आज की कविता का अभिव्यंजना कौशल
आज की कविताओं में भाषिक खिलंदड़ापन और ऐसे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों। एक उदाहरण लेते हैं, रघुवीर सहाय की कविता ‘सभी लुजलुजे हैं’ -
खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं
मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं
सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं
झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,
टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं
गरजते हैं, घिघियाते हैं
ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं
सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,
पिलपिल हैं,
सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।
(सीढि़यो पर धूप, रघुवीर सहाय)
काव्यभाषा के विकास का क्रम जारी है, जीते जागते यथार्थ को प्रभावी और विश्वसनीय तरीके से पेश करने के लिए शब्द गढ़े जा रहे हैं, ढूंढे जा रहे हैं, तराशे जा रहे हैं।
काव्यभाषा का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए। भाषा की सीमाएं भी कवि को मालूम होना चाहिए। शब्द यथार्थ की इमेज तो होता है लेकिन फिर भी उसमें असलियत को पूरी तरह चित्रित करने की क्षमता नहीं होती। साठोत्तर की कविताओं में भाषा को साधारण बोलचाल की भाषा के निकट लाने की कोशिश रही है। बोलचाल की नाटकीयता, वक्रता, लोच, यह कविता की भाषा हो गई, बोली के काफी क़रीब। रचनाकार परंपरागत काव्य-भाषा के अलंकृत, बहुलार्थक (एम्बीगुअस) रूप से अलग ऐसी काव्य-भाषा रचने लगे जो ठीक-ठीक वही कह सके जो उनका प्रयोजन था। यानी काव्य-भाषा किताबीपन या रीतिवादिता से मुक्त रहे। वह छद्म हिंदी न हो, यानी भाषा के दोमुंहेपन से बचा जाए। देखिए रघुवीर सहाय की कविता --
कोने में खटिया पर जा करके पहुड़ रही
वह पहुड़ी रही साल भर तक फिर गुजर गयी
औरतें उठी घर धोया मर्द गए बाहर
अर्थी लेकर।
कवि, नयी और जीवित भाषा की तलाश की लंबी प्रक्रिया से गुजरना चाहता हो या नहीं, पर एक अलग तरह की भाषा की खोज जरूर की गई जो सामाजिक संकट और समाज के विकास को चित्रित करने में कारगर हो। यहां यह बताना शायद उपयोगी होगा कि भाषा की प्रतीकात्मक जड़ता को लगभग निर्णयक रूप से ध्वस्त करने का यह उपक्रम किसी नई भाषिक तरकीब की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। यह कोई नया शिल्पजगत पूर्वग्रह नहीं बल्कि उस फासले को कम करने की कोशिश रही जो रचनाकार के संज्ञान और यथार्थ की गतिविधि के बीच सहज ही बन जाता है।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने रानी और कानी, खजोहरा, गर्म पकौड़ी, कुत्ता भौंकने लगा, झींगुर डर कर बोला, मंहगू मंहगा रहा, वह तोड़ती पत्थर, आदि कविताओं द्वारा चित्रात्मकता को फाड़कर बीहड़ मगर सच्चा दृश्य उपस्थित करना शुरू कर दिया था। निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध के बाद साठोत्तरी कविताओं में नवीन काव्याभिरूचि, नवीन सौंदर्यबोध तथा नये संवेदन ने प्रवेश किया। इस दौर की कविता मुख्यतः साधारण आदमी की पहचान और उस पहचान की तलाश की कविता है। इस दौर में निषेध, नकार, विद्रोह, आक्रोश एवं अस्वीकृति के तेवर थे। वर्तमान परिवेश की विसंगति को उजागर करके उसके प्रति निषेध, नकार और अस्वीकृति के भाव को अभिव्यक्ति दी जाने लगी। एक वर्ग ऐसा भी रहा जो व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह एवं आक्रोश को अपना विषय बनाने लगा। नयी रचनाओं में प्रखर सामाजिक चेतना व प्रतिबद्धिता के कारण रचनात्मकता का मानदण्ड जीवन हो गया और जीवन ही उसे दिशा प्रदान करता है।
किसी वस्तु, भाव या स्थिति का हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है और उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे ही संवेदना कहते हैं। आज के दौर में संवेदना इकहरी नहीं जटिल हो गई है। काव्य के सौंदर्य-शास्त्र में परिवर्तन आया है। जीवन का क्षूद्रतम अंश भी कविता के लिए पवित्र है तथा जीवन का प्रत्येक कण कवि की संवेदना को जगाने में सक्षम। एक उदाहरण देखिए जिसमें एक मादा सूअर धूप में पसर कर अपने छौनों को दूध पिला रही है – वह भी नागार्जुन की संवेदना का हक़दार है क्योंकि यह भी तो मादरे-हिंद की बेटी है।
‘पैने दांतों वाली’
धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे-हिंद की बेटी है
भूरे-भूरे बारह थनों वाली!
आज कविताओं में ऐसे शब्दों का प्रवेश हो गया जो पहले अवांछनीय माने जाते थे। धूमिल ने “मूतना”, गर्भ, गदगद औरत, मासिक धर्म, नेकर का नाड़ा, आदि शब्दों का प्रयोग किया। कविताओं के शीर्षक कुत्ता, एक बुढ़ा मैं, मोचीराम होने लगे। कवि, ‘हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है’ कहने का साहस पा लेता है।
कवि और रचनाकार चुनौतियों को स्वीकार कर अपना अलग व्यक्तित्व बनाए रखने पर जोर देने लगा। कवि जड़ता का विरोधी होकर जड़ता को तोड़ने के लिए ऐसे-ऐसे शब्द गढ़ने लगे। वर्जित शब्द, जो पहले माने जाते थे, उनका प्रयोग भिन्न संदर्भ और भिन्न ढंग में किया जाने लगा। ‘सुरूचिभंजक’ शब्द कविताओं में स्थान पाने लगे।
इन सबसे ऐसी रचनाओं का सृजन होने लगा जिसमें न सिर्फ जिंदगी के मर्मस्पर्शी अक्स ने स्थान पाया बल्कि समाज की स्थिति, गतिहीनता, जर्जरता, विकृतियां और विडम्बनाओं को बखूबी दर्शाया और समझाया गया है। आज के रचनाकार अपने परिवेश से न सिर्फ जुड़ा होता है बल्कि यथार्थ की ठोस धरती पर खड़ा रहता है। तब उसकी कविता संत्रस्त प्रपीडि़त मानव का दर्द मुखरित करती हैं जो टूटता हुआ है, घुटता हुआ जीने की यंत्रणा को वहन करता है। लगता है आज मनोरंजन कविता का उद्देश्य नहीं, उसका एकमात्र उद्देश्य आज के आदमी की व्यथा कहना है। आज के कवि की वेदना रोमानी वेदना नहीं है। कविताओं में दर्द किसी प्रेम पात्र के स्मरण में कसक के रूप में उत्पन्न नहीं होता, न ही पश्चाताप के रूप में।
आज की विषमताग्रस्त स्थिति में, जबकि प्रत्येक व्यक्ति संघर्षरत है, कविता ही उसे विश्राम दे सकती है, उसके दर्द और संघर्ष की थकान को दूर कर सकती है, इसलिए व्यावहारिकता और संवेदनाओं का संघर्ष ही कविता में मुखरित होता है। वास्तव में व्यक्तियों का परिस्थितयों से संघर्ष और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने की भावनाओं की उपेक्षा ही तो कविता में अभिव्यक्त होती है ।
निराला ने काव्य-भाषा को इतना आगे बढ़ा दिया था कि उसके अनेकानेक अपरिचित स्वरूपों के नवोन्मेषों से अचकचाकर कुछ लोगों ने उनकी बौद्धिक संघटना को ही विकृत घोषित कर दिया। नागार्जुन ने जीवन की क्षुद्रता को ऐश्वर्य दिया। मुक्तिबोध ने फेंटेसी, बिम्ब, कल्पना और आत्मसंघर्ष की सूक्ष्मता कथ्यों के उपयुक्त बनाकर आधुनिक हिंदी-कविता की भाषा की संवेदना के जर्रे जर्रे खोलकर रख देने की क्षमता दी। धूमिल ने डिक्शन दिया। यानी आज संवेदना इतनी व्यापक है कि कविताओं में सब कुछ के लिए स्थान है, कुछ भी वर्जित नहीं है, कुछ भी त्याज्य नहीं है।
साठोत्तरी कविताओं में सही शब्दों की तलाश दिखती है। अब तक कविता के लिए विशिष्ट काव्य भाषा प्रचलित रही। इसके चलते हिंदी अत्यधिक समृद्ध भी हुई। किन्तु ऐसा महसूस किया जाने लगा कि इस काव्य-भाषा के कारण ‘वस्तु’ और ‘व्यक्ति’ के बीच, कविता की भाषा एक दीवार बन गई है। मतलब यह है कि भाषा और काव्य-भाषा का अंतर स्पष्ट किए बिना सच्चाई तक जाना कदापि संभव नहीं। क्योंकि चली आ रही काव्य-भाषा ने आधुनिक रूचि बोध को एक ग़लत दिशा दी। कविता पढ़ने के पहले ऐसा लगता था कि हम कविता पढ़ने बैठे हैं। इस तरह अनजाने ही लोग “काव्य-भाषा” के आतंक के शिकार हो जाते थे। इसलिए साठोत्तरी कवि ने एक नई भाषा दी। यह अनुभव किया जाने लगा कि कवि का पहला काम कविता को भाषाहीन करना है। साथ ही यह भी समझा गया कि अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों से भी कविता को मुक्त करना है। एक बड़ी अच्छी पंक्ति है उद्धत करना चाहूंगा-
‘कभी कभी या अधिकांशतः प्रतीकों और बिम्बों के कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसे हास्यापद हो जाती है, जिसके आगे एक बच्चा हो, गोद में एक बच्चा हो और एक बच्चा पेट में हो।’
प्रतीक और बिम्ब जहां सूक्ष्म सांकेतिक और सहज संप्रेषणीयता में सहायक होते हैं वहीं अपनी अधिकता से कविता को ग्राफिक बना देते हैं। आज महत्व शिल्प का नहीं कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है?
इसके लिए आदमी की जरूरतों के बीच की भाषा का चुनाव करना और जीवन की हलचलों के प्रति सजग दृष्टिकोण कायम रखना अत्यंत आवश्यक है। भाषा कविता और पाठक के बीच दीवान बनकर खड़ी न हो इसलिए आज कवि कविता को भाषाहीन कर इस दीवार को तोड़ते नजर आते हैं।
धूमिल ने लिखा है,
छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते थे,
प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोल कर रखते थे,
नयी कविता के कवि शब्दों को गोल कर रखते थे,
सन् साठ के बाद के कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं।
आज कवि अपनी कविताओं के लिए कठोर और नुकीले शब्द चुनता है, उन पर धार देता है, उन्हें पैना करता है और वाक्यों में बांधकर फेंकता रहता है, आपनी तरफ से पूरी ताकत लगाकर! उस आदमी को मारता है ---
जो आदमी के भेष में
शातिर दरिंदा है
जो हाथों और पैरों से पंगु हो चुका है
मगर नाखून में जिंदा है
जिसने विरोध का अक्षर-अक्षर
अपने पक्ष में तोड़ लिया है।
इसलिए आज कविताऒ में आक्रोश, विद्रोह, युयुत्सा, टूटन, अनास्था, विसंगति, विरोध और लड़ाई का स्वर मुखरित होकर सामने आ पाया है। शब्द चमत्कार पैदा करने के लिए कविताओं में प्रयुक्त नहीं होते बल्कि धरती से जुड़ा होना उसका लक्ष्य है, यही शब्दावली समकालीन कविता को अपनी एक अलग पहचान कायम करती है।
आज कवि शब्दों के चयन को विशेष महत्व प्रदान करता है। भले ही वह शब्दों को तराशने अथवा भारी भरकम बनाने की अपेक्षा सहज प्रयोग पर बल देता है, किंतु कवि कविता में शब्दों अक्षरों के माध्यम से “कथ्य” का रंग किस प्रकार भरा जाता है, इसकी प्रतीति निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है –
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे खून
का रंग।
इस तरह हम कह सकते हैं कि आज के कवि या रचनाकार ने कविता को अपनी अभिव्यक्ति भंगिमा से एक नया जीवन और रूप प्रदान किया है। समकालीन कवियों ने काव्य-भाषा को संचरणशील गतिमत्ता, त्वरा, ऊर्जा और उर्वरता देने में बहुत योगदान दिया है और हिंदी कविता को एक नयी भाषा से सम्पन्न किया है।
बहुत प्यारी, शोध क्षात्रों के लिए उपयोगी इस रचना के लिए बधाई मनोज भाई ! हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएं* विषमताग्रसत > विषमताग्रस्त
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिखा है , पर भारतेंदु युग की भाषा पर कुछ नहीं लिखा , वहाँ तो गजब सम्प्रेषणीयता का आग्रह है . और यह भी कि ' सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? ' , का भी !! आभार !
... sadiyon se chalaa aa rahaa hai ki ek antaraal ke baad saahityakaaron ne "shabdon va bhaavon" men nayaapan laane kaa prayaas kiyaa hai ... kabhee kabhee to aisaa hotaa hai ki shabd samajh nahee aate aur kabhee kabhee bhaavaarth samajh nahee aate ... jise paathak ko samajhane kaa pryaas karnaa padtaa hai jo nihaayat jaruree bhee hai ... yadi kuchh nayaapan nahee rahegaa to shaayad prasanshaneey nahee ho paayegaa ... ek behad prabhaavashaalee post ... bahut bahut badhaai !!!
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी और सार्थक पोस्ट! इस पोस्ट की चर्चा आज नं.-1 पर है!
जवाब देंहटाएंआज की कविता ...पर आपका यह लेख जानकारी युक्त है ...बहुत से उदाहरणों के साथ बात को स्पष्ट कर अपनी बात रखी गयी है ...सच ही आज कविता ..शब्दों के सौंदर्य से ज्यादा कथ्य पर आधारित होती है ...
जवाब देंहटाएं" इस दौर में निषेध, नकार, विद्रोह, आक्रोश एवं अस्वीकृति के तेवर थे। वर्तमान परिवेश की विसंगति को उजागर करके उसके प्रति निषेध, नकार और अस्वीकृति के भाव को अभिव्यक्ति दी जाने लगी। एक वर्ग ऐसा भी रहा जो व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह एवं आक्रोश को अपना विषय बनाने लगा। "
साहित्य के क्षेत्र में यह लेख मील का पत्थर साबित होगा ...आभार
ज्ञान-वर्धक आलेख.बधाई और आभार.
जवाब देंहटाएंआज चुनी गई थी मेरी एक रचना चर्चामंच पर /
जवाब देंहटाएंवही से देखा आपको /बड़ा ही अच्छा लग रहा है जुड़ कर
आज तो बहुत ही उपयोगी जानकारी दी साथ ही सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है……………आभार्।
जवाब देंहटाएंभाषा के स्वरूप पर जितना प्रकाश डाला वह जानकारी देने वाला है. इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंभाषा में प्रायः देखे जा रहे बदलाव पर कविता के प्रारंभिक दौर से वर्तमान तक के सफ़र की विस्तृत चर्चा आपके इस आलेख में पढ़ने को मिली.
जवाब देंहटाएंउदाहरण देते हुए आपने इस आलेख को साहित्यिक नज़रिए से बड़ा प्रभावी, उपयोगी,जानकारीपरक और मूल्यवान बनाया है. आपकी मेहनत प्रशंसायोग्य है.
sabse pahle to intne upyogi aalekh ke liye koti koti dhanywaad.
जवाब देंहटाएंkavita ke shuru se lekar aaj tak ke daur ki vistaar se jaankari bahut badhiya suvyasthit rahi.
parivartan avashyayambhav hai..aur vo hona hi chaahiye...ye parivartan hi jindgi bhi hai...lekin ise sweekar kar pana hi mushkil hai. jise sweekar karna hi chaahiye.
shukriya is prastuti ke liye.
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जवाब देंहटाएंनिश्चय ही कवियों का विशेष योगदान रहा है भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में।
आभार।
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आदरणीय मनोज कुमार जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
"आज की कविता का अभिव्यंजना कौशल" आलेख आपके अन्य लेखों की तरह अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण है ।
आपकी मेहनत, लगन और विद्वता श्लाघनीय है ! प्रशंसनीय है ! वंदनीय है !
आभार एवं शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि ब्लॉग पर स्तरीय या सार्थक लेखन नहीं हो रहा....आपके इन आलेखों को तो पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए .
जवाब देंहटाएं@ सतीश जी
जवाब देंहटाएंआभार आपका जो आपने हमारी मेहनत को इतना महत्व दिया।
मनोज जी आज की कविता में 'अभिव्यंजना कौशल' विषय पर आपका आलेख आज की कविता को समझने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में कार्य करेगा... आधुनिक कविता में शब्दों के अर्थ उनकी आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि लिए होते हैं.. इस के कारण कविता कम शब्दों में बहुत अधिक बात कह जाती है.. बहुत कम उदहारण में भी आलेख सार्थक लग रही है.. आज के कवियों में मंगलेश डबराल, राजेश जोशी इस से पूर्व रामदरश मिश्र आदि का नाम भी लिया जा सकता है.. कुल मिला कर एक बढ़िया आलेख..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआज मनोरंजन कविता का उद्देश्य नहीं, उसका एकमात्र उद्देश्य आज के आदमी की व्यथा कहना है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही अवलोकन....एक संग्रहणीय पोस्ट...बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकत है ऐसी पोस्ट से...शुक्रिया
अमरेन्द्र जी आपके विचार मेरे लिए टॉनिक समान होते हैं।
जवाब देंहटाएंहां भारतेन्दु युग को नहीं ले सका।
भूल सुधार कर दिया।
आभार।
उदय भाई, आपकी प्रेरक बातों के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
साहित्य के क्षेत्र में यह लेख मील का पत्थर साबित होगा .....आभार
संगीता स्वरुप जी से पूरी तरह से सहमत हूँ..
आज की कविता का जो रूप आपने प्रस्तुत किया है वह वास्तव में तारीफ के काविल है । साहित्य का कोई कोना नहीं छोडा आपने उदाहरण प्रस्तुत करने में ।
जवाब देंहटाएंज्ञान-वर्धक आलेख!
जवाब देंहटाएंआज तो आपकी पोस्ट पढकर मुझे राहत इन्दौरी साहब का एक मुशायरा याद आ गया, जहां उन्होंने एक गज़ल पढ़ी थी... याद से तीन शेर लिख रहा हूँ..पता नहीं यह अभिव्यंजना की श्रेणी में आता है या नहीं:
जवाब देंहटाएंआपकी कत्थई आँखों में हैं, जंतर मंतर सब
चाक़ू वाकू, छुरियाँ वुरियाँ, खंजर वंजआर सब.
जिस दिन से तुम रूठी मुझसे रूठे रूठे हैं
चादर वादर, तकिया वाकिया, बिस्तर विस्तर सब.
मुझसे बिछड के वो भी कहाँ अब पहले जैसे हैं
फीके पड़ गए, कपडे वपड़े, जेवर वेवर सब.
एक तरफ वे कविताएँ हैं जिनका अर्थ बगैर शब्दकोश के समझा नहीं जा सकता और दूसरी तरफ ये कविताएँ जिनके कई शब्द कोश में ढूंढे नहीं मिलेंगे। आम आदमी को ख़ास ज़बान देते खांटी देशज/स्थानीय शब्द। अद्भुत!
जवाब देंहटाएंपांच लाख से भी जियादा लोग फायदा उठा चुके हैं
जवाब देंहटाएंप्यारे मालिक के ये दो नाम हैं जो कोई भी इनको सच्चे दिल से 100 बार पढेगा।
मालिक उसको हर परेशानी से छुटकारा देगा और अपना सच्चा रास्ता
दिखा कर रहेगा। वो दो नाम यह हैं।
या हादी
(ऐ सच्चा रास्ता दिखाने वाले)
या रहीम
(ऐ हर परेशानी में दया करने वाले)
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{आप की अमानत आपकी सेवा में}
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पांच लाख से भी जियादा लोग
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