रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर.....

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

पुराने लिंक

1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी! 9. कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय 15 भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... 20 बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !

हैलो जी ! लीजिये, आ गई 14 फरवरी ! मत दिखाइए हरबड़ी !! और सुनिए एक ताज़ी कहानी कैसे बनी !!! अब क्या बताएं .... यह तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही गोसाईं बाबा पर संक्रांति का तिल-गुड़ चढ़ता है, बस सारा पर्व-त्यौहार पसर जाता है। हम तो एक ही बात जानते हैं भैय्या ! जब जब बसंती बयार बहेगा तो मनवा में हिलोर तो मारेगा ही। पर्व-त्यौहार का बहाना कर के लोग मन का उल्लास बहराते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-कस्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली पर्व-त्यौहार हो रहा है।

शहर में तो आज-कल भोलंटाइन बाबा की पूजा की तैय्यारी चल रही है। सब नुक्कड़-चौराहे पर न्योता का रंगीन कार्ड और भोलंटाइन बाबा पर चढ़ाया जाने वाला ताजा-ताजा लाल गुलाब का फूल मिल जाएगा। अब आप सोच रहे होंगे कि भोलंटाइन बाबा की पूजा क्या होती है ? अरे भाई, अँगरेज़ मुल्क में प्रेम के देवता को 'भोलंटाइन' कहते हैं। और अपने मुल्क में सबसे ज्यादा प्रेम फागुन में ही हुलसता है न। सो जवान-अधजवान लड़का-लड़की सब फागुन महीना में 14 फरबरी को भोलंटाइन बाबा की पूजा करते हैं। समझे ??? अब पार्क-वार्क में गला-वला मिलते तो देखते हैं लेकिन भोलंटाइन बाबा की पूजा का ज्यादा विध-विधान हमको पता नहीं है। हम ठहरे देहाती लोग। गांव में रहने वाले। गाँव में तो हमारे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही भोलंटाइन बाबा का नाम जानते हैं। बांकी को तो पता भी नहीं है। सब 'भोलंटाइन बाबा की पूजा' मनायेंगे और हम यहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुछ भी है तो अपना गाँव, स्वर्ग से भी सुन्दर!

लेकिन यह मत समझिये कि गाँव में सुन्ना उपवास है। भाई, पर्व तो गांव में भी हो रहा है। हमारा तो गाँव से पुराना प्रेम है। गाँव से दूर रहे तो फागुन में जब कोयलिया कूकती है तो विरहिन के हिरदय में जैसे हूक उठता है, वैसे ही हमारे कलेजे में टीस मारता है। अचानक लगा कि गाँव की एक-एक पगडण्डी विरह में बसंती राग गा रही है, "एलई फगुआ बहार..... हो बबुआ काहे न आइला..... !!" फिर हम से बर्दाश्त नहीं हुआ और बोरिया विस्तार समेटे और पकड़ लिए रेवा-खंड का रास्ता।

अभी झखना गाछी पार भी नहीं किये थे कि दूर से ही मृदंग के थाप पर झांझ की झंकार सुनाई दिया। भगलू दास गा रहा था, "गोरिया तोड़ देबौ गुमान..... अबके फगुआ में !" समझिये कि इतना सुनते ही हमारे पैर का गियर अपने-आप चेंज हो गया। धर-फर करते घर पहुंचे। बड़े-बुजुर्ग के पायं लागे और गठरी पटक कर फटाक से दौड़ गए चौपाल पर। फिर तो खूब हुआ जोगीरासा...रा...रा...रा...रा... !!

नयी दुल्हन की तरह कुसुम रंग चुनर ओढ़े हमारा गाँव फागुन मद में मदमाता हुलास भर रहा था। शहर-बाजार, दूर-देश में रहने वाले भी होली खेलने 'रेवा-खंड' आ गए थे। चारो तरफ गुलजार था। बड़का कक्का के आंगन में तो दो दिन पहले ही से झमाझम रंग बरस रहा था। पीरपैंती वाली भौजी और पुर्णिया वाले पाहून आये हुए थे। दरभंगा से बड़की दीदी भी आयी थी। रगेदन भाई का ब्याह हुआ था पिछले लगन में। उनकी लुगाई, मतलब नवादा वाली भौजी की पहली होली थी ससुराल में।

लगता है कक्का के आँगन में फागुनी पूर्णिमा पहले ही आ गया है। काकी भोर से तान छोडी हुई है,"केशिया संभारि जुड़वा बाँध ले बहुरिया..... होली खेले आएतो देवर-ननदोसिया !!'

उधर ढोरिया अलग ही राग अलाप रहा था, "ऐसे होली खेलेंगे..... नयकी भौजी के संग...रंग...!"

हम भी चट से हजूम में शामिल हो गए। दीदी, भौजी, पाहून, भैया, सुखाई, चमन लाल सब मिल कर लगे फगुआ के रंग लूटने। पुर्णिया वाले पाहून डफली पीट-पीट कर कूद रहे थे। बड़की भौजी देकची पर ताल दे रही थी। बांकी लोग ताली पीट-पीट कर होली गा रहे थे।

इधर तो आँगन में होली की धूम मची थी लेकिन रगेदन भाई की लुगाई ओसारे पर से गुम-सुम देख रही थी। हम भी कम उकाथी नहीं हैं। लगे उनकी तरफ इशारा कर के गाने, "जियरा उदास भौजी सोचन लागी ! आँगन टिकुली हेराय हो..... जियरा.... !!"

हमको लगा कि भौजी इस गीत पर आयेगी अंगना में। लेकिन यह क्या ...... भौजी तो नहीं ही आयीं, उन का इशारा पाकर रगेदन भाई भी अन्दर चले गए। हमलोग समझे कि अच्छा कोई बात नहीं, भौजी की पहली-पहली होली है, सो शरमा रही हैं। रगेदन भाई अपने साथ लेकर आयेंगे।

एक गीत पास हुआ। दूसरा हुआ। फिर जोगीरा सा...रा....रा....रा....रा.... !! लेकिन न रगेदन भाई आये ना भौजी। हमलोग सोचने लगे कि क्या बात है? तभी अन्दर से टेप-रिकॉर्डर पर फिल्मी होली बजने की आवाज़ आई ....... 'चाभे गोरी का यार बलम तरसे.... रंग बरसे....!'

अच्छा तो ये बात है ........ अन्दर में ही प्रोग्राम चल रहा है। वाह रे वाह .... भौजी तो अन्दर में खिलखिला कर हंस रही हैं। अब तो इसी बात पर काकी खिसिया गयी। बोली, "देखो रे बाबू नया जमाना के कनिया..... ! इसी को कहते हैं 'घर भर देवर, पति से ठट्ठा !!'

गुस्से में काकी ऐसे अलाप के बोलीं थीं कि पूरी मंडली को हंसी आ गयी। काकी फेर चौल करते हुए बोली, "हाँ रे बाबू ! देखते नहीं हो ? यहाँ आँगन में ननद-ननदोई, देवर फैले हुए हैं और दुल्हिन रगेदेन के साथ ही हंसी ठिठोली कर रही है। अब इस पर तो कहेंगे ही न, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

हम भी लगे-लगे दुहरा दिए, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !" फिर पूछे, "लेकिन काकी ! इस कहावत का अर्थ क्या होता है ?”

काकी देहाती भाषा में जो इसका अर्थ बताई वह आपकी समझ में आयेगा कि नहीं यह तो पता नहीं। मगर हम अपनी तरफ से समझाने का कोशिश करते हैं। "घर भर देवर, पति से ठट्ठा" का मतलब हुआ, 'हंसुआ का ब्याह में खुरपी का गीत' अवसर है कुछ का और कर रहे हैं कुछ। दूसरा, गाँव घर में आज भी रिश्तों में काफी अनुशासन बरता जाता है। वहाँ पर हर रिश्ते के लिए अलग-अलग भाव, स्नेह, प्रेम और सम्मान है। हंसी मजाक का रिश्ता है देवर से। मान लिया कि कहीं देवर नहीं रहे तो कोई बात नहीं। जब देवर की प्रचुरता है, तब कोई पति से ही ठट्ठा मतलब मजाक करे तो कहाबत सही ही है, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

अब इसका भावार्थ ये हुआ कि 'उचित संसाधन की उपलब्धता के बावजूद जब कोई व्यक्ति, वस्तु या संबंधों का दुरूपयोग करे तो काकी की कहावत याद रहे, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

तो यह थी आज की कहानी ऐसे बनी ........ पसंद आया तो दे ढोलक पर ताल....... और बोलिए, जय हो भोलंटाइन बाबा की ............ !!!!

4 टिप्‍पणियां:

  1. दिया ढोलक पर थाप ...और कह रहें है .. .. कहानी बड़ी जम कर बनी है... अच्छी बनी कहानी और लेख.. उम्दा ... वाह

    जवाब देंहटाएं
  2. करन जी भोलाबबा से भोलान्ताइन बाबा... रेवा खंड में भी ये संक्रमण का समय है.. एक गीत याद आ रहा है.. हे भोलाबबा हमरो करा दय वियाह... भोलान्ताइन बाबा वियाह तो नहीं करा सकते.. जुगाड़ करा सकते हैं...

    जवाब देंहटाएं
  3. सटीक मौका और बेहतरीन व्याख्या की है आपने । आपकी शैली बहुत मोहक है। मनाने के तरीके अलग अलग हो सकते हैं लेकिन फगुआ वाकर्इ आपके गांव में जोरदार मनाया जाता हैा हमें भी अपने उत्तरांचल के फाग की याद दिला गया आपका यह विदेशी भौलंटाइन बाबा का ठेठ गंवर्इ एकालाप । बधार्इ हरीश जोशी

    जवाब देंहटाएं
  4. हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण रोचक प्रस्तुति. आभार .

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें