भारतीय दर्शन के छ प्रकारों संख्या, योग, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, न्याय एवं वैशेषिक में से एक है सांख्य। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बन्धी'। सांख्य दर्शन के रचयिता कपिल मुनि माने जाते हैं। सांख्य दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति 'भगवान' के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है।
जीव की दुर्गति का कारण है --- आध्यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक पाप। भगवान कपिल ने इन तीनों दुःखों से मुक्ति का उपाय बतलाया है। सांख्य का अर्थ होता है ज्ञान।
सांख्य के अनुसार मूल तत्व 25 है। ये है
१. प्रकृति, २. महत् ३. अंहकार, ४. 11 इन्द्रियां, ५. पांच तन्मात्राएं, ६. पांच महाभूत और ७. पुरूष।
१. प्रकृति :
सत्व, रजः, तमः – इन तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है। इस अवस्था में प्रकृति निष्क्रिय रहती है। इन तीनों गुणों में जब कभी कमी आती है या बढोत्तरी होती है, तब उस विषमता से प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। उसमें विकृति आती है। प्रकृति की विकृति से ही जीव और जगत की सृष्टि होती है।
जीव और जगत अव्यक्त रूप में प्रकृति में विद्यमान रहते हैं। इसी कारण से प्रकृति का एक और नाम “अव्यक्त” है। सृष्टि आदि क्रिया में प्रकृति ही प्रधान है। वह प्रकृतरूप में काम करती है। प्रकृति बना है प्र और कृति के संयोग से। प्र का अर्थ है प्रकर्ष और कृति का अर्थ है निर्माण करना। जिन मूल तत्वों से मिलकर बाकी सब कुछ बनता है, उसे प्रकृति कहते हैं। इसी कारण से “प्रकृति” नाम पड़ा -- “प्रकरोरीति प्रकृतिः।”
२. महतः
प्रकृति का प्रथम परिणाम महत्तत्व या बुद्धितत्व है।
३. अहंकार:
महत्तव की विकृति अहंकारतत्व है।
४. ग्यारह इन्द्रियां:
अंहकार तत्व के परिणाम हैं इन्द्रिय --- विषय।
इन्द्रियां दो प्रकार की है –
(क) बाह्य इन्द्रियां – दो प्रकार की होती है –
(अ) ज्ञानेन्द्रियां
1 चक्षु
2 कर्ण
3 नासिका
4 जिह्वा
5 त्वक्
(आ) कर्मेन्द्रियां
1 वाक्
2 पाणि
3 पाद
4 पायु
5 उपस्थ
(ख) अन्तरेन्द्रिय – मन
(5) पंच मात्राएं
पंत्रतम्मात्रा अहंकारतत्व का एक परिणाम है। पांच तम्मात्राएं है --
1 रूप
2 रस
3 गन्ध
4 स्पर्श और
5 शब्द
(6) पंच महाभूत
उपर्युक्त वर्णित पंचतमात्रओं से ही पांच स्थूल तत्वों की उत्पति होती है। ये हैं –
1 क्षिति,
2 अप् (जल)
3 तेज (पावक)
4 व्योम (गगन , आकाश ) और
5 मरूत् (समीर)
(7) पुरूष
सांख्य मत के अनुसार इन 25 तत्वों का सम्यक ज्ञान ही पुरूषार्थ है।
- सांख्य मत में, जीव और जगत की सृष्टि में ईश्वर को प्रमाणरूप में नहीं माना जाता।
- जगत के दो भाग हैं -पुरुष और प्रकृति।
- पुरूष और प्रकृति के अविभक्त संयोग से सृष्टि की क्रिया निष्पन्न होती है।
- पुरूष और प्रकृति दोनों ही अनादि है।
- पुरूष चेतन है, प्रकृति जड़।
- पुरुष मनुष्य का चेतन तत्व है।
- प्रकृति शेष जगत है।
- पुरूष निष्क्रिय है, प्रकृति क्रियाशील।
- चेतन पुरूष के सान्निध्य से प्रकृति भी चैतन्यमयी लगती है।
- पुरूष केवल भोक्ता है, कर्ता नहीं।
- पुरुष का यह भोग औपचारिक है।
- पुरूष सर्वदा ही दुखवर्जित है।
- दुःख तो बुद्धि का विकार है।
- दुख का कारण अज्ञानतावश पुरुष और प्रकृति में भेद नहीं कर पाना है।
- दुःखबुद्धि पुरूष में प्रतिबिम्बित मात्र होती है।
सांख्य मत
- सांख्य ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता है।
- शरीर के भेद में आत्मा और पुरूष बहु है। पुरूष और प्रकृति 24 तत्व से स्वतन्त्र है।
- संसार के दुखों और सुखोंका विश्लेषण इन्हीं चौबीस तत्वों और पुरुष के संयोग के आधार पर किया जाता है।
- अज्ञानतावश, न जानने के कारण ही जीव को बन्धन में बंधना पड़ता है। अर्थात दुख और संसार में आवागमन के चक्र में फंसना पड़ता है।
- प्रकृति पुरूष को अपने हाव-भाव छल-कौशल द्वारा बांधकर रखती है। प्रकृति मानों नाटक की नर्तकी है।
- इसके कारण ही वह भोग की वस्तुओं को ही अपना लक्ष्य मान लेता है और काम, क्रोध, मद, मोह आदि में ही आनंद प्राप्त करता है। यही दुख का कारण है।
- इसी भेद को ठीक-ठीक नहीं समझ पाने के कारण पुरुष अपने को प्रकृति ही समझ लेता है। यही मिथ्या ज्ञान है।
- मनमोहिनी उसके इस हाव-भाव, नाच-नृत्य, छल कौशल को पुरूष जिस दिन पकड़ लेता है, उसी दिन वह मुक्त हो जाता है, अर्थात सारे बंधन तोड़ देता है।
- पुरुष निरंतर अपने बारे में चेतना प्राप्त करता है और इसी क्रम में अपने और प्रकृति के अस्तित्व के भेद का ज्ञान प्राप्त करता है।
- प्रकृति से पुरूष की स्वतंत्रता या मुक्ति के विवेक को “ज्ञान” कहा जाता है।
- “ज्ञानामुक्ति”! अर्थात ज्ञान ही मुक्ति है।
- कठोर साधना द्वारा प्रकृति पुरूष के भोग्या-भोक्ता भाव का उच्छेद ही पुरूषार्थ या आत्यन्तिक “दुखनिवृत्ति” है।
- अर्थात् प्रकृति को तलाक देकर ही पुरूष के जीवन में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार से प्रकृति से सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होने का नाम ही पुरूष का “कैवल्य” है।
- कैवल्य की अवस्था जब पुरुष इस चैतन्य को प्राप्त कर ले और अपने आप को शुद्ध पुरुष के रूप में समझ ले, तो इस अवस्था को कैवल्य कहते हैं। कैवल्य की अवस्था में मनुष्य सुख और दुख से ऊपर उठ जाता है।
- चेतना के स्तर पर पहुंच जाने से दुखों की निवृत्ति हो जाती है और इसे ही मोक्ष कहते हैं।
- मुक्त पुरूष को प्रकृति अपने छल बल से रिझाने नहीं आती। जिस प्रकार सभा समाप्त हो जाने के पश्चात नर्तकी पुर्णतः निढ़ाल हो जाती है और नाचने के लिए नहीं उठती, उसी प्रकार की स्थिति यह है।
- सांख्य के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय पूजा-पाठ या किसी ईश्वर की उपासना नहीं है, बल्कि अपनी चेतना के असली स्वरूप को समझ लेना ही है।
पुरूषार्थ प्राप्ति
सांख्यकारों ने इसके लिए ध्यान, धारणा, अभ्यास, वैराग्य तपश्चरण आदि का पालन करने का उपदेश दिया है। सांख्य के साथ योग का घनिष्ठ संबंध है।
aapke blog par aakar mhjhe bahut hi achha lagta hai kyon ki itanigyan ki baate ghar baithe hi mil jati hain jinse abhi anjaan hun.in jankariyoko dene ke liye dil se aapka abhinandan karti hun.
जवाब देंहटाएंpoonam
सर सांख्य दर्शन के 25तत्वों की पूरी जानकारी चाहिये थी अगर आपकी थोड़ी सहायता मिल जाये तो यह मेरा सौभाग्य रहेगा आपसे कर बद्ध विनती है। धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदिनेश कुमार गुप्ता