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शनिवार, 12 मार्च 2011

कहानी ऐसे बनी-22 :: दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-22

 दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

जय राम जी की !

सोचते-सोचते शनिवार हो गया और हम अभी तक सोच ही रहे हैं कि कहानी ऐसी बनी में आज आप लोगों के सामने क्या लेकर हाज़िर होएं .... क्योंकि आप तो पाठक लोग राजा हैं और कहावत है,"राजा-जोगी-पेखना (मेला) ! खाली हाथ न देखना !!" सो खाली हाथ डोलाते कैसे सामने आयें इसी उधेरबुन में पड़े थे कि एक और कहावत याद आ गयी। हमारी दादी हमेशा कहती थी, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' आईये आपको इसके पीछे की कहानी बताते हैं। हमें दादी ने कही थी, आपको हम ही कह देते हैं।

हमारे गाँव की बात है। एक घर में दो ही भाई बचे थे। खदेरन और रगेदन। दोनों निहायत गरीब। घर में पूंजी के नाम पर एक चूल्हा रह गया था वह भी सांझ-के सांझ उपवास रहता था। मांग-चांग कर कितना दिन चलता।

एक दिन खदेरन बोला, "ए भाई रगेदन ! रेवाखंड के राजा बड़ा दानी हैं। साक्षात्‌ दानवीर कर्ण। चल उन्ही से कुछ मांग लेते हैं। रोज-रोज कहाँ हाथ फैलाएं ? चल न... राजाजी कुछ दे देंगे तो जिन्दगी बीत जाएगी।

रगेदन सब कुछ सुन कर एक बार होंठ को गोल-गोल इधर-उधर घुमाया और फिर बोला, "भाई ! 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना अगर होगा तो घर मे भी मिल जाएगा नहीं तो राजा क्या करेगा ?"

वैसे यह कोई पहिली बार की बात नहीं थी। जब भी खदेरन राजा से कुछ मांगने की बात करता रगेदन वही कहावत कह देता था।

कुछ दिन बीते। दोनों की हालत और पतली होने लगी। एक-दिन खदेरन गरमा गया। बोला, 'आखिर तुमको राजा के पास चलने में क्या जाता है? गाँव-जंवार में सब उनके दरबार में शीश नवा कर कितना हंसी-खुशी आते हैं। राजा बटुआ भर-भर मोहर लुटाते हैं। आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा.... ! हम अब कुछ भी नहीं सुनेंगे। चलना है तो चलना है।'

रगेदन बेचाने मन-मसोस कर कहा, “ठीक है। चलते हैं मगर हमरी बात याद रखना।”

दोनों राज-दरबार में पहुचे। राजा उनकी व्यथा-कथा सुन के बहुत द्रवित हुए। बोले, "आ..हा...हा... ! तुमलोग इतना दुखी-दुर्बल हो गए.... कितना कष्ट उठाया.... पहले क्यों नहीं आए हमरे पास ?"

राजा की बात खतम भी नहीं हुई थी कि खदेरन आँख में आंसू भर के फट से बोला, "माई-बाप ! हम तो कब से कह रहे थे कि चलो अपना राजा सक्षात्‌ दानवीर कर्ण है। वही जाने से हमारा कल्याण होगा। राजाजी को आँख फेरने के देरी है फिर कोई कष्ट नहीं रह जाएगा। मगर देखते नहीं हैं.... यह हमरा भाई जो है मुँहचुप्पा ! अभी कैसे होंठ सी के खड़ा है। और जब भी हम कहते थे आपके पास चलने के लिए तो कहता था, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!'

राजा ने बात की तहकीकात की। रगेदन से पूछा, "क्या जी तुम यह बात बोलते थे।"

रगेदन लाख गरीब था मगर अपनी बात से नहीं डिगने वाला था। एकदम राजा के मुंह पर खरा-खरा बोल दिया,"हाँ, सरकार !! कोई झूठ नहीं कहते हैं। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना होगा तो मिलेगा। नहीं तो नहीं। आप राजा हैं तो क्या ... जो किस्मत में लिखा होगा वह थोड़े ही बाँट लीजियेगा।"

लेकिन राजा बड़ा दयालु था, सच में। रगेदन ने मुंह पर खरा-खरा कह दिया फिर भी उसने दोनों को कुछ-कुछ उपहार दिया। रगेदन को थोड़ा चावल-दाल दिया और खदेरन को एक कद्दू और फिर दूसरे दिन दरबार में आने को कहा। दोनों भाई चले आए वापस। रस्ते भर खदेरन मन-ही-मन सोच रहा था,'धत्त ! यह कद्दू लेकर क्या करेंगे ? रगेदना तो आराम से आज भात-दाल खायेगा।'

घर पहुँचते ही उसने तरकीब लगाई। रगेदन से बोला, "ए भाई रगेदन ! राजाजी ने तो दोनों आदमी को उपहार दिया है। दोनों वस्तु एक ही है। सो चलो न हम दोनों भाई आपस में तोहफा बदल लेते हैं।'

रगेदन तैयार हो गया। बोला, 'कोई बात नहीं है। लाओ कद्दू। लेलो चावल-दाल।'

खदेरन गया आँगन में आराम से बहुत दिन के बाद चावल-दाल बना के खाया और राजा का गुणगान करते हुए खटिया पर पसर गया। उधर रगेदन भी अपना कद्दू लेकर गया आँगन में। सोचा आज इसी को उबाल के खाया जाए। लेकिन यह क्या ....? जैसे ही उसनेद्दू काटा .... उसमें से भरभरा कर सोना-अशरफी, हीरा-जवाहिरात निकला। रगेदन बात समझ गया। उसने आधे कद्दू को गमछे में बाँध कर रख दिया।

अगले दिन फिर दोनों पहुंचे राजा के पास। राजा खदेरन को देख कर मुस्कुरा रहे थे। खदेरन के चेहरे पर भी रात के भात-दाल की रौनक अभी तक कायम थी। फिर राजा ने रगेदन से पूछा, "क्या रे रगेदन ! तुम्हारा विचार कुछ बदला कि अभी भी वही सोचते हो.....?"

रगेदन ने जवाब कुछ नहीं दिया। चुपचाप गमछे से आधा कद्दू निकाल कर राजा के सामने रख दिया। अब तो अचरज के मारे राजा की आँख भी फटी की फटी रह गयी। उसने पूछा,“यह कद्दू तुमको कैसे मिला ? रगेदन खदेरन का मुँह देखने लगा। फिर खदेरन बोला, "मालिक ! वो क्या है कि हमने सोचा खाली कद्दू ले कर क्या करेंगे ? चावल-दाल मिल गया तो आराम से भात-दाल पका कर खा लेंगे .... इसीलिये इससे बदल लिया। मगर हमें क्या मालूम ........!" हाय ! कह कर खदेरन ने अपना माथा ठोक लिया।

राजा बेचारा कद्दू को हाथ में उठा कर बोला, " सच कहता है रगेदन। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' हमने तो तुमको यह सोना-अशरफी दिया था, लेकिन हमरे देने से क्या हुआ? कपाल (किस्मत) में था रगेदन के य्ह हीरा-मोती तो तुमको कहाँ से मिलता।" इतना कहकर राजा ने रगेदन को और भी इनाम दिया और खदेरन को खाने-पीने का समान।

कहानी तो ख़तम हुई। पर कहने का मतलब यही था कि 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' अर्थात किस्मत में जो लिखा होगा वही मिलेगा।

व्यक्ति चाहे जितना भी शक्तिशाली-प्रभावशाली क्यों नहीं हो.... कपाल के लेख को नहीं बदल सकता। देवेच्छा सबसे प्रबल होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपना प्रयास (कर्म) छोड़ देना चाहिए। अरे किस्मत का लिखा तो कर्म करने से मिलेगा न.....! खदेरन और रगेदन राजा के पास नहीं जाते तो जो भी मिला वह मिलता क्या .... ? नहीं ना... ! लेकिन एक बात है, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' किस्मत को तो राजा भी नहीं बदल सकता है।

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12 टिप्‍पणियां:

  1. लोक-जीवन में दूध -मिश्री की तरह घुली-मिली कहावतों के उदगम के बारे में लोक-कथात्मक शैली में सुंदर प्रस्तुतिकरण.आभार .

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  2. मनोज भाई देसिल ब्यना पर जब भी पुस्तक छपवाओ तो मुझे एक कापी जरूर भेजें\ कमाल की कहानियाँ हैं। जीवन के सूत्र तो इन कहानियों से सीखने चाहिये। धन्यवाद और शुभकामनायें।

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  3. बहुत ही रोचक कथा....और कथा कहने का अनुपम तरीका और भी दिलचस्प लगा.

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  4. वाह ..... शिक्षाप्रद रसमय मनोहारी कथा ....

    क्या खूब कहे...वाह...

    मन हरिया गया...दादी ने आपको सुनाया ,आपने हमें और हम बच्चों को सुनायेंगे...

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  5. बहुत ही बढ़िया कहानी ..यह देसिल बयना पहले भी आपके ब्लॉग पर पढ़ा थ ..आज भी उतना ही रोचक लगा .

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  6. आप अपनी जगह सही है ! पर पुरुषार्थ तो आवश्यक है !

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  7. आस पास बिखरी घटनाओं सए कथा निर्माण और उस कथा के माध्यम से एक सूत्र निर्माण जिसे कहावत का नाम दिया जाता है बस यहीं देखने को मिलती है!!

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  8. 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल ....


    कमाल .....!!

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  9. पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः। बहुत अच्छा। साधुवाद।

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