नाटक साहित्य-12
नाटक साहित्य – प्रसाद युग-5
प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताएं
रोमांटिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नाटकों का सृजन कर प्रसाद ने हिंदी नाटक को नई दिशा दी। इनके माध्यम से उन्होंने हिन्दी-नाट्यसाहित्य को विशिष्ट स्तर और गरिमा प्रदान की। उनके लिए नाटक एक साहित्य विधा है। उनका मानना था कि नाटक की रचना रंगमंच को ध्यान में रखकर नहीं की जानी चाहिए। बल्कि नाटक के अनुसार रंगमंच को रूपांतरित किया जाना चाहिए। इससे उनके नाटकों का वैशिष्ट्य निर्मित हुआ।
प्रसाद जी मुख्यतः ऐतिहासिक नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने अपने अधिकांश नाटकों की कथा-वस्तु इतिहास से ली है। ऐतिहासिक नाटक लिखने का एक प्रमुख कारण यह था कि वे नाटकों के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे जनमानस को प्रेरित करना चाहते थे। वे भारतीय संस्कृति को उजागर करना चाहते थे। परतंत्र देश का लेखक वर्तमान की क्षतिपूर्ति अपने गौरवमय अतीत में करता है। जनता में यह विश्वास व्याप्त था कि जो कुछ अच्छा है, या हो सकता है, वह सब प्राचीन भारत में था। इस विश्वास से चालित होकर साहित्य का सृजन किया जाने लगा। प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों का फलक अति विराट होता है। इसमें पूरे राष्ट्र की समस्याएं अभिव्यक्त होती हैं। वे उन्हें सरल रूप में नहीं वरन् जटिल रूप में रखते हैं। हिंदी नाटकों को इतने विराट परिप्रेक्ष्य में रचने का ऐसा उपक्रम बहुत कम हुआ है।
प्रसाद जी ने अपने नाटकों में पात्रों का चरित्र चित्रण बड़ी सावधानी से गढ़ा है। उन्होंने इतिहास के प्रसिद्ध पात्रों में नया जीवन भर दिया। पात्रों के मन का विश्लेषण बड़ी बुद्धिमत्ता से किया। नारी पात्रों में उनकी कल्पना और भावुकता का अधिक पुट है और उनका व्यक्तित्व अधिक औपन्यासिक और रोमांटिक है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे नाट्य-वस्तु को ऐसे-ऐसे घुमाव देते थे जिससे मानवीय संबंधों की अनेकानेक संवेदनाएं प्रकट होती थीं। जिन जीवन प्रसंगों के प्रति इतिहास मौन था उसे वह अपनी कल्पना से रूप और आकार देते थे। इस कोशिश में उनके नाटकों के कथानक जटिल हो गए। उनके नाटकों में आचार्य शुक्ल के अनुसार, “प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रंगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की अधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्तमान गद्यकाव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भावपद्धति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) मात्र हैं”
प्रसाद जी के नाटकों में संवादों की भाषा की भी काफ़ी आलोचना की जाती रही है। संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली और काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त भाषा को नाटकों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं माना जाता। प्रसाद के नाटकों का भाषिक मूल्यांकन का यह तरीक़ा सही प्रतीत नहीं होता। प्रसाद पारसी नाटकों की उर्दू-मिश्रित हिंदी से नाटकों की भाषा को छुटकारा दिलाना चाहते थे। वह नाटकों की भाषा को साहित्यिक और रचनात्मक बनाना चाहते थे। छायावाद के प्रमुख स्तंभ होने के कारण उसका प्रभाव उनके नाटकों की भाषा पर भी था।
उनके नाटकों की कथावस्तु में पर्याप्त नाटकीय तत्व मिलते हैं। प्रसाद के नाटकों में एक दोष यह भी माना जाता है कि उनमें पात्रों की बहुलता होती है। नाटक में ज़्यादा पात्र होने पर उनके निजस्व को चित्रित करना नाटककार के लिए मुश्किल हो जाता है। हालाकि प्रसाद जी के नाटकों में पात्रों की संख्या अधिक ज़रूर है, लेकिन कथा के केन्द्र में एक-दो पात्र ही होते हैं। फिर भी उनकी सफलता इस बात में है कि चरित्र छोटा हो या बड़ा उसकी विशिष्टता और महत्व को पूरी तरह से चित्रित करने में वे सफल होते हैं।
प्रसाद अपने नाटकों का इतिहास और कल्पना का बेजोड़ समन्वय उनके नाटकों को बहुआयामी चित्र प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने इतने विविध प्रकार के पात्रों की सृष्टि की है कि उनके माध्यम से पूरा युग ही सजीव होकर सामने उपस्थित हो गया है। उन्होंने इतिहास की प्राचीन घटनाओं के माध्यम से व्यंग्य रूप में वर्तमान की सम्स्याओं का चित्रण और समाधान प्रस्तुत किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं, “उनके ऐतिहासिक नाटक पीछे लौटने की सलाह लेकर नहीं आए, आगे बढ़ने की प्रेरणा लेकर आए थे।” प्रसाद के नाटकों का सही मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि उनका मंचन कितनी सफलता के साथ किया जा सकता है बल्कि एक रचनात्मक कृति के तौर पर वह कितना प्रभावशाली है। यह प्रसाद के नाटकों की शक्ति भी है और सीमा भी।
श्री मनोज कुमार जी,
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा प्रस्तुत प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताओं में उनका शव्द-चयन एवं पात्रों की संवाद योजना को भी थोड़ी सी जगह मिलनी चाहिए जिसके कारण उनके नाटक चर्चित होने के साथ -साथ प्रवुद्ध पाठकों को विपुल शव्द-भंडार से परिचित करवाने में सार्थक सिद्ध हुए । यह मेरा केवल सुझाव मात्र है । अनुरोध है इसे अन्यथा न लें । पोस्ट अच्छा लगा।
धन्यवाद।
Nice topic and thanks
हटाएं@ प्रेमसागर जी,
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर लोग लंबे आलेख पढ़ना नहीं चाहते इसलिए विस्तार के भय से उसे अधिक लंबाई नहीं दी, अन्यथा इस पर संकेत तो अवश्य ही दिया है। संदर्भित पंक्तियां यहां दे रहा हूं ..
“... संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली और काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त भाषा को नाटकों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं माना जाता। प्रसाद के नाटकों का भाषिक मूल्यांकन का यह तरीक़ा सही प्रतीत नहीं होता। ...”
@ आपके कथन से मेरी पूर्ण सहमति है। धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंशुभ रात्रि ।
Accha likha hai aage aur bhi likhte rahiye.its very helpful for us.thank you
जवाब देंहटाएंPlese prasadJi ke natak kamana ke vishya me jankari de.nots banana me Kafi madad milti he . Jankariyo ke liye dhanyavad
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद अति सुंदर लेख
जवाब देंहटाएंThanks Sar Apni Jo. Post dala Bo mere kam aye
जवाब देंहटाएंApne sabdo ko bahut hi achhe trike se piroya hai
जवाब देंहटाएंAtyant bhavpurn or ikrikrat sabdo ka prayog kiya gaya hai or bahut hi sunder likhavat se kuch prena dayak sikh mili apka seh dil se dhanyawad ,🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपकी ये प्रस्तुत हमें बहुत सहायक हुआँ आपको बहुत बहुत धन्यवाद सर 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंJaysankar Prasad ke nataka
जवाब देंहटाएंEse or saral tarike se bataya jay
जवाब देंहटाएंSir apse nivedn h ki content ko points me btaye isse easy hoga sbko 🙏🙏
जवाब देंहटाएंSir apse nivedn h ki content ko points me btaye sbbke liye easy rhega 🙏🙏
जवाब देंहटाएंप्रसाद की नाटक
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