काव्य लक्षण- 7::काव्य की आत्मा – ध्वनि |
अलंकारवादी आचार्यों ने काव्य के लक्षण के संबंध में चर्चा करते हुए काव्य के शरीर पक्ष की चर्चा की। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्होंने काव्य के बाहरी सौन्दर्य को ही प्रधानता दी। इसके परिणामस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य के आंतरिक सौन्दर्य की कहीं न कहीं उपेक्षा हुई। वे काव्य के अन्य लक्षण रस, रीति, गुण को भी अलंकार के माध्यम से ही समझाते रहे। नवीं शताब्दी में अचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य लक्षण की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने अब तक स्थापित परंपराओं का विरोध किया। उनके इस वैचारिक क्रांति का दस्तावेज़ है “ध्वन्यालोक” ग्रंथ। उनके मतानुसार काव्य की आत्मा ध्वनि है। उन्होंने कहा कि अलंकार और अलंकार्य अलग-अलग हैं। उन्होंने रस को भी काफ़ी महत्व दिया। इस प्रकार उनके द्वारा एक नए ढ़ंग से काव्य लक्षण की परंपरा शुरु हुई। |
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आदरणीय मनोज जी
जवाब देंहटाएंसस्नेहाभिवादन … एवम्
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव 2010 में सम्मानित होने पर बहुत बहुत बधाइयां !
मंगलकामनाएं !!
काव्य लक्षण शृंखला के अंतर्गत प्रस्तुत आलेख "काव्य की आत्मा – ध्वनि" अत्यंत विद्वता पूर्ण आलेख है , बधाई !
शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं'उनके मतानुसार काव्य की आत्मा ध्वनि है।'
जवाब देंहटाएं- मेरे लिए नयी जानकारी.धन्यवाद.
बहुत अच्छी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए बधाई स्वीकार करें |
जवाब देंहटाएंआशा
बेहतर अनुभव
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