शनिवार, 10 जुलाई 2010

काव्य का लक्षण

 

काव्य का लक्षण

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--- मनोज कुमार

हमे कई बार टिप्प्णियों या समीक्षाओं में पढ़ने को मिल जाता है कि यह आपकी मौलिक रचना है। यानी कहीं और से कुछ उधार न लिया गया है। तो यह प्रश्‍न उठना स्वाभिक ही है कि वह कौन सा लक्षण हैं जो काव्य को मौलिक या किसी का ऋणी नहीं बनाता है?

काव्य के असाधरण यानी विशेष धर्म को उसका लक्षण कहते हैं। काव्य के अंतर्भूत मूल गुण को उसका स्वरूप लक्षण कहते हैं। जबकि इसके व्यावर्तक धर्म (अन्तर या भेद सूचित करने वाला) को तटस्थ लक्षण कहते हैं।

भरत मुनि ने नाटक पर आधारित काव्य-लक्षण प्रस्तुत किया। उन्होंने काव्य, जो लोक-कल्याणकारी हो, के सात लक्षण बताया है। वे हैं

१. मृदु ललित पदावली

२. गूढ़ शब्दार्थहीनता

३. सर्वसुगमता

४. युक्तिमत्ता

५. नृत्य में उपयोग किए जाने की योग्यता

६. रस के अनेक स्रोतों को प्रवाहित करने का गुण, और

७. संधियुक्तता

नृत्य में उपयोग किए जाने की योग्यता और संधियुक्तता में दृश्य-काव्य (नाटक) पर बल है।

इसके अलावा जो अन्य पांच लक्षण हैं उनमें गुण, रीति, अलंकार, औचित्य, रस आदि के बारे में कहा गया है। काव्य में रस का महत्व काफी है। ’अग्निपुराण’ में कहा गया है

“वाग्वैदग्ध प्रधानेsपि रस एवात्र जीवितम।”

काव्य में विषय का अनावश्यक अति-विस्तार (अति-व्याप्ति) का दोष नहीं होना चाहिए। साथ ही अपूर्ण विस्तार (अव्याप्ति) का दोष भी नहीं होना चाहिए।

काव्य सारगर्भित, संक्षिप्त तथा अर्थवान होना चाहिए। संक्षिप्त होगा तो लोग उसे आसानी से याद रख पाएंगे।

पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। अन्यथा आम पाठक को समझने में मुश्किल होगी।

कथन के अति विस्तार से बचना चाहिए। यह अंतर्विरोधों को जन्म देता है।

बातें तार्किक, स्पष्ट और सहज बोधगम्य होनी चाहिए। जटिलता, अस्पष्टता, दुरूहता से बचना चाहिए। यह सर्वग्राह्य हो।

घोर दार्शनिनिक प्रयोग से बचें। सामान्य व्यक्ति को इससे कठिनाई होगी।

थोड़े में कहें तो काव्य ऐसा हो जो कम शब्दों में अपार अर्थ प्रेषित करता हो।

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