साहित्यकार श्रीराम शर्मा
पं. श्रीराम शर्मा का जन्म ज़िला मैनपुरी, (तहसील शिकोहाबाद) उत्तर प्रदेश के किरथरा नामक गांव में सन् १८९६ में हुआ था। शर्माजी के ददा जमींदार थे परन्तु दुर्भाग्य से उनके पिता पं. रेवतीराम शर्मा का निधन अल्पायु में ही हो गया। रिश्तेदारों तथा अन्य जमींदारों के कुचक्र से उनकी पैतृक संपत्ति जाती रही। शर्माजी की माताजी ने तीन बेटों के साथ संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया। स्वयं खेती की, और बेटों का पालन-पोषण किया। शर्माजी को आरंभिक शिक्षा उनके ब़ड़े भाई से ही मिली, बड़े भाई के कठोर अनुशासन ने उन्हें भी अनुशासन-प्रिय बना दिया।
पं. श्रीराम शर्मा ने खुर्जा में हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल पास करने के बाद शर्माजी ने आगरा कालिज में प्रवेश लिया। बी.ए. में पढते समय उनका संपर्क पं. श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन तथा श्री गुलजारीलाल नंदा से हुआ। उनके प्रभाव में आकर राष्ट्रीय आंदोलन में वे कूद पड़े। इसी बीच श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिन्हें वे जीवनभर राजनीति तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना गुरु मानते रहे। बी.ए. पास करने के बाद शर्माजी ने एम. ए. (अर्थशास्त्र) तथा एलएल. बी. की कक्षाओं में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों श्री गणेशशंकर विद्यार्थी गिरफ्तार कर लिए गए। जेल से उनका संदेश प्राप्त करके शर्माजी ने पढ़ाई छोड़ दी और ‘प्रताप’ (कानपुर) का संपादन संभाल लिया। संपूर्ण जीवन पत्रकारिता, लेखन तथा राजनीति कार्य में अर्पित कर दिया। लंबी बीमारी के बाद शर्माजी का देहावसान 27 फरवरी सन् 1967 को आगरा में हुआ था।
प्रारंभ में इन्होंने अध्यापन का काम किया। इसके बाद बहुत समय तक से देश और साहित्य की सेवा करते रहे। शर्माजी ने ‘प्रताप’ (कानपुर) के संपादन से पत्रकारिता में प्रवेश किया। उन्होंने ‘विशाल भारत’ पत्रिका के संपादक के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया और काफ़ी ख्याति अर्जित की। 1938 से 1962 तक ‘विशाल भारत’ के संपादक रहे। श्री मोहनसिंह सैंगर तथा ‘अज्ञेय’ जी उनके सह-संपादक थे ‘विशाल भारत’ में उनके लिखे 1000 पृष्ठों के संपादकीय अपना विशेष राजनीतिक तथा साहित्यिक महत्त्व रखते हैं।
हिंदी में शिकार-साहित्य का आरंभ शर्माजी ने ही किया था। वे स्वयं बहुत बड़े शिकारी थे। जिम कार्बेट से उनके बड़े संबंध थे। शिकार संबंधी उनके ग्रंथ हैं-शिकार, प्राणों का सौदा, जंगल के जीव तथा जिम कार्बेट की पुस्तकों (रुद्रप्रयाग का आदमखोर आदि) के अनुवाद। शर्माजी प्राणी-विज्ञान के विशेषज्ञ थे। वनस्पति एवं जीव विज्ञान (बॉटनी तथा जूलोजी) के साथ-साथ कृषि-विज्ञान के माहिर भी थे। ‘भारत के जंगली जीव’ ‘भारत के पक्षी, ‘हमारी गायें’, तथा ‘पपीता’ आदि उनकी इस विषय की पुस्तकें हैं।
शर्माजी हिंदी-साहित्य में रेखाचित्र-संस्मरण(रिपोर्ताज) विधाओं के जन्मदाता माने जाते हैं। इस क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं-बोलती प्रतिमा, वे जीते कैसे हैं, संघर्ष और समीक्षा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सेवाग्राम की डायरी, सन बयालीस के संस्मरण सीकर तथा नयना सितमगर (अप्रकाशित)।
शर्माजी की भाषा-शैली एक विशेष प्रकार की प्रभा से युक्त है। इनकी भाषा प्रवाहपूर्ण और मुहावरेदार है। तद्भव शब्दों के प्रयोग से इनकी भाषा में सजीवता आ गई है। एक विशेष बात शर्माजी की शैली की है, उनके उद्धरणों का प्रयोग। विशेषकर उर्दू के शेरों का प्रयोग। लगभग प्रत्येक लेख, निबंध इत्यादि में उर्दू के शेरों के उद्धरण दिए हैं। वे एक सफल शिकारी थे और अपनी क़लम की जादूगरी से शिकार कथाओं को पाठक तक पहुंचाते रहे। हिन्दी में उन्हें शिकार साहित्य का अग्रणी लेखक माना जाता है। उनकी शिकार कथाओं का वर्णन इतना सजीव होता था कि लगता था हम उनके साथ जंगल में उस शिकार का प्रत्यक्षदर्शी हों। शर्माजी की राइफल का निशाना जितना अचूक है, उतना ही उनकी भाषा का भी है। वह सीधे पाठक के हृदय में प्रवेश कर जाती।
बचपन में पढी उनकी एक कहानी ‘स्मृति’ आज भी मन पर छायी हुई है, जिसमें उन्होंने बाल्यावस्था की एक घटना का चित्रण किया है। भाई के आदेश पर उनकी लिखी चिट्ठी पहुंचाने के लिए जाते वक्त रास्ते में वह चिट्ठी ग़लती से कुएं में गिर जाती है जो सूखा है और उस कुएं में एक भयानक विषधर है। घर में डांट न पड़े इसलिए वह बालक कैसे कुएं में उतरता है और सांप से बचते बचाते उस चिट्ठी को निकालता है इसका वर्णन उस कहानी में है। बड़ी रोमांचक शैली में प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक परिस्थिति की गंभीरता तथा खतरे को उन्होंने इस प्रकार से प्रस्तुत किया है कि पाठक का कुतूहल शुरु से अंत तक बना रहता है। एक बानगी देखिए ---
डंडे को लेकर ज्यों ही मैंने सांप की दाईं ओर पड़ी चिट्ठी की ओर उसे बढाया कि सांप का फन पीछे की ओर हुआ। धीरे-धीरे डंडा चिट्ठी की ओर बढा और ज्योंही चिट्ठी के पास पहुंचा कि फुंकार के साथ काली बिजली तड़पी और डंडे पर गिरी। हृदय में कंप हुआ, और हाथों ने आज्ञा न मानी। डंडा छूटा। देखा डंडे पर तीन-चार स्थानों पर पीव-सा कुछ लगा हुआ है। वह विष था। सांप ने मानो अपनी शक्ति का सर्टीफ़िकेट सामने रख दिया था। यह वही डंडा था जिसके बारे में लेखक लिखता है “मेरा डंडा अनेक सांपों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था।”
पं. श्रीराम शर्मा के बारे में ज्ञानवर्धक जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इस उत्तम जानकारी के लिए। ‘स्मृति’ की स्मृति आज भी ताज़ा है।
जवाब देंहटाएंहिन्दी भाषा , साहित्य, कला और संस्कृति पर आधारित आलेखों को ब्लॉग पर प्रस्तुत करते हुए आप इस अत्याधुनिक संचार और प्रचार माध्यम का सही मायने में सार्थक उपयोग कर रहे हैं . राष्ट्र-भाषा की सेवा के लिए आधुनिक संचार-प्रौद्योगिकी के बेहतर इस्तेमाल का यह एक प्रेरणादायक उदाहरण है. साहित्यकार श्रीराम शर्मा पर केंद्रित आलेख के लिए बधाई और आभार .
जवाब देंहटाएंअशोक जी, हास्यफुहार जी धन्यवाद आपका।
जवाब देंहटाएंस्वराज्य जी, आपकी टिप्पणी भावुक कर गई। इस अपनापन से भरे विचार ही हमारा मनोबल और दृढ करता है कि हम राजभाषा हिन्दी की सेवा कर सकें। आभार आपका।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप सबों का।
जवाब देंहटाएंमनोज जी हिंदी ब्लॉग्गिंग में गंभीर साहित्य की अब तक कमी थी... आपके प्रयासों से न केवल साहित्य के सभी विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य मिल रहा है बल्कि आप गुमनाम साहित्यकारों को रौशनी में भी ला रहे हैं.. पहले आपने पंदुत श्याम मिश्र जी के नवगीत से परिचय कराया और आज पंडित राम शर्मा से परिचय कराया.. उल्लेखनीय प्रयास है यह.. हिंदी ब्लॉग्गिंग का जब इतिहास लिखा जायेगा.. आप होंगे उसमे..
जवाब देंहटाएंशर्मा जी के बारे में और उनके साहित्य से परिचय कराने का आभार ..बहुत सार्थक लेख
जवाब देंहटाएंमनोज जी, ये कहानी 'स्मृति' हमारे पाठ्यक्रम में थी| दुबारा याद कर रोमांच हो आया| कहानी व लेखक को याद दिलाने के लिए बहुत शुक्रिया|
जवाब देंहटाएंअरुण जी, इतनी प्रेरक बात कहने के लिए आभार। मुझे इतिहास की बात का तो पता नहीं पर जितना बन पड़ता है, राजभाषा हिन्दी की सेवा के लिए करता हूं। और इसमें आप सब भी तो सहयोग दे रहे हैं। ये अकेले होने वाला काम नहीं है।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, प्रोत्साहन के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंनीरज जी, ठीक कहा, हमारे जमाने में भी यह पाठ्यक्रम में हुआ करता था। मन तो था कि पूरी कहानी ही दूं, पर ब्लॉग जगत में लोग बड़ी पोस्ट पढने से कतराते हैं। पर कभी उस कहानी को भी पोस्ट करूंगा।
जवाब देंहटाएंआभार आपका।
... prasanshaneey post !!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया जानकारी उपलब्ध करवाई…………आभार्।
जवाब देंहटाएंउदय जी और वन्दना जी, धन्यवाद और प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंआचार्य श्रीराम शर्मा में साहित्य और अध्यात्म का अद्भुत संगम था। उनकी अनेक पुस्तकों में उर्दू का एक भी शब्द नहीं मिलेगा। मगर फिर भी,वह संस्कृतनिष्ठता से परे और सहजग्राह्य है।
जवाब देंहटाएंराधारमण जी आभार प्रोत्साहन और विचार के लिए।
जवाब देंहटाएंplz post you book sikar in hindi or mail me on ppathak0@gmail.com i like this book very much in childhood
जवाब देंहटाएंi was searching for smrti pdf...if you have the story, could you please mail me
जवाब देंहटाएंe-mail: vivpandey13@gmail.com
Thanks manoj g
जवाब देंहटाएंIt ws great to se your post about my grandfather
Will soon make available lots of material showcasing various facets of his life on a site dedicated to him
Thanks manoj g
जवाब देंहटाएंIt ws great to se your post about my grandfather
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Bahut bahut dhanyawad.pls ager ho sake to SHREE NIDHI.ke shikar sahytya se bhi avgat karayen.
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