही संघ भाषा क्यों कहा जा रहा है !आखिर उस भाषा का नाम तो रखना ही होगा जो राज्यों तथा प्रदेशों तक ही सीमित न रहकर सारे राष्ट्र के कार्य-कलाप के लिए व्यवहृत हो रही है. नाम चाहे जो भी रखा जाए, आपत्ति का अवकाश रहेगा ही।
इस आपत्ति का मूलोच्छेद करने की दृष्टि से दो दूसरे नाम प्रस्तावित किए गए हैं-संबंध भाषा और व्यवहारभाषा। इन शब्दों में महत्व और श्रेष्ठता का भाव बिल्कुल नही है। इनके द्वारा केवल इतना व्यक्त करना अभिमत है कि भारत में एक ऐसी भाषा आवश्यक है जो पारस्परिक संबंध अथवा व्यवहार के लिए सुविधाजनक हो। इन दोनों नामों में वह आपत्ति दूर हो जाती है।यदि ये नाम अधिक स्वीकार्य प्रतीत होते हैं तो इसमें कोई हानि नही है। राजभाषा अर्थात राजा की भाषा अर्थात शासक की भाषा,और शासक को स्वभावत: कुछ महत्व उपलब्ध हो जाता है, किंतु हम जानते हैं कि जनतांत्रिक शासन पद्धति में राजा शब्द का महत्व नही है। इसी अर्थ में भारत सरकार ने राजभाषा आयोग (Official Language Commission) का निर्माण किया था। इसका प्रयोग मुख्यत: चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है-शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इन चारों में जिस भाषा का प्रयोग हो उसे राजभाषा कहेंगे। यह कार्य अंग्रेजी द्वारा होता रहा है और इसी का स्थान राजभाषा के रूप में हिंदी को देना है।इसका अर्थ यह नही होता कि हिंदी प्रादेशिक भाषाओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाएगी या उन्हें उन्मूलित कर देगी। हिंदी यथासंभव प्रादेशिक भाषाओं का पोषण ही करेगी।हिंदी दूसरी भाषाओं को कुछ दे सकती है तो उनसे कुछ ले भी सकती है। भारत की अनेक भाषाएं पर्याप्त समृद्ध हैं और वह समृद्धि एक दूसरे के संवर्द्धन में प्रेम के साथ प्रयोग की जा सकती है। इसलिए भारतीय भाषाओं मे परस्पर विरोध या बाधा का प्रश्न ही नही उठता।भारत में भाषा की राजकीय स्थितियां चार प्रकार की हैं-
1.प्रादेशिक 2.अंत:प्रादेशिक 3.राष्ट्रीय 4.अन्तरराष्ट्रीय
1.प्रादेशिकः- भाषावार राज्यों के निर्माण के बाद प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई। इसको चाहें तो राजभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन–कार्य वहीं की भाषा मे होगा, जैसे बंगाल का बंगला में, और महाराष्ट्र का मराठी में। इस सीमा मे हिंदी को दखल नही देना है। प्रत्येक राज्य को अपना कार्य अपनी भाषा में करने की पूरी-पूरी छूट एवं स्वतंत्रता है।
2.अंत:प्रादेशिक-हमारा देश अनेक राज्यों का संघ है। एक राज्य की सीमा पार करने के बाद दूसरे राज्य में प्रवेश करने पर एक भाषा को छो़ड़कर दूसरे भाषा से मुकाबला होता है।बंगाल की भाषा बंगला है तो उड़ीसा की भाषा उड़िया।केरल की भाषा मलयालम है तो कश्मीर की भाषा कश्मीरी।ये दोनों भाषाएं परस्पर अबोध्य हैं।मलयालम बोलने वाला कश्मीरी
नही समझता एवं कश्मीरी बोलने वाला मलयालम। इस समस्या को दूर करना है। अब तक इस कठिनाई को अंग्रेजी दूर करता था लेकिन अब इसे हिंदी को करना पड़ेगा। इसलिए अंत:प्रादेशिक संचार के लिए हिंदी आवश्यक हो गयी है।यहीं से हिंदी का उपयोग आरंभ होता है। एक राज्य से दूसरे राज्य का संपर्क स्थापन अंग्रेजी के बदले हिंदी को करना है।
3.ऱाष्ट्रीय:- इसके प्रगामी प्रयोग के लिए केंद्र और राज्यों को यह देखना होगा कि उनके बीच इस भाषा के विकास के लिए क्या करना है अर्थात केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो,यह प्रश्न है। यह कार्य अब तक अंग्रेजी करती आ रही है,इसे अब हिंदी करेगी। केंद्र और राज्य के स्तर पर अथवा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को प्रयोग में लाना है।
4।अंतरराष्ट्रीय:- जब देश में हिंदी का प्रचार- प्रसार बढ़ जाएगा तो हमें इसके विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा।इसके माध्यम से हमारा संबंध दूसरे देशों के साथ होता है।हमें दूसरे देशों में अपने राजदूतों के अधिकार पत्र भेजने होते हैं,राजनयिक वार्ताएं करनी होती हैं,वाणिज्य और व्यापार की संविदाएं तैयार करनी पड़ती हैं।भारत की संघ भाषा के रूप में हिंदी का यह चौथा उपयोग होगा।आजादी के बाद एवं आज तक हम हर कार्य अंग्रेजी के माध्यम से लेते रहे हैं एवं समय-समय पर कई बार हमें अंतरराष्ट्रीय जगत में अपमानित भी होना पड़ा है। कुछ देशों में हमारे अधिकार पत्र अंग्रेजी में गए और वहां से यह कहकर लौटा दिए गए कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नही है,इसलिए हम इन पत्रों को स्वीकार्य करने में असमर्थ हैं। दूबारा उन पत्रों को हिंदी में भेजना पड़ा तब वे स्वीकृत हुए।दुनिया के सभी विकसित देश अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में अपनी भाषा के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उनमें गौरव का अनुभव करते हैं। रूस, फ्रांस, या चीन अंग्रेजी में अपने पत्रादि प्रस्तुत नही करते। फिर,भारत जैसा समृद्ध परंपरओं का देश अंग्रेजी के गले लगाए रखकर हमेशा यह बताता चले कि हम दो सौ वर्षों तक पराधीन रहे हैं उसकी यह निशानी है।
यह हम सबके लिए गौरव एवं सम्मान की बात नही होगी। इसलिए हमें अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए एक भाषा रखनी होगी और वह स्थान हिंदी ही ले सकती है। इस प्रकार प्रादेशिक, अंत:प्रादेशिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में पहला क्षेत्र सर्वथा प्रादेशिक भाषाओं का होगा और शेष तीनों में हिंदी रहेगी अर्थात हिंदी प्रादेशिक भाषाओं का स्थान नही लेने जा रही है।यह केवल उन स्थानों को लेगी जिन पर अब तक अंग्रेजी अधिकार जमाए बैठी रही है। इससे वस्तु-स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय भाषाओं में किसकी क्या सीमा और उपयोग है। आपस में बाधा पहँचाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है !इस स्पष्टीकरण से यह भ्रम भी मिट जाना चाहिए कि हिंदी किसी भारतीय भाषा को किसी भी रूप में अपदस्थ कर सकती है। अंग्रेजी की छाया में रहकर किसी भी भारतीय भाषा का विकास नही हो सका है।आज जो भी त्रुटि या अभाव है, वह सभी भाषाओं में समान है। उससे मुक्त होने के लिए अन्य भाषाएं उत्सुक हैं और हिंदी भी उत्सुक है। सभी का लक्ष्य एक है-निरंतर प्रगति और विकास।यह लक्ष्य परस्पर सद्भाव और सहयोग से ही पूरा हो सकता है। इसमें न तो संदेह का अवकाश है, न आपत्ति का।आवश्यकता है एक दृढ़ संकल्प की,बुलंद हौसले की,समर्पण की।आईए,इस कार्य के लिए हम सब दृढ़ प्रतिज्ञ होकर राजभाषा हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार में अपना सक्रिय य़ोगदान देकर इसे एक नई दिशा एवं दशा प्रदान करने के लिए कटिबद्द होकर इसके चतुर्दिक विकास की धारा को प्रवाहित करने की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहें।आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि हर स्तर पर सकारात्मक दिशा में प्रयास करने पर हमें मंजिल अवश्य प्राप्त होगी क्योंकि -----
“मंजिल उन्ही को मिलती है,
जिनके कदमों में जान होती है.
परों से क्या होता है दोस्तों,
हौंसलों से उड़ान होती है।“
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प्रेम सागर सिंह
भारतवर्ष में हिंदी की स्थिति को ध्यान में ऱखकर अनेक नाम सुझाए गए हैं,जैसे राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संघभाषा संबंधभाषा, व्यवहारभाषा आदि। इन नामों पर कई प्रकार की आपत्तियां भी उठायी गयी हैं। इसलिए इन नामों के वास्तिवक अभिप्राय एवं प्रयोग पर ध्यान देना अच्छा होगा।
हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने पर यह दलील देकर आपत्ति उठायी गयी है कि भारत की अनेक भाषाओं की तुलना में उसे अधिक गौरव दिया जा रहा है। यदि हिंदी राष्ट्रभाषा कहलाने की अधिकारिणी है तो वह अधिकार भारत की अन्य भाषाओं को भी है क्योंकि वे भी राष्ट्र की ही भाषाएं हैं। राष्ट्रभाषा का सीधा-सादा अर्थ होता भी है राष्ट्र की भाषा और इस दृष्टि से राष्ट्र में जितनी भी भाषाएं व्यवहृत होती हों, उन सबको राष्ट्रभाषा कहना उचित है। किसी एक भाषा के राष्ट्रभाषा कहने से अन्य भाषा-भाषियों के हृदय में आशंका उत्पन्न हो सकती है। इस संबंध में एक–दो बातें ध्यान में रखने की हैं.पहली बात तो यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले उसे गौरव प्रदान करने की भावना से ऐसा नही करते और न अन्य भाषाओं की तुलना में हीन बताने की भावना से। वस्तुत: राष्ट्रभाषा के प्रयोग का ऐतिहासिक कारण है।हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए नही कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र या प्रमुख भाषा है,बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में ऱखकर किया गया।अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंग्रेजी शासन-सूत्र का विरोध करते समय उससे संबंधित और भी जो वस्तुए थीं उनका भी विरोध आवश्यक हो गया था। यदि सही संदर्भों में देखा जाए तो विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नही रहता, वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता-संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन, या राष्ट्रीयता की भावना को जगाने की कोशिश की। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को छोड़ कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए एवं यह उस आंदोलन का अनिवार्य लक्ष्य था।हिंदी की इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया।अत: जो भाषा समग्र राष्ट्र के लिए संपर्क स्थापित कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में कोई आपत्ति नही है। इसके ही कारण हिंदी को ऱाष्ट्रभाषा की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
इस आपत्ति को मिटाने के लिए कई दूसरे नाम सुझाए गए हैं। भारतीय संविधान में हिंदी के लिए कही भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नही हुआ है। इसे या तो संघभाषा य़ा संघ की राजभाषा कहा गया है। संघभाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य वही है जो राष्ट्र भाषा के पीछे।जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है। आपत्ति करने वाले यहां भी आपत्ति कर सकते हैं कि शेष भाषाएं भी तो संघ की ही भाषा है,फिर हिंदी को ही संघ भाषा क्यों कहा जा रहा है !आखिर उस भाषा का नाम तो रखना ही होगा जो राज्यों तथा प्रदेशों तक ही सीमित न रहकर सारे राष्ट्र के कार्य-कलाप के लिए व्यवहृत हो रही है. नाम चाहे जो भी रखा जाए, आपत्ति का अवकाश रहेगा ही।
इस आपत्ति का मूलोच्छेद करने की दृष्टि से दो दूसरे नाम प्रस्तावित किए गए हैं-संबंध भाषा और व्यवहारभाषा। इन शब्दों में महत्व और श्रेष्ठता का भाव बिल्कुल नही है। इनके द्वारा केवल इतना व्यक्त करना अभिमत है कि भारत में एक ऐसी भाषा आवश्यक है जो पारस्परिक संबंध अथवा व्यवहार के लिए सुविधाजनक हो। इन दोनों नामों में वह आपत्ति दूर हो जाती है।यदि ये नाम अधिक स्वीकार्य प्रतीत होते हैं तो इसमें कोई हानि नही है। राजभाषा अर्थात राजा की भाषा अर्थात शासक की भाषा,और शासक को स्वभावत: कुछ महत्व उपलब्ध हो जाता है, किंतु हम जानते हैं कि जनतांत्रिक शासन पद्धति में राजा शब्द का महत्व नही है। इसी अर्थ में भारत सरकार ने राजभाषा आयोग (Official Language Commission) का निर्माण किया था। इसका प्रयोग मुख्यत: चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है-शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इन चारों में जिस भाषा का प्रयोग हो उसे राजभाषा कहेंगे। यह कार्य अंग्रेजी द्वारा होता रहा है और इसी का स्थान राजभाषा के रूप में हिंदी को देना है।इसका अर्थ यह नही होता कि हिंदी प्रादेशिक भाषाओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाएगी या उन्हें उन्मूलित कर देगी। हिंदी यथासंभव प्रादेशिक भाषाओं का पोषण ही करेगी।हिंदी दूसरी भाषाओं को कुछ दे सकती है तो उनसे कुछ ले भी सकती है। भारत की अनेक भाषाएं पर्याप्त समृद्ध हैं और वह समृद्धि एक दूसरे के संवर्द्धन में प्रेम के साथ प्रयोग की जा सकती है। इसलिए भारतीय भाषाओं मे परस्पर विरोध या बाधा का प्रश्न ही नही उठता।भारत में भाषा की राजकीय स्थितियां चार प्रकार की हैं-
1.प्रादेशिक 2.अंत:प्रादेशिक 3.राष्ट्रीय 4.अन्तरराष्ट्रीय
1.प्रादेशिकः- भाषावार राज्यों के निर्माण के बाद प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई। इसको चाहें तो राजभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन–कार्य वहीं की भाषा मे होगा, जैसे बंगाल का बंगला में, और महाराष्ट्र का मराठी में। इस सीमा मे हिंदी को दखल नही देना है। प्रत्येक राज्य को अपना कार्य अपनी भाषा में करने की पूरी-पूरी छूट एवं स्वतंत्रता है।
2.अंत:प्रादेशिक-हमारा देश अनेक राज्यों का संघ है। एक राज्य की सीमा पार करने के बाद दूसरे राज्य में प्रवेश करने पर एक भाषा को छो़ड़कर दूसरे भाषा से मुकाबला होता है।बंगाल की भाषा बंगला है तो उड़ीसा की भाषा उड़िया।केरल की भाषा मलयालम है तो कश्मीर की भाषा कश्मीरी।ये दोनों भाषाएं परस्पर अबोध्य हैं।मलयालम बोलने वाला कश्मीरी
नही समझता एवं कश्मीरी बोलने वाला मलयालम। इस समस्या को दूर करना है। अब तक इस कठिनाई को अंग्रेजी दूर करता था लेकिन अब इसे हिंदी को करना पड़ेगा। इसलिए अंत:प्रादेशिक संचार के लिए हिंदी आवश्यक हो गयी है।यहीं से हिंदी का उपयोग आरंभ होता है। एक राज्य से दूसरे राज्य का संपर्क स्थापन अंग्रेजी के बदले हिंदी को करना है।
3.ऱाष्ट्रीय:- इसके प्रगामी प्रयोग के लिए केंद्र और राज्यों को यह देखना होगा कि उनके बीच इस भाषा के विकास के लिए क्या करना है अर्थात केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो,यह प्रश्न है। यह कार्य अब तक अंग्रेजी करती आ रही है,इसे अब हिंदी करेगी। केंद्र और राज्य के स्तर पर अथवा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को प्रयोग में लाना है।
4।अंतरराष्ट्रीय:- जब देश में हिंदी का प्रचार- प्रसार बढ़ जाएगा तो हमें इसके विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा।इसके माध्यम से हमारा संबंध दूसरे देशों के साथ होता है।हमें दूसरे देशों में अपने राजदूतों के अधिकार पत्र भेजने होते हैं,राजनयिक वार्ताएं करनी होती हैं,वाणिज्य और व्यापार की संविदाएं तैयार करनी पड़ती हैं।भारत की संघ भाषा के रूप में हिंदी का यह चौथा उपयोग होगा।आजादी के बाद एवं आज तक हम हर कार्य अंग्रेजी के माध्यम से लेते रहे हैं एवं समय-समय पर कई बार हमें अंतरराष्ट्रीय जगत में अपमानित भी होना पड़ा है। कुछ देशों में हमारे अधिकार पत्र अंग्रेजी में गए और वहां से यह कहकर लौटा दिए गए कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नही है,इसलिए हम इन पत्रों को स्वीकार्य करने में असमर्थ हैं। दूबारा उन पत्रों को हिंदी में भेजना पड़ा तब वे स्वीकृत हुए।दुनिया के सभी विकसित देश अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में अपनी भाषा के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उनमें गौरव का अनुभव करते हैं। रूस, फ्रांस, या चीन अंग्रेजी में अपने पत्रादि प्रस्तुत नही करते। फिर,भारत जैसा समृद्ध परंपरओं का देश अंग्रेजी के गले लगाए रखकर हमेशा यह बताता चले कि हम दो सौ वर्षों तक पराधीन रहे हैं उसकी यह निशानी है।
यह हम सबके लिए गौरव एवं सम्मान की बात नही होगी। इसलिए हमें अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए एक भाषा रखनी होगी और वह स्थान हिंदी ही ले सकती है। इस प्रकार प्रादेशिक, अंत:प्रादेशिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में पहला क्षेत्र सर्वथा प्रादेशिक भाषाओं का होगा और शेष तीनों में हिंदी रहेगी अर्थात हिंदी प्रादेशिक भाषाओं का स्थान नही लेने जा रही है।यह केवल उन स्थानों को लेगी जिन पर अब तक अंग्रेजी अधिकार जमाए बैठी रही है। इससे वस्तु-स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय भाषाओं में किसकी क्या सीमा और उपयोग है। आपस में बाधा पहँचाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है !इस स्पष्टीकरण से यह भ्रम भी मिट जाना चाहिए कि हिंदी किसी भारतीय भाषा को किसी भी रूप में अपदस्थ कर सकती है। अंग्रेजी की छाया में रहकर किसी भी भारतीय भाषा का विकास नही हो सका है।आज जो भी त्रुटि या अभाव है, वह सभी भाषाओं में समान है। उससे मुक्त होने के लिए अन्य भाषाएं उत्सुक हैं और हिंदी भी उत्सुक है। सभी का लक्ष्य एक है-निरंतर प्रगति और विकास।यह लक्ष्य परस्पर सद्भाव और सहयोग से ही पूरा हो सकता है। इसमें न तो संदेह का अवकाश है, न आपत्ति का।आवश्यकता है एक दृढ़ संकल्प की,बुलंद हौसले की,समर्पण की।आईए,इस कार्य के लिए हम सब दृढ़ प्रतिज्ञ होकर राजभाषा हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार में अपना सक्रिय य़ोगदान देकर इसे एक नई दिशा एवं दशा प्रदान करने के लिए कटिबद्द होकर इसके चतुर्दिक विकास की धारा को प्रवाहित करने की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहें।आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि हर स्तर पर सकारात्मक दिशा में प्रयास करने पर हमें मंजिल अवश्य प्राप्त होगी क्योंकि -----
“मंजिल उन्ही को मिलती है,
जिनके कदमों में जान होती है.
परों से क्या होता है दोस्तों,
हौंसलों से उड़ान होती है।“
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मैं पूरा भारत घूमा हूँ, मुझे हिन्दी बोलने व समझने वाले हर जगह मिले है, जबकि अन्य लोकल भाषा उसी इलाके तक ही समझी जाती है,
जवाब देंहटाएंअंग्रेजी के साथ भी यही रोना है, ज्यादातर लोग कामचलाऊ अंग्रेजी भी नहीं बोल पाते है,
परों से क्या होता है दोस्तों,
जवाब देंहटाएंहौंसलों से उड़ान होती है।“
काश सरकार भी ये हौसला दिखाये और हिन्दी को उसका स्थान मिले। जयहिन्द।
गहन विवेचना। सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंहिन्दी वालों को किसी ने डंडा लेकर नहीं कहा कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में भेजो... पर आज फिर भी भेज रहे हैं अपनी मर्ज़ी से... समय किसी के रोके से नहीं रूकता...
जवाब देंहटाएंअत्यंत विस्तृत जानकारी! प्रशंसनीय!!
जवाब देंहटाएं(पोस्ट ब्लॉगरोल में नहीं दिखाई दे रही है)
वास्तव में आज़ादी के बाद जिस तरह विभिन्न राज्यों को भारत संघ में लाने के लिए पयत्न किये गए थे वैसा ही प्रयत्नं हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए किया जाना चाहिए था.. लेकिन ऐसा हुआ नहीं... इसके कारण हिंदी है तो राजभाषा लेकिन औपचारिकता से अधिक नहीं है यह... आलेख बढ़िया है..
जवाब देंहटाएंसंदीप पवाँर,निर्मला कपिला,मनोज कुमार,काजल कुमार,सलील वर्मा,एवं अरूण चन्द्र राय जी आप सबके विशेष धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंप्रांतीय भाषाओं की तो बात ही क्या हमें तो अंग्रेजी से भी मोह है लेकिन अपनी बात कहेंगें हम अपनी जुबां में .मैं यह सब एक भौतिकी के एक प्राध्यापक के रूप कह रहा हूँ जो कार्य में हरियाणा में महाविद्यालयों में ३७-३८ वर्ष कर चुका हूँ .दोनों भाषाओं में हिंदी और अंग्रेजी मैं समान आधिकारिक भाव से पढता पढाता रहा हूँ .और फिर प्रश्न पत्रभी अंडर ग्रेज्युएट(अव -स्नातकीय स्तर ), लेविल तक दोनों भाषाओं में प्रकाशित होतें हैं .पढ़ाने वाले मयस्सर नहीं हैं हिंदी माध्यम से तो उसकी वजह मानसिक प्रशिक्षण है, भाषिक लगाव हीनता है ।
जवाब देंहटाएंहिंदी तो हमारा इंटर -नेट है अंतर -जाल है .कनेक्टिविटी है .प्रेम सरोवर जी और मनोज जी दोनों का आभार आपने फिर हमारी पेट और पीठ नंगी करके हमें दिखला दी .सारी भाषाएं भारतीय मूल की सहोदर हैं अब सिब्लिंग्स में थोड़ी बहुत प्रतिस्पर्द्धा तो होती ही है .तमिल नाडू की तरह नहीं होना चाहिए -चैनैई नगर में आई आई टी मद्रास के अलावा हिंदी तो हिंदी अंग्रेजी भी नाम पटों से नदारद है .
अपनी भाषा पर गर्व भी करना चाहिए उसे प्रयोग मेभी लाना चाहिए तभी उन्नति होगी हिंदी की
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