शनिवार, 17 जुलाई 2010

शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली

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आचार्य दण्डी की चर्चा इस ब्लॉग पर आप पढ़ चुके हैं। यदि नहीं पढ़ा तो (यहां) क्लिक कीजिए। आचार्य दण्डी का मत है कि

शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली”।

शब्दों के समूह से पदावली बनती है। दण्डी के अनुसार शब्दों का वह समूह जो सरसता से भरा हो और कवि-प्रतिभा से युक्त सुंदर पदावली से अलग किया हो, को काव्य-शरीर कहा जा सकता है। उन्होंने काव्य-शरीर पर विचार किया। उनके अनुसार जिन पदों में वाक्यत्व की योग्यता हो उन्हें काव्य कहा जा सकता है। साथ ही पदावली ईष्टार्थ युक्त होना चाहिए। इसमें योग्यता के अलावा आकांक्षा और आसक्ति जैसी विशेषतएं भी होनी चाहिए। तभी काव्य के अर्थ में चमत्कार की सृष्टि होगी। दण्डी के इस कथन में अलंकार के साथ रस की अपेक्शा भी है। किन्तु उनका रस भावात्मक आनंद के लिए न होकर अलंकार के चमत्कार से उत्पन्न आनंद के लिए है। दण्डी के अनुसार सभी अलंकारों का उद्देश्य रस की सृष्टि करना है। वे काव्यानंद के लिए शब्दालंकार-अर्थालंकार के साथ रसवद अलंकार को भी शामिल करते हैं। उनके अनुसार शब्द-अर्थ-रस-सौंदर्य के मेल से बनी विशिष्ट पदावली ही काव्य है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर........बधाई।
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    संस्कृत आचार्य दंडी की काव्य-परिभाषा-
    विवेचन के परिपेक्ष्य में मेरा मत है
    कि काव्य में....
    "शब्दसत्ता भी होनी चाहिए।
    अर्थवत्ता भी होनी चाहिए।।
    काव्य है मात्र कल्पना ही नहीं-
    बुद्धिमत्ता भी होनी चाहिए॥"

    सद्भावी -डंडा लखनवी

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  2. @ डॉ० डंडा लखनवी
    आदरणीय लखनवी जी आपकी उपस्थिति और प्रेरक बातें किसी आशिर्वाद से कम नहीं हैं। आभार!

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